जब तक काम क्रोध है, दिखता नही स्वरूप।

बिखरे मोती

कैसे दिखे आत्मस्वरूप :-

जब तक काम क्रोध है,
दिखता नही स्वरूप।
काम क्रोध का शमन कर,
हो जावै तदरूप॥2507॥

तत्वार्थ – कहने का अभिप्राय यह है कि मकड़ी के जाले का रेशा बहुत ही महीन होता है यदि उसके जाले का एक रेशा भी आँख की पुतली पर पड़ जाये तो आँख को दृश्यमान संसार स्पष्ट नही दिखाई देता, ठीक इसी प्रकार यदि मनुष्य के मन में काम क्रोध के रेशे है तो उसे अपना वास्तिक स्वरूप दिखाई नहीं देता है। यदि मनुष्य काम ‘कामना’ और क्रोध को समाप्त कर ले तो वह आप्तकाम हो जाता है उसे अपने सच्चे स्वरूप का दीदार हो जाता हैं, यहाँ तक कि वह परम पिता परमात्मा के तदरूप हो जाता है।

                        विशेष

             स्वयं के संदर्भ में :-

मै तो केवल साज, हूँ,
निकले तेरी तरंग।
जैसे रवि की रश्मियाँ,
भरें सृष्टि में रंग॥2508॥

यदि स्वयं का उद्धार चाहते हो तो :-

मत पड़ना प्रपंच में,
मतलब का संसार ।
हरि भजन और पुण्य कर,
जो चाहे उद्धार॥2509॥

बुढ़ापे के संदर्भ में:-

अपमान उपेक्षा रोग का,
दूसरा नाम बुढ़ापा ।
अंग शिथिल होने लगे,
वश में रहे न आपा॥2510॥

मनुष्य का जीवन कैसा हो:-

काश! मनुष्य का जीवन हो,
खिलता हुआ गुलाब।
सौन्दर्य और सुगन्ध में,
होता है नायाब॥2511॥

तत्त्वार्थ:- कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य का जीवन अनेक गुणो
अथवा प्रतिभाओं से सुसज्जित हो अर्थात् वाणी ओजस्वी हो दृष्टिकोण विशाल हो, ज्ञान और तेज में सूर्य के समान हो चहरे पर आध्यात्मिक तेज हो और उसका यश चारों दिशाओं में प्रभाहित हों।

मानव-शरीर माटी का खिलौना नही अपितु दिव्य-लोक नौका है:-

श्रेष्ठ कृति है ईश की ,
मानव तेरा शरीर।
दिव्य-लोक नौका मिली,
पावै मुक्ति तीर॥2512॥
(मुक्ति तीर अर्थात् मुक्ति धाम)

ओछे नर का अहसान बड़ा पीड़ादायक होता है:-

नेकी करे और भूल जा,
बिरला कोई इन्सान।
कहे ‘विजय ‘ भारी पड़े,
ओछे का अहसान॥2513॥

क्रमशः

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