महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां – 6 क द्रौपदी और कीचक वध

( महाभारत के एक प्रमुख पात्र के रूप में विख्यात रहे भीमसेन को सामान्यतः मोटी बुद्धि का माना जाता है। यद्यपि महाभारत के अध्ययन से पता चलता है कि वह बहुत अधिक बुद्धिमान व्यक्ति था। चरित्र में वह उतना ही ऊंचा था जितने अन्य पांडव थे। वह परनारी के प्रति अत्यंत आदर और सम्मान का भाव रखता था। उसके भीतर चरित्र की महान ऊंचाई थी। महाभारत में जहां-जहां उसे बोलने का अवसर प्राप्त हुआ है, वहां – वहां उसने वीरता के साथ-साथ अपने ऊंचे चरित्र और परिपक्व बौद्धिक ज्ञान का परिचय दिया है। नारी के प्रति उसकी असीम श्रद्धा का ही प्रमाण था कि जिस समय हस्तिनापुर की भरी राजसभा में द्रौपदी का अपमान किया जा रहा था और जब भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य ,कृपाचार्य आदि बड़े-बड़े विद्वान नीची गर्दन किए बैठे थे, तब उसने ही सबसे पहले द्रौपदी के अपमान पर अपनी जुबान खोलने का प्रयास किया था। इतना ही नहीं, उसने अहंकारी दुर्योधन को यह खुली चुनौती भी दी थी कि एक दिन तेरी इसी जंघा को मैं अपनी गदा से तोडूंगा, जिस पर तूने भरी राजसभा में हमारे कुल के सम्मान की प्रतीक महारानी द्रौपदी को बैठाने का घृणित कार्य किया है। इस भीमसेन ने उसे महानीच कीचक का भी वध किया, जो महारानी द्रौपदी पर बुरी नजर रखता था । – लेखक )

