Categories
पर्व – त्यौहार

नवरात्र और एकादशी का रहस्य, भाग 2

व्रत क्या है?

एकादशी का पवित्र व्रत धारण करने से जीवन में महानता की ज्योति प्रकट हो जाती है। क्योंकि यजुर्वेद के 34वें अध्याय के प्रथम मंत्र में मन को ज्योतियों में एक ज्योति कहा गया,अर्थात मन प्रकाशक है। प्रकाशको का प्रकाशक है। उससे ही जीवन का एक उज्जवल लक्ष्य हमारे सामने आने लगता है।
इसके विपरीत आज का समाज तो अन्न को त्यागने का व्रत स्वीकार करता है। परंतु वास्तव में सनातन समाज में किसी प्रकार का अंतर्द्वंद नहीं होना चाहिए। यह तो सभी के लिए एक ही समान होता है। इंद्रियों को संयम में बनाना ही संकल्प है। विचारधारा को शोधन करना ही संकल्प है। जो सभी के लिए समान रूप से लागू होता है।
यह जो अन्न छोड़ने की अथवा जल ग्रहण नहीं करने की रूढी बन गई है, उसको हमें इसको छोड़ना चाहिए। हमें एक समान व्रत के वास्तविक अर्थ को समझते हुए शुभ संकल्प लेने चाहिए। अर्थात अपने अंदर अच्छाइयों को लाना है “दूरितान दुराम”अर्थात जितने भी दुर्व्यवहार और दुर्गुण हैं उनको त्यागना ही व्रत है। अतः स्पष्ट हुआ कि केवल क्षुधा पीड़ित बनना ही व्रत नहीं कहलाया जाता। व्रत नाम तो संकल्प का है। क्षुधा से क्षुधित होना व्रत नहीं है ।व्रत अपने इंद्रियों को विचारशील बनाना है ।इंद्रियों के ऊपर अनुसंधान करना है ।यही व्रत का अभिप्राय है।
इस प्रकार एकादशी का निर्जला व्रत जेष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को अथवा किसी अन्य विशेष दिन या समय पर ऐसा व्रत नहीं करना चाहिए।
बल्कि ऐसा व्रत तो जीवन पर्यंत धारण करना चाहिए अर्थात शुभ संकल्प जीवन में प्रत्येक क्षण में आवश्यक हैं। अतः पोप, पंडो और पुजारियों के चक्कर में न पड़कर अविद्या, अज्ञान, पाखंड, पाषाण पूजा, अंधकार से दूर होकर मिथ्या ज्ञान को निकालकर तत्वज्ञान प्राप्त करके तत्वज्ञ बनें।
तथा शुभ संकल्प लेकर अपने जीवन को सफल बनाना चाहिए।

