महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां अध्याय-४ क अर्जुन और पाशुपतास्त्र की कहानी

( प्राचीन काल में हमारे ऋषि – मुनियों के पास ही अस्त्र-शस्त्र बनाने की विद्या होती थी। इस पर उनका एकाधिकार होता था। इसका कारण केवल यह होता था कि ऋषि – मुनियों का चिंतन पूर्णतया सात्विक और मानवतावादी होता था। उनकी इच्छा होती थी कि संपूर्ण मानव समाज का और प्राणिमात्र का कल्याण हो । ऋषि मुनियों या शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारियों या विद्वानों से अलग सामान्य बुद्धि के लोग किसी आवेश में आकर किसी भी अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग कभी भी कर सकते हैं , जिससे मानवता का अहित हो सकता है। अतः उनसे अस्त्र-शस्त्र को दूर रखने की सारी व्यवस्था ,देखभाल आदि करने की जिम्मेदारी ऋषि -मुनियों के पास होती थी। जब कोई राजा या राजकुमार किसी अस्त्र-शस्त्र को प्राप्त कर अपने विरोधियों का अंत करना चाहता था तो वह ऐसे समय में किसी न किसी ऋषि के पास जाकर उन्हें इस बात के लिए प्रसन्न करने का प्रयास करता था कि वह अमुक अस्त्र या शस्त्र को प्राप्त करने के पश्चात इसका दुरुपयोग कभी भी नहीं करेगा और ऐसा काम नहीं करेगा जिससे मानवता अथवा प्राणीमात्र का अहित होता हो । इस शस्त्र का प्रयोग वह केवल और केवल उस व्यक्ति या शक्ति के विरुद्ध करेगा जिससे मानवता का अहित हो रहा हो, धर्म को संकट उत्पन्न हो गया हो और प्राणीमात्र के लिए बहुत अधिक गंभीर परिस्थितियां उत्पन्न हो गई हों। – लेखक )

