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इतिहास के पन्नों से

अशोक का अहिंसावाद और अफगानिस्तान के हिंदू*

जब संसार में नए संप्रदायों का जन्म होना आरंभ हुआ तो उन्होंने अपनी जनसंख्या बढ़ाने पर भी ध्यान दिया। इसके लिए स्वाभाविक था कि जो विधर्मी लोग थे उनको जीता जाए और फिर उनसे अपना मजहब स्वीकार कराया जाए। यही कारण रहा कि विश्व में अपनी जनसंख्या बढ़ाने के दृष्टिकोण से ईसाइयत और इस्लाम दोनों ने संसार में तथाकथित विजय यात्राओं का अभियान आरंभ किया। यह कहने के लिए तो विजय यात्राएँ थीं, परंतु वास्तव में यह अपने संप्रदाय की जनसंख्या बढ़ाकर अपने आपको सुरक्षित कर लेने का उपाय खोजने का एक माध्यम भी था।

  तथाकथित धर्म गुरुओं ने अपने राजनीतिक शिष्यों के माध्यम से दूसरे देशों के क्षेत्रों को जीतने का अभियान चलाया। इसके लिए जब अधिक आपाधापी मची तो उन्होंने दूसरे देशों में लूट के लिए जाने वाले अपने राजनीतिक शिष्यों या तथाकथित सैनिकों को यह भी छूट दे दी कि आप अपनी सेना अपने आप बनाएँ और उस सेना के सैनिकों को दूसरे देश या क्षेत्र में जाकर जो *'लूट का माल'* मिले उसी में से उनका भी अंश देकर संतुष्ट किया जाए। इस प्रकार अवैतनिक सेना इस आधार पर तैयार की जाने लगी कि जो *'लूट का माल'* मिलेगा, उसमें से आप सब को भी यथोचित *'माल'* दे दिया जाएगा।

इस प्रकार यह सेना न होकर डकैतों का झुंड था। काबुल शाही शासकों ने उत्तरीय झूनबिल क्षेत्र में शासन किया था, जिस में काबुलिस्तान और गान्धार जनपद भी सम्मिलित थे। इस क्षेत्र को रौंद देने के उद्देश्य से अरब के लोग अपने देश से निकले और काबुल तक अपना इस्लामिक संदेश अर्थात् *"या तो इस्लाम स्वीकार करो अन्यथा मरने के लिए तैयार रहो, "* - लेकर पहुँचे। परन्तु अरबी लोग वहाँ अधिक समय तक शासन करने में सफल नहीं हो सके। काबुल के शाहों ने नगर के चारों ओर विशाल भित्ति बनाने का निर्णय लिया। उनका यह निर्णय कुछ उसी प्रकार का था जैसा कभी मंगोल वालों के आक्रमण से बचने के लिए चीन ने अपने यहाँ एक सुरक्षा दीवार तैयार की थी। अरब वालों के आक्रमणों से बचने के लिए बनाई गई। यह सुरक्षा भित्ति इस क्षेत्र के लोगों के लिए बहुत ही अधिक उपयोगी सिद्ध हुई। यह भित्ति आज भी उपस्थित है।

    '2002' नामक अपनी पुस्तक में विलियम वोगेल्संग ने लिखा है कि, 'आठवीं और नौवीं शताब्दी के काल में आधुनिक अफगानिस्तान के पूर्वक्षेत्रीय प्रान्तों पर गैर- मुस्लिम शासकों का राज्य था। यद्यपि उनमें से कई स्थानीय शासक हुनिक या तुर्की वंशीय थे, तथापि मुसलमान उन्हें हिन्दू ही मानते थे। पूर्वीय अफगानिस्तानियों के सन्दर्भ में आज मुसलमानों का वह अनुमान उचित सिद्ध हो रहा है, क्योंकि वे सभी गैर-मुस्लिम समुदाय सांस्कृतिक रूप से दृढ़तया भारतीय उप-महाद्वीपीय संस्कृति से जुड़े हुए थे। उनमें से अधिकतर हिन्दू या बौद्ध थे।

     तुर्की और हुत्रिक लोगों को हिन्दू मानने का विशेष कारण था। अरब में मुसलमानों के धर्म का जन्म होने के कारण अरब वाले लोग अपने आपको जन्मजात मुसलमान मानते थे, परंतु तुर्की या दूसरे संप्रदाय के लोगों में चूंकि वैदिक धर्म की मान्यताएँ अभी भी कार्य कर रही थीं, इसलिए उन्हें यह लोग मुसलमान नहीं मानते थे। प्राचीन काल से तुर्की या उसके आसपास के क्षेत्रों के लोगों के सभी संप्रदाय टूटी-फूटी वैदिक मान्यताओं के आधार पर ही अपना जीवनयापन कर रहे थे, इसलिए चाहे यह मान्यताएँ टूटी-फूटी अवस्था में ही उनका मार्गदर्शन कर रही थीं, परंतु अरब के लोगों के लिए यह मान्यताएँ हिंदुओं की मान्यताएँ होने के कारण अस्वीकार्य थीं। यही कारण था कि वह इन लोगों को अभी तक भी हिंदू मान रहे थे।

