वैदिक सम्पत्ति – 331, *वैदिक आर्यों की सभ्यता*
यह लेखमाला हम पंडित रघुनंदन शर्मा जी की वैदिक सम्पत्ति नामक पुस्तक के आधार पर सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।
प्रस्तुति – देवेंद्र सिंह आर्य चैयरमेन – उगता भारत
गतांक से आगे ….
*जड़ सृष्टि की उत्पत्ति*
सृष्टि के परिवर्तन और प्राणियों के उत्तम और अधम स्वभावों से जाना जाता है कि यह सृष्टि कभी परिवर्तन- रहित स्थिर दशा में थी और समस्त प्राणी स्थूल शरीरविहीन अपने कुत कर्मों का फल भोगने के लिए किसी व्यवस्था- पक के द्वारा किसी कारागार में जाने के योग्य हो रहे थे। हम इस पुस्तक के पृष्ठ १२० में लिख आये हैं कि परि- वर्तनशील पदार्थ भविष्य में परिवर्तनशून्य होकर स्थिर हो जाते हैं और भूतकाल में भी बिना परिवर्तन के स्थिर दशा में ही रहते हैं। इसी सिद्धान्तानुसार यह परिवर्तनशील संसार भी भूतकाल में विना परिवर्तन के अपनी कारण दशा में ही स्थिर था। इसी तरह समस्त प्राणियों के परिवर्तनशील शरीर भी अपने कारणों में ही मिले हुए थे और समस्त चेतनशक्तियाँ शरीरहीन अवस्था में ही थीं, तथा अगले फल भोगने को उत्सुक हो रही थीं अर्थात् सारा सामान नवीन सृष्टि निर्माण के योग्य प्रस्तुत था। ऐसी दशा में यह प्रश्न स्वाभाविक ही उपस्थित होता है कि सृष्टि की उत्पत्ति किस प्रकार आरम्भ हुई है और वह किस प्रकार बनी ?
यद्यपि कहा जा सकता है कि जिस प्रकार अनादि प्रवाह से सृष्टि सदैव बनती रही है उसी प्रकार इस बार भी बनी । तथापि इतने से ही उन उलझनों का समाधान नहीं हो सकता, जो सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में उत्पन्न हो गई हैं। सृष्टि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में लोगों की कई रायें हैं। कोई कहता है कि सृष्टि को प्राकृतिक शक्ति ने स्वयं बना लिया, कोई कहता है सृष्टि को जीवों ने मिलकर बना लिया और कोई कहता है कि सृष्टि को परमात्मा ने ही बना लिया है। ऐसी दशा में जब तक तीनों रायों की आलोचना न हो जाय तब तक कोई स्थिर सिद्धान्त कायम नहीं हो सकता। इसलिए हम यहाँ क्रम से तीनों मतों की आलोचना करते हैं।
जो लोग कहते हैं कि प्राकृतिक शक्तियों ने स्वयं इस सृष्टि को उत्पन्न कर लिया है, वे गलती पर हैं। क्योंकि प्रकृति की शक्तियाँ परमाणुओं के ही अन्दर हैं और परमाणु सब एक समान हैं। ऐसी दशा में समान बल- वाले परमाणु आप ही आप न तो आपस में मिल ही सकते हैं और न अलग ही हो सकते हैं। पर संसार में पदार्थों को मिलते और अलग होते हुए बनते और बिगड़ते हुए नित्य देखते हैं, जिससे ज्ञात होता है कि परमाणुओं में न तो बल ही एक समान है और न उनसे आप ही आप कोई कार्य बन और बिगड़ ही सकता है। यदि कुछ परमाणुओं को प्रबल और कुछ को हीन बलवाले मानें, तो भी काम नहीं चल सकता। क्योंकि प्रबल परमाणु हीनवालों को खींच लेंगे और कभी भी न छोड़ेंगे। फल यह होगा कि न