बात उस समय की है जब धर्मराज युधिष्ठिर अपने अन्य भाइयों अर्थात भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव के साथ वनवास भोग रहे थे। तब अर्जुन को किसी भी आकस्मिक युद्ध से निपटने के लिए अस्त्र-शस्त्र की आवश्यकता अनुभव हुई। अर्जुन उस समय के बहुत बड़े धनुर्धारी थे। यह स्वाभाविक था कि उन्हें अपनी और अपने लोगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी का बोध होता । वह यह समझ रहे थे कि जिन परिस्थितियों में उन्हें वनवास दिया गया है उसके दृष्टिगत कौरवों से युद्ध होना निश्चित है। अर्जुन यह भी समझ रहे थे कि यह युद्ध भी छोटा-मोटा नहीं होगा बल्कि भयंकर और विनाशकारी युद्ध होगा। यही कारण था कि उन्होंने भविष्य में होने वाले महाभयंकर युद्ध के लिए वनवास काल में ही तैयारी करनी आरंभ कर दी।
अर्जुन जानते थे कि यदि युद्ध हुआ तो उन्हें द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण , दु:शासन और अश्वत्थामा जैसे शत्रुओं से लड़ना होगा। उस समय भीष्म जी के विषय में तो नहीं कहा जा सकता था कि वह किसकी ओर से लड़ेंगे ? पर द्रोणाचार्य आदि के विषय में तो यह निश्चित था कि किसी भी विपरीत परिस्थिति के उत्पन्न होने पर वह हस्तिनापुर की ओर से ही लड़ेंगे। अर्जुन के लिए उस समय अस्त्र-शस्त्र प्राप्त करना इसलिए भी आवश्यक था कि उनके भ्राताश्री धर्मराज युधिष्ठिर उस समय राजसूय यज्ञ करने के उपरांत संपूर्ण भूमंडल के राजा बन चुके थे। स्वाभाविक रूप से इतने विशाल भूमंडल के प्रजाजन और राजा आदि भी पांडवों के संपर्क में थे , जो उन्हें इस बात के लिए आश्वासन दे रहे थे कि यदि युद्ध हुआ तो हम सब आपके साथ होंगे । ऐसे में शक्ति संचय करना अर्जुन के लिए एक चुनौती थी।
उस समय अर्जुन को उनके बड़े भाई धर्मराज युधिष्ठिर ने भी एकांत में यह समझाया कि “अर्जुन ! इस समय हम सब भाइयों की आशा के केंद्र तुम ही हो। इस समय की विषम स्थिति से उभारने का काम तुम ही कर सकते हो। इसलिए तुम्हें एकाग्रचित होकर देवताओं को प्रसन्न करना चाहिए। तुम इंद्र के पास जाओ, वही तुम्हें सब अस्त्र प्रदान करेंगे । आज ही दीक्षा ग्रहण करके तुम देवराज इंद्र के दर्शन की इच्छा से यात्रा पर निकल जाओ।” इस अवसर पर धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाई अर्जुन को ‘प्रतिस्मृति’ नामक विद्या का उपदेश दिया।
युधिष्ठिर जानते थे कि भविष्य कितने बड़े-बड़े प्रश्नचिह्नों से घिरा हुआ है। उन्हें भली प्रकार ज्ञान था कि जिन राजाओं ने मुझे अपना सम्राट स्वीकार किया है यदि सम्राट के अनुकूल मेरा आचरण नहीं रहा और मैं जुए में हारे गए साम्राज्य को प्राप्त नहीं कर पाया तो संसार में मुझे अपयश का भागी बनना पड़ेगा।
अर्जुन ने अपने सभी भाइयों और आचार्य धौम्य मुनि से विदा लेकर हिमालय की ओर प्रस्थान किया। इंद्रकील पर्वत पर पहुंचकर अर्जुन जब आगे बढ़ रहे थे तो अचानक उन्हें ‘ठहरो’ की वाणी सुनाई दी। वास्तव में यह वाणी इंद्र की थी। उन्होंने अर्जुन से कहा कि “यहां पर इस प्रकार के किसी धनुष की आवश्यकता नहीं है। तुम इस धनुष को दूर फेंक दो।” परंतु अर्जुन भी दृढ़ निश्चयी थे। इंद्र उन्हें अपने धैर्य से विचलित नहीं कर पाए। तब उस ब्रह्म ऋषि ने प्रसन्न होकर अर्जुन से कहा कि “हे शत्रुनाशक ! तुम्हारा कल्याण हो। मैं इंद्र हूं। तुम मुझसे कोई वर मांगो।”
अभी तक अर्जुन को यह ज्ञान नहीं था कि तुम जिस महान विभूति के समक्ष खड़े हो वह स्वयं इंद्र ही है और जिनसे मिलने के लिए वह यहां आए थे, वही साक्षात दिव्य प्रतिमा तुम्हारे सामने है। इंद्र के मुख से ऐसे शब्द सुनकर अर्जुन प्रसन्नचित्त हो उठा। उस समय अर्जुन की खुशी कुछ वैसी ही थी, जैसे किसी विद्यार्थी को परीक्षा परिणाम में आशातीत सफलता मिलने पर वह प्रसन्न होता है। यहां तो अर्जुन को अभी परीक्षा में बैठना भी नहीं पड़ा था और उससे पहले ही उसका परीक्षा परिणाम आ गया था।