  जैसा कि इस्लाम के बारे में सुविख्यात तथ्य है कि जब तक मुसलमान किसी क्षेत्र में दो चार प्रतिशत रहता है, तब तक वह बहुत शांतिपूर्वक अपना कार्य करता है। 5 से 10% होने पर वह अपने अधिकारों की माँग करने लगता है और 30 से 40% होते ही शेष समुदायों को मिटाने की तैयारी करने लगता है। यही स्थिति अफगानिस्तान में भी हुई थी। जब तक इस्लाम को मानने वाले लोग बहुत कम संख्या में थे, तब तक वह अफगानिस्तान के हिंदू व बौद्ध संप्रदायों के लोगों के साथ बहुत शांतिपूर्वक मिलकर रहने का नाटक करते रहे, परंतु जैसे-जैसे उनकी संख्या जिन-जिन क्षेत्रों में बढ़ने लगी वहीं-वहीं से वह उन्हें मिटाने का काम करने लगे।

  इतिहासकारों की मान्यता है कि 870 ई. में सफ्फारी राजवंश से ज़ारंज वंश पर्यन्त अधिकतम अफगानिस्तान पर विजय प्राप्त हो गई और मुस्लिम प्रशासकों को सम्पूर्ण देश में नियुक्त किया गया। यह सूचना मिलती है कि 10वीं शताब्दी में गजनवी के आने या पदाक्रान्त करने तक मुसलमान और गैर-मुसलमान उस स्थिति में भी एक साथ रहते थे।

हिंदू शब्द का पहली बार प्रयोग

  जैसे-जैसे अफगानिस्तान पर इस्लाम का शिकंजा कसता गया, वैसे-वैसे यह कभी का गांधार महाजनपद अपना अलग स्वरूप लेने लगा। यहाँ के लोगों ने भारत के लोगों को उनकी भौगोलिक स्थिति के कारण हिन्दू कहना आरंभ किया। हिंदू का अभिप्राय हिंदुस्तान में रहने वालों से था। इस प्रकार हिंदू न केवल भारत की भौगोलिक स्थिति का प्रतीक शब्द था, अपितु उनकी दृष्टि में हमारी राष्ट्रीयता का प्रतीक भी था। शासकीय स्तर पर हिंदू शब्द को अफगानिस्तान में 982 ई. में हमारे लिए प्रयुक्त किया।

इतिहासकारों की मान्यता है कि हुदौद-अल-आलं का नांगरहार के राजा के साथ हुए संवाद में हिन्दू शब्द का उपयोग मिलता है। कहा जाता है कि हुदौद-अल-आलं की 30 से अधिक पत्नियाँ थीं। उन सभी का 'मुस्लिम', 'अफगान,' और 'हिन्दू' के रूप में वर्णन होता था। यह एक सामान्य परंपरा है कि महिलाएँ जिस क्षेत्र, गाँव या शहर की होती हैं, सामान्यतः लोग उन्हें कई बार उनके क्षेत्र, गाँव या शहर से भी पुकार लेते हैं, जैसे-दिल्ली वाली, मुंबई वाली, पटना वाली इत्यादि। इसी प्रकार हुदौद अल आलम ने भी अपनी पत्नियों का भौगोलिक दृष्टि से नामकरण कर दिया था। उदाहरण के लिए, हिन्दू (या हिंदुस्तानी) को ऐतिहासिक दृष्टि से एक भौगोलिक शब्द के रूप में वर्णित किया गया था, जो हिन्दुस्तान (भारतीय उपमहाद्वीप) के मूल निवासी थे और अफगान अफगानिस्तान के मूल निवासियों के लिये था।

अशोक के अहिंसावाद के कारण मिटने लगे हिंदू

     आज के अफगानिस्तान को बनाने में महमूद गजनवी के आक्रमणों का विशेष योगदान है। महमूद गजनवी के आक्रमणों के सबसे अधिक शिकार तत्कालीन अफगानिस्तान के हिन्दू व बौद्ध लोग हुए। जैसा कि हम पूर्व में ही उल्लेख कर चुके हैं कि वहाँ पर बौद्ध बने हिंदू अहिंसावाद में इतने डूब चुके थे कि वह अपने क्षत्रियपन को भूल चुके थे। फलस्वरूप वह गजनवी की तलवारों का सामना नहीं कर पाए। गजनवी को अपने आक्रमणों में चाहे सफलता मिली या नहीं मिली, अर्थात् वह अपना विशाल साम्राज्य स्थापित कर सकने में सफल हुआ या नहीं हुआ, यह चिंतन का एक अलग विषय हो सकता है। यहाँ पर उसके विषय में यह बात पूर्णतया सत्य है कि वह इस्लाम के लिए बहुत बड़ा सेवक सिद्ध हुआ, क्योंकि उसे इतनी बड़ी संख्या में शिकार अफगानिस्तान में ही मिल गए थे कि वह उन्हें इस्लाम में दीक्षित कर इस्लाम की अच्छी सेवा कर पाने में सफल हो गया। गजनवी के लोगों ने हिंदुओं को पकड़ - पकड़कर दास बनाना आरंभ कर  दिया। बेचारे हिंदू अहिंसावाद के कारण स्वयं को दीन-हीन तथा असहाय समझकर और सचमुच कायरता का प्रदर्शन करते हुए उनके दास बनते चले गए।