किसी पदार्थ में परिवर्तन होगा और न कोई पदार्थ नष्ट ही होगा, प्रत्युत समस्त जगत् बिना किसी प्रकार के परिवर्तन के ठोस, स्थिर रूप से बना रहेगा। परन्तु हम संसार के समस्त पदार्थों में परिवर्तन और विनाश देखते हैं, जिससे ज्ञात होता है कि परमाणुओं में न तो बल ही न्यूनाधिक है और न इस सृष्टि में न्यूनाधिक बल का प्रभाव ही है। इन सम और विषम दो प्रकार की शक्तियों के अतिरिक्त प्राकृतिक पर- माणुषों में तीसरे प्रकार के अन्य बल की कल्पना नहीं हो सकती। इससे ज्ञात होता है कि दूर दूर स्थित परमाणु बिना किसी माध्यम के एक दूसरे पर प्रभाव डालकर न तो आकर्षित ही कर सकते हैं और न आकृष्ट परमाणुधों को जुदा ही कर सकते हैं, इसलिए केवल प्राकृतिक शक्तियाँ ही सृष्टि को उत्पन्न नहीं कर सकतीं।
इसके सिवा जो लोग कहते हैं कि समस्त जीवों ने मिलकर सृष्टि को उत्पन्न कर लिया है, वे भी भूलते हैं। क्योंकि जो पदार्थ अणु, परिच्छिन्न एकवेशी होते हैं, चाहे मले वे चेतन और असंख्य ही क्यों न हों, वे अनन्त सृष्टि को बुद्धि- पूर्वक न तो बना ही सकते हैं और न उसको नियम में ही रख सकते हैं। इसका कारण जीवों की अल्पज्ञता और अणुरूपता ही है। संसार का बनाना तो बहुत दूर की बात है। वे आदि में अपने शरीरों को ही नहीं बना सकते। इसलिए अनेक चेतन मिलकर सृष्टि को नहीं बना सकते ।
जो लोग कहते हैं कि परमेश्वर ने ही इस सृष्टि को बना लिया है, वे इस बात को भूल जाते हैं कि परमात्मा सवत्र व्याप्त और परिपूर्ण है। जो चीज सर्वत्र व्याप्त और परिपूर्ण होती है, वह हिल बुल नहीं सकती। परन्तु सृष्टि उत्पन्न करने के लिए प्रकृति परमाणुओं में गति उत्पन्न करना पड़ता है और दूसरे पदार्थ में वही गति उत्पन्न कर सकता है, जो पहिले स्वयं गतिमान् होता है, इसलिए विना खुद हिले डुले परमात्मा भी परमाणुओं को नहीं हिला सकता । इस पर कुछ लोग कहते हैं कि जिस प्रकार चुम्बक बिना खुद हिले हुले लोहे में गति उत्पन्न कर देता है, उसी तरह परमात्मा ने भी विना हिले डुले परमाणुओं में गति उत्पन्न कर दी है। पर इस युक्ति में यह एतराज हो सकता है कि प्रकृति परमाणुओं को तो परमेश्वर समान रूप से नित्य ही प्राप्त है, इसलिए नित्य एक ही प्रकार की गति हो सकती है, दो प्रकार की परस्पर-विरोधी गति नहीं। अर्थात् या तो सृष्टि बन ही जायगी या बिगड़ ही जायगी, या तो उत्पत्ति ही हो जायगी या विनाश ही हो जायगा, लेकिन यह न हो सकेगा कि परमेश्वर जब जैसा चाहे तब वैसा हो जाय, अर्थात् जब बनाना चाहे तब बन जाय और जब बिगाड़ना चाहे तब बिगड़ जाय। क्योकि चेतन की इच्छा का बसर जड़ प्रकृति पर नहीं पड़ता, इसलिए परमेश्वर भी सृष्टि को उत्पन्न नहीं कर सकता। ऐसी दशा में स्वाभाविक ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इस सृष्टि को किसने किस प्रकार उत्पन्न किया ?
क्रमशः
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।