मूर्ति पूजा वेद के सर्वथा विपरीत है, यह परंपरा अर्वाचीन है प्राचीन नहीं।
कार्तिक सुदी 12 संवत 1926 दिवस मंगलवार को महाराज काशीनरेश बहुत से पंडितों को साथ लेकर जब महर्षि दयानंद स्वामी जी महाराज से शास्त्रार्थ करने हेतु आए, तब दयानंद स्वामी ने महाराज से पूछा कि आप वेदों की पुस्तक लेकर आए हैं या नहीं?
सन 1869 में काशी शास्त्रार्थ के समय महर्षि दयानंद ने स्वामी विशुद्धानंद सरस्वती, बालशास्त्री आदि पंडितों के साथ शास्त्रार्थ करते हुए यह सार्वजनिक रूप से उद्घोष किया था कि पाषाणादि, मूर्तिपूजन ,शैव , शाक्त, गाणपत और वैष्णव आदि संप्रदायों और रुद्राक्ष ,तुलसी माला, त्रिपुण्डादि, धारण का विधान कहीं भी वेदों में नहीं है। इससे यह सब मिथ्या ही है ।कदापि इनका आचरण न करना चाहिए। क्योंकि वेद विरुद्ध और वेदों में अप्रसिद्ध के आचरण से बड़ा पाप होता है। ऐसी मर्यादा वेदों में लिखी है।
क्योंकि वेद ही सब सत्य विधाओं की पुस्तक है।
क्योंकि वेद अपौरुषेय हैं।
क्योंकि वेद ईश्वर की वाणी है।
वेद सब सत्य विद्याओं का मूल है।
इसलिए केवल वेद विद्या पर ही विश्वास करना चाहिए।
ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र उपाय महर्षि पतंजलि प्रणीत यम ,नियम, आसान, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि है।
महर्षि दयानंद ने अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम अध्याय में यह स्पष्ट लिखा है कि
देव अथवा देवी ईश्वर के ही गौणिक नाम है। ईश्वर को पुलिंग अथवा स्त्रीलिंग या नपुंसक लिंग में पुकारा जा सकता है। ईश्वर की दिव्य शक्ति को ही दैवीय जिसका अपभ्रंश होकर देवी कहा जाता है। ईश्वर के विषय में तो वेद में लिखा है कि
“न तस्य प्रतिमा अस्ति”
अर्थात उस ईश्वर की कोई प्रतिमा या मूर्ति नहीं हो सकती।
तो उस दिव्य शक्ति परमात्मा की कोई मूर्ति नहीं बनानी चाहिए और न मूर्ति की पूजा करनी चाहिए।
मूर्ति पूजा करना जड़ की पूजा करना है। इससे बुद्धि जड़ होती है। अज्ञानता और अंधकार को बढ़ावा मिलता है। जिससे पाप लगता है।
अष्टभुजों वाली दुर्गा की वास्तविकता।
पहली भुजा पूर्व की जहां से अदिति सूर्य उदय होता है। प्रातः काल में पूर्वाभिमुख होकर के याग करना चाहिए। अपने जीवन को प्रकाशमान करना चाहिए। क्योंकि प्रकाश ही तो मानव का जीवन है। अपने अंतर्तम के अंधकार को समाप्त करना चाहिए ।अंधकार अज्ञान का प्रतीक है। प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है। यह देवी की एक भुजा है।
दूसरी भुजा दक्षिण दिशा है। अध्यात्मवाद में दक्षिण दिशा में विज्ञान की तरंगे ओत प्रोत रहती है। दक्षिण में ही शब्दों का भंडार होता है। दक्षिण में ही सोम है। दक्षिण दिशा ही अग्नि और विद्युत का भंडार है। इसलिए यह ईश्वर प्रदत्त दूसरी दिशा है,दूसरी भुजा है, दूसरी शक्ति है।
तीसरी दिशा पश्चिम है जो ईश्वरीय दिव्य शक्ति माता का तृतीय भुज कहलाता है। अन्न के भंडार के रूप में जानी जाती है। जब पश्चिम दिशा से वायु वेग से गति करती है, विद्युत को साथ लेकर के आती है तो माता पृथ्वी के गर्भ में नाना प्रकार की आभा को वर्षा से परिणत कर देती है। नाना प्रकार का खाद्य और खनिज पदार्थ इसी से उत्पन्न होने लगता है। इसलिए यह माता की तीसरी भुजा है।