बात उस समय की है जब पांडव वनवास में मत्स्यराज के यहां छिपकर अपना समय व्यतीत कर रहे थे। उस समय द्रौपदी को मत्स्यराज की रानी सुदेष्णा की सेविका बनकर रहना पड़ा था।
द्रौपदी ने अपने सेवा-भाव से रानी का मन जीत लिया था ।।रानी ही नहीं महल की अन्य महिलाएं भी यज्ञसेन कुमारी द्रौपदी के सेवा-भाव से प्रसन्न रहती थीं। इसी समय राजा विराट के सेनापति महाबली कीचक ने द्रुपदकुमारी को देखा । कीचक द्रौपदी को देखते ही उस पर आसक्त हो गया। तब कीचक अपनी बहन सुदेष्णा के पास गया और उससे कहने लगा कि आपके महल में सेविका बनकर जो सुंदरी रहती है, इसने मुझे उन्मत्त सा कर दिया है। यह मेरे लिए मदिरा सी मादक सिद्ध हो रही है।
कामबाण से घायल कीचक पापवासना से सन गया था। वह धर्म अधर्म को भूल गया था। उसने अपनी बहन से कहा कि “आपकी यह सेविका मेरे मन में बस गई है। मुझे यह बताओ कि यह किसकी स्त्री है और आपके यहां कहां से आई है ? इसे प्राप्त करने के अतिरिक्त मुझे कोई और उपाय नहीं दीखता। मुझे लगता है मेरे मन की बीमारी की यही एक दवा है । मुझे लगता है कि इसका रूप नित्य नवीन है। यह मेरी पत्नी बनकर मुझ पर और मेरी संपत्ति पर एकच्छत्र शासन करेगी तो मुझे अच्छा लगेगा।”
कीचक अपनी बहन के सामने बोलता जा रहा था। उसने अपनी संपत्ति की शेखी बघारते हुए कहा कि मेरे पास हाथी, घोड़े ,रथ सेवक सेविकाएं आदि सब कुछ हैं। बड़ी मात्रा में मेरे पास संपत्ति है। यदि आपकी सेविका मेरे प्रणय निवेदन को स्वीकार कर लेती है तो इन सबको भोगने का अवसर इसे प्राप्त होगा।
अपने भाई कीचक की इस मनोदशा को देखकर रानी सुदेष्णा ने उसे अपनी सम्मति प्रदान कर दी। इसके बाद वह द्रौपदी के पास आया और उससे कहने लगा कि “हे कल्याणी ! तुम कौन हो और इस विराट नगर में कहां से आई हो? तुम्हारा यह सुंदर रूप संसार में सबसे उत्तम है। तुम्हारी छवि में चंद्रमा की कांति दृष्टिगोचर होती है। तुम्हारे विशाल नेत्र कमल पत्र के समान सुशोभित हैं। जैसी तुम हो ऐसे मनोहर रूप वाली कोई अन्य स्त्री संसार में आज से पहले मैंने कभी नहीं देखी। तुम लज्जा, श्री, कीर्ति और कांति – इन देवियों में से कौन हो ? मैं चाहता हूं कि जिन कष्टों में तुम इस समय रह रही हो, इन सबको छोड़कर मेरे महल में चलो। मैं अपनी स्त्रियों को त्याग कर तुम्हें हर प्रकार की सुविधा देने का हर संभव प्रयास करूंगा । वे सब तुम्हारी दासी बनकर रहेंगी।”
पापी कीचक की इस प्रकार की वासनात्मक बातों को सुनकर द्रौपदी के तन-बदन में आग लग गई। तब उस महान नारी ने उस पापी की ओर देखकर हुए कहा कि “तुम मुझे चाहते हो, मुझसे ऐसी याचना करना तुम्हें शोभा नहीं देता। मैं हीन वर्ण की हूं। दासी हूं और यहां पर एक सेविका के रूप में काम कर रही हूं ।इसलिए भी तुम्हें मेरे बारे में ऐसा नहीं सोचना चाहिए। तुम्हारा कल्याण हो । मैं दूसरे की पत्नी हूं, मुझसे तुम्हें ऐसी बात नहीं करनी चाहिए। पराई स्त्री में तुम्हें कभी किसी प्रकार की पाप भावना को प्रदर्शित नहीं करना चाहिए । यही अच्छे पुरुषों का काम है।”
द्रौपदी उस समय सैरंध्री के नाम से सेविका के भेष में वहां की रानी की सेवा कर रही थी। उसकी इस प्रकार की उपेक्षापूर्ण बातों को सुनकर कीचक ने कहा कि “मुझे ठुकराकर तुम निश्चय ही एक दिन पश्चाताप करोगी। मैं इस संपूर्ण राज्य का स्वामी हूं ,बल और पराक्रम में मेरे जैसा समस्त भूमंडल पर कोई नहीं है। मैं संपूर्ण राज्य को तुम्हें सौंपने के लिए तैयार हूं । इसलिए तुम्हें मेरे इस निवेदन को ठुकराना नहीं चाहिए।”
सेविका द्रौपदी ने फिर कह दिया कि “कीचक ! पांच भयंकर गंधर्व सदा मेरी रक्षा करते हैं। तू जिस राह पर चल रहा है, वह राह तेरे लिए बहुत भयंकर हो सकती है। तू कभी भी मुझे पा नहीं सकेगा । क्योंकि जब मेरे गंधर्वों को तेरे बारे में जानकारी होगी तो वह तेरा विनाश कर देंगे। इसलिए तू इस पाप बुद्धि को त्याग दे। तू जानबूझकर मौत की ओर क्यों बढ़ता जा रहा है ? अपने आप को संभाल और अपने धर्म की रक्षा कर।”
इस प्रकार अंत में निराश होकर कीचक अपनी बहन के पास आकर सिर पटकता है और उससे कहता है कि “जैसे भी हो मुझे अपनी इस सेविका को देने का उपाय सोचो, अन्यथा मैं प्राण त्याग दूंगा।”
