इस्लाम में चार बीबियों की चतुराई

हाल में ही दारुल उलूम देवबंद ने एक महत्वपूर्ण फतवा दिया है। दारुल उलूम देवबंद ने 13 अप्रैल को दिये गये अपने फतवे में कहा है कि इस्लाम हालांकि एक पत्नी के रहते दूसरी शादी की इजाजत देता है लेकिन मुसलमान ऐसा न करें। दारुल उलूम का कहना है कि भले ही शरीयत हमें ऐसी इजाजत देता है लेकिन भारतीय परंपरा में यह मान्य नहीं हो सकता कि एक पत्नी के जीवित रहते दूसरी शादी कर ली जाए। ऐसा करने पर दोनों पत्नियों के साथ अन्याय होगा। तो क्या इस्लाम सच में एक से अधिक बीबियों को रखने की इजाजत देता है? जेएनयू की शोधछात्रा शीबा असलम फहमी ऐसा नहीं मानती हैं।

इस्लाम के बारे में बहुत सारे मौलानाओं का मत है कि इस्लाम चार बीवियों की इजाज़त देता है। लेकिन हकीकत यह है कि इस्लाम में कहीं से भी चार बीबीयों की इजाजत नहीं है। भारतीय मौलानाओं ने बहुत ही कुटिलपूर्ण तरीके से यह भ्रम फैला रखा है कि इस्लाम में चार बीबीयों की इजाजत है। जो लोग यह तर्क देते