इंद्र की अपने प्रति कृपा दृष्टि को देखकर अर्जुन ने प्रफुल्लित स्वर से कहा कि “भगवन ! मैं आपसे संपूर्ण अस्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा लेकर यहां आया हूं। मेरी यही इच्छा है कि आप मुझे संपूर्ण अस्त्रों का ज्ञान प्रदान करें। यही मेरा अभीष्ट मनोरथ है ।अतः मुझे यही वर दीजिए।”
हमारे ऋषि – मुनियों की यह विशिष्टता रही है कि वह अपने पास आए किसी भी याचक को पहले इधर-उधर भटकने का प्रयास करते थे। प्रयास करते थे कि वह अपने मूल प्रश्न से हटकर किसी दूसरे प्रश्न में भटक जाए। इससे याचक की यह जानकारी हो जाती थी कि वह वास्तव में दृढ़ निश्चयी है या केवल दिखावा कर रहा है? छोटा-मोटा याचक तो ऐसे प्रतिप्रश्नों से भटक सकता था पर आज जो याचक इंद्र देव के द्वार पर आया था वह कोई छोटा-मोटा याचक नहीं था। वह स्वयं पांडु पुत्र अर्जुन थे। जिन्होंने अपने दृढ़ निश्चय का परिचय इंद्र देव को दे दिया था। इंद्रदेव भी समझ गए कि अर्जुन अपने दिए हुए वचन से भागेगा नहीं। पर फिर भी उन्होंने अर्जुन के रूप में आए इस याचक की परीक्षा लेने की दृष्टि से उससे कह दिया कि “जब तुम यहां तक आ ही गए हो तो तुम्हें अब किसी प्रकार के अस्त्र आदि लेने की आवश्यकता क्या है ? अब तुम अपनी इच्छा के अनुसार उत्तम लोक मांग लो। क्योंकि तुम्हें उत्तम गति प्राप्त हुई है।”
देवराज इंद्र ने सोचा कि अर्जुन सारी दुनियादारी और घर परिवार को भूलकर उसकी बातों में आ जाएगा और वह उनसे अपनी उत्तम गति को मांग लेगा। पर वास्तव में उनका ऐसा सोचना उनकी भ्रांतिमात्र थी।
अर्जुन देवराज इंद्र के पास अपनी उत्तम गति मांगने के लिए नहीं गया था। उसकी इच्छा थी कि उसके सभी भाइयों और प्रजाजनों को भी उत्तम गति मिले। वह चाहता था कि मेरे राष्ट्र में शांति हो। सभी राष्ट्रवासियों के मौलिक अधिकारों का हनन करने वाली राजसत्ता का नाश हो और जो अधर्म और अनीति पर उतर आए हैं, उन्हें समाप्त किया जा सके। अतः अर्जुन किसी स्वार्थ की सिद्धि के लिए वहां नहीं गया था बल्कि वह तो परमार्थ की सिद्धि के लिए गया था। इसलिए उस पर न तो इंद्रदेव की इस प्रकार की भटकाने की किसी नीति का प्रभाव होना था और ना हुआ। जब लक्ष्य बड़ा होता है तो छोटे रोड़े कुछ नहीं कर पाते हैं और छोटे रोड़ों की तो बात छोड़िए बड़ी-बड़ी बाधाएं भी मनुष्य का मार्ग रोक नहीं पाती हैं। अर्जुन तो वैसे भी लक्ष्य साधना में अपने समय का अद्वितीय योद्धा था। एक परीक्षा के समय जब उनके गुरु जी द्रोणाचार्य जी ने उनसे पूछा कि अर्जुन क्या देखते हो? तो उन्होंने कह दिया था कि “गुरु जी ! मुझे चिड़िया की आंख के सिवाय और कुछ दिखाई नहीं दे रहा है।”
आज इस अर्जुन को इंद्रदेव भटकाने का प्रयास कर रहे थे। पर उन्होंने दूसरे शब्दों का प्रयोग करते हुए देवराज इंद्र को भी यह स्पष्ट कर दिया कि वह जिस उद्देश्य को लेकर यहां आए हैं या जिस लक्ष्य की साधना का मन बनाकर आए हैं, उसके अतिरिक्त उन्हें यहां भी कुछ नहीं दिखाई दे रहा है।
यही कारण था कि अर्जुन ने इंद्रदेव को स्पष्ट बता दिया कि “देवेश्वर ! मैं अपने भाइयों को वन में छोड़कर शत्रुओं से वैर का बदला लिए बिना लोभ या कामना के वशीभूत होकर न तो किसी प्रकार का देवत्व चाहता हूं, ना मैं सुख चाहता हूं और ना ही मैं संपूर्ण देवताओं का ऐश्वर्य प्राप्त करना चाहता हूं। यह सब चीजें मेरे लिए निरर्थक हो चुकी हैं। इस समय मेरे मन में जो वेदना है, मैं उससे मुक्ति चाहता हूं और वह मुक्ति मुझे तभी मिलेगी जब मैं अपने यहां आने के मनोरथ में सफलता प्राप्त करूं। यदि मैं इन भौतिक सुख ऐश्वर्यों में कहीं भटक गया या मैंने भटकने का कोई काम किया तो सदा के लिए संपूर्ण लोकों में मुझे महान अपयश प्राप्त होगा। मैं जानता हूं कि इस प्रकार के अपयश को प्राप्त करने की इच्छा कोई भी व्यक्ति नहीं करेगा।”

डॉ राकेश कुमार आर्य

( यह कहानी मेरी अभी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक “महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां” से ली गई है . मेरी यह पुस्तक ‘जाह्नवी प्रकाशन’ ए 71 विवेक विहार फेस टू दिल्ली 110095 से प्रकाशित हुई है. जिसका मूल्य ₹400 है।)

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