    जो लोग अपने लिए ईश्वर से प्रार्थना करते थे कि हमें शत्रु संतापक बनाओ, शत्रुओं का विनाश करने वाला बनाओ, ऐसे फितने लोगों का संहार करने वाला बनाओ जो समाज में अशांति व उपद्रव फैलाते हैं और जो हमारी स्वाधीनता के लिए संकट उत्पन्न करते हैं, वही लोग अब असहायावस्था में आ चुके थे। इसका कारण यही था कि वह अपने उस राष्ट्रधर्म को भूल गए थे, जिसमें वह अपने आपको शत्रु-संतापक होने की कामना करते थे। अशोक ने कुछ कलिंगवासियों की कारुणिक चीख-पुकार को सुनकर तलवार फेंकी थी, यह उसकी मानवता हो सकती है, परंतु यह उसका राष्ट्रधर्म कदापि नहीं था, क्योंकि राष्ट्रधर्म में दूर भविष्य की योजनाओं पर विचार करके निर्णय लिया जाता है। शासक यह सोच-विचार करता है कि वह जो कुछ भी कर रहा है, उसका उसकी प्रजा और उसके देश के लिए दूरगामी भविष्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा? अशोक की अदूरदर्शिता के कारण अब वह समय आ गया था जब अफगानिस्तान में महमूद की तलवार के सामने एक साथ हजारों लाखों हिंदू कारुणिक चीख-पुकार कर रहे थे, परंतु अशोक की अहिंसावादी नीतियों का गजनवी और उसके लोगों पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ रहा था।

   अल-इदरीसी यह सिद्ध करता है कि 12वीं शताब्दी पर्यन्त सभी शाही राजाओं के राज्याभिषेक के लिये एक अनुबंध काबुल पर लागू होता था और उस अनुबंध का पालन करने के लिये कुछ परम्परागत शर्तों को स्वीकारना पड़ता था। गजनवी के सैन्य की पदाक्रान्तता के कारण सुत्री इस्लाम पर वर्चस्व स्थापित हो गया, जो आज अफगानिस्तान और पाकिस्तान में हैं। विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों में, जैसे कि मार्टिन एवन्स, इ. जे. ब्रिल और फरिश्ता में काबुल से लेकर अफगानिस्तान के अन्य भागों में इस्लाम के विस्तार की और महमूद की विजय की घटनायें उल्लेखित हैं।

महात्मा बुद्ध ने *'जियो और जीने दो'* का सिद्धांत मानवता के लिए दिया था। अफगानिस्तान में जब इस्लाम की तलवार प्रविष्ट हुई तो उसने एक ही नारा दिया कि *'काटो और कटने दो। "* काटो और कटने दो' की उनकी नीति के सामने 'जियो और जीने दो' का नारा चला नहीं। इस प्रकार *'जियो और जीने दो'* कहने वाले जब पौरुषविहीन हो गए तो उनके सामने एक ही विकल्प रह गया कि वे इस्लाम स्वीकार कर लें।

   यह घटना हमें बताती है कि देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए पौरुष का बना रहना आवश्यक होता है। उस पर किसी बनावटी, दिखावटी या सजावटी मान्यता का लेपन लगाकर उसे कांतिविहीन करने का प्रयास यदि किया जाएगा तो ऐसा राष्ट्र मर जाता है। जैसा कि भारत में विगत कुछ समय से कुछ लोगों ने यह कहना आरंभ किया कि यदि कोई आपके एक गाल पर चाँटा मारे तो दूसरा गाल भी उसके सामने कर दो, इस प्रकार की मानसिकता या इस प्रकार के नारे देश के पौरुष को नीरस करते हैं, उसे कांतिविहीन करते हैं और उसे कायर बनाते हैं। देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए अफगानिस्तान के बौद्ध बने हिंदुओं की परिणति को हमें एक आदर्श उदाहरण के रूप में अपने समक्ष रखना चाहिए।

क्रमशः

Dr Rakesh Kumar Arya

By डॉ॰ राकेश कुमार आर्य

मुख्य संपादक, उगता भारत

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