चौथी भुज उत्तरायण है। जितने भी साधकजन हैं वे सभी उत्तर की दिशा को अभिमुख होकर योगाभ्यास करते हैं। प्राण की गति को प्राप्त करते हैं। जितने भी शुभ कार्य होते हैं उत्तर दिशा कोअ मुख करके होते हैं। जितना भी ज्ञान का भंडार है वह उत्तरायण में रहता है। इसलिए यह ईश्वर रूपी माता की दी हुई चौथी भुजाहै।
पांचवी भुज ध्रुवा कही जाती है।
जो नीचे की ओर की भुजा है अथवा दिशा है जो प्रकृति के साथ जुड़ती है। प्रकृति से एवं पृथ्वी से हमको अनेक साधन और समर्थ प्राप्त होते हैं। साधक अथवा वैज्ञानिक इसमें भी गति करता है।
छठा भुज उर्ध्वा में रहता है। अर्थात ऊपर की दिशा जो अंतरिक्ष लोक से द्युलोक तक की गति कराता है। नाना प्रकार की सुखों की, आनंद की, तथा देवत्व की वृष्टि करता है।
वेद का ऋषि कहता है कि ब्रह्मा के कमंडल में यह ममतामई देवी किसी काल में वास करती थी। कहीं इसको संध्या के रूप में, कहीं मां काली के रूप में , कहीं मां शक्ति के रूप में, कहीं शन्नो के रूप में, कहीं दुर्गा मां के रूप में, तो कहीं इसको वसुंधरा कहते हैं ।कहीं इसको धेनु कहते हैं कहीं इसको गौ रूपों में परिणत करने लगते हैं। देवी संपदा वालों ने इसको भिन्न-भिन्न रूपों में माना है। देवी याग प्राणी को करना चाहिए और ब्रह्म वेत्ता बनना चाहिए ।ब्रह्म का चिंतन करने वाला साधक बनना चाहिए। योगी की तरह उड़ान करते हुए अनेक लोकों में, मंडलों में, भ्रमण करना चाहिए। विज्ञान के युग में गति करनी चाहिए। वैज्ञानिक यंत्रों पर विद्यमान होकर के लोक लोकातंरों की यात्रा योगाभ्यासी करने लगता है ।उर्ध्वा का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।
दिशा ईशान कोण होती है जिस दिशा में याग के समय कलश की स्थापना करते हैं। योगाभ्यास करने वाला प्राणी मूलाधार में मूल बंध को लगा करके नाभि केंद्र में ज्योति का प्रकाश दृष्टिपात करता है। उसके पश्चात जालंधर बंध को लगा करके हृदय चक्र में ज्योति को देखता है ।तत्पश्चात कंठ में और स्वादिष्ठान चक्र में जहां त्रिवेणी का स्थान अर्थात ईड़ा, पिंगला, सुषुम्ना का मिलन होता है वहां त्रिभुज कहलाता है, इस त्रिभुज वाले स्थान पर तीनों गुण रजोगुण, तमोगुण, सतोगुण को दृष्टिपात करके आत्मा ब्रह्म रंध्र में प्रवेश करता है ।और ब्रह्म रंध्र में जब योगेश्वर जाता है तो वह सर्व ब्रह्मांड को दृष्टिपात करता है।
ईशान कोण में ज्योति विद्यमान रहती है ।ज्योति को योगी ध्याना वस्थित करता है।
कलश किसे कहते हैं?

कलश उसे कहते हैं जो कुंभाकार बनाता है ।जहां इसमें जल ओत-प्रोत होता है ।इसमें अमृत होता है। वह अमृत प्राण की वर्षा कर रहा है ।ज्ञान की वृष्टि कर रहा है ।अर्थात वह सरस्वती का देने वाला है। ज्ञान का पान करने से सरस्वती आती है ।अमृत के ही पान करने वाले सरस्वती को अपने में धारण करते हैं। यह ईशान मां काली अर्थात पृथ्वी की सातवीं भुजा है।
आठवां भुज दक्षिणायन कृति कहलाता है इसमें विद्युत समाहित होकर और पश्चिम दिशा से अन्न का भंडार लेकर के मानव का भरण पोषण करती है। इसलिए वह भी एक देवी का रूप है शक्ति का रूप है।
इसलिए हे !
हमारी कल्याण करने वाली माता, हमारे दुर्गुणों को दूर करके, दुर्गुणों को शांत करके हमारा कल्याण कर, हमारे ऊपर अपनी अमृत की वृष्टि कर दे।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
अध्यक्ष उगता भारत समाचार पत्र
ग्रेटर नोएडा
9811 838 317

Comment:Cancel reply

Exit mobile version