तब रानी ने उससे कहा कि “कीचक! तुम एक दिन अपने यहां पर मदिरा और अन्न भोजन की सामग्री तैयार करो। तब मैं अपनी इस सेविका को तुम्हारे यहां से मदिरा लाने के लिए भेज दूंगी। उस अवसर का लाभ उठाकर तुम इससे अकेले में वार्तालाप करना और इसे समझाने – बुझाने का प्रयास करना।”
अपनी बहन से की गई इस प्रकार की वार्ता को अपने लिए वरदान समझ कर कीचक वहां से लौट जाता है। तब वह एक दिन अपने यहां पर अच्छे-अच्छे व्यंजनों से युक्त भोजन का प्रबंध करता है। इस अवसर पर वह अपनी बहन को भी आमंत्रण देता है। तब रानी ने सैरंध्री से कहा कि “जाओ और कीचक के यहां से मेरे लिए पीने योग्य रस लेकर आओ।” इस पर सैरंध्री ने रानी से कह दिया कि “मैं उस नीच के घर से आपके लिए रस नहीं ला सकती।”
रानी ने जिद करते हुए सैरंध्री से फिर कहा और अन्त में उसके हाथ में एक स्वर्ण पात्र देकर उसे कीचक के आवास की ओर जाने का आदेश दिया। द्रौपदी रोती हुई कीचक के घर की ओर चली। उस समय वह परमपिता परमात्मा से अपने सतीत्व की रक्षा की प्रार्थना करती हुई जा रही थी। उसे तनिक भी यह आभास नहीं था कि रानी भी उसकी शत्रु बन चुकी है और वह उसके सतीत्व को मिटाना चाहती है।
द्रौपदी ने कीचक के आवास पर पहुंचकर उससे कहा कि “आपकी बहन ने मुझे आपके यहां से मदिरा लाने के लिए भेजा है।” अपनी बहन के इस प्रकार के कार्य पर मन ही मन प्रसन्न हुए कीचक ने अचानक ही द्रौपदी का हाथ पकड़ लिया और उससे कहने लगा कि “मदिरा तो मेरी अन्य सेविकाएं पहुंचा देंगी ,पर तुम इस समय मेरी कुछ बात सुनो।”
अपने साथ हुए इस प्रकार के दुराचरण को द्रौपदी सहन न कर सकी । तब वह उस पापी को धक्का देकर वहां से निकल भागी। द्रौपदी सीधे राजसभा की ओर बढ़ रही थी। पीछे-पीछे वह पापी कीचक भी दौड़ता हुआ आ रहा था। द्रौपदी ने जैसे ही राजसभा में प्रवेश किया वैसे ही पीछे से कीचक भी आ धमका। उसने आते ही द्रौपदी को पकड़ा और धरती पर पटक दिया। इतना ही नहीं उसने धरती पर पड़ी हुई द्रौपदी को एक लात भी मार दी। इस सारे दृश्य को धर्मराज युधिष्ठिर और भीमसेन भी देख रहे थे। भीमसेन ने उस नीच पापी कीचक को इस समय सबक सिखाने का प्रयास किया, परंतु धर्मराज युधिष्ठिर ने भेद खुलने के डर से अपने भाई भीमसेन का पांव अपने अंगूठे से दबा दिया।
भीमसेन उस समय एक वृक्ष की ओर देख रहे थे। धर्मराज युधिष्ठिर ने उन्हें समझाते हुए कहा कि “यदि तुम इस वृक्ष की ओर ईंधन हेतु सूखी लकड़ी प्राप्त करने हेतु देख रहे हो तो तुम्हें यह कार्य बाहर जाकर करना चाहिए। किसी भी हरे-भरे वृक्ष को काटना उचित नहीं है। विशेष रूप से तब जबकि उस वृक्ष पर हमारा अपना आशियाना भी हो। हमें हरे-भरे वृक्ष के उपकारों को याद रखना चाहिए।”
उस समय द्रौपदी ने भी राजा विराट और उसके सभासदों की ओर देखते हुए कहा कि कीचक द्वारा मेरे साथ किए गए इस प्रकार के व्यवहार पर आप लोग चुप रहे, इसे उचित नहीं कहा जा सकता। कीचक को धर्म का ज्ञान नहीं है। उसे इस प्रकार का आचरण करने का अधिकार कदापि नहीं था। मेरा मानना है कि जो अधर्मी इस समय इस राजसभा में राजा के पास बैठते हैं, वह भी सभासद होने के योग्य नहीं हैं । क्योंकि उन्हें धर्म का ज्ञान नहीं है।”
सैरंध्री की इस प्रकार की बातों को सुनकर विराट ने कहा कि “मैं यह समझ नहीं पाया कि तुम दोनों के झगड़े का वास्तविक कारण क्या है ?”
उस समय राजा विराट के सभासद भी द्रौपदी की प्रशंसा कर रहे थे। तब राजा युधिष्ठिर ने कहा कि “सैरंध्री ! अब तुम यहां मत ठहरो। रानी के पास महल में चली जाओ। गंधर्व तुम्हारी रक्षा करेंगे।” धर्मराज के मुंह से इस प्रकार के वचन सुनकर सैरंध्री वहां से महल में चली जाती है।
महल में जाकर सैरंध्री ने रानी को सब कुछ सच-सच बता दिया। इस पर रानी ने उसे सांत्वना देते हुए कहा कि यदि तुम्हारी सम्मति हो तो मैं कीचक को मरवा सकती हूं। इस पर सैरंध्री ने कह दिया कि “अब उसका काल निकट है । क्योंकि उसकी पाप पूर्ण कार्य शैली उसे अपने आप ही मरवा डालने का प्रबंध कर चुकी है।”

डॉ राकेश कुमार आर्य

( यह कहानी मेरी अभी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक “महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां” से ली गई है . मेरी यह पुस्तक ‘जाह्नवी प्रकाशन’ ए 71 विवेक विहार फेस टू दिल्ली 110095 से प्रकाशित हुई है. जिसका मूल्य ₹400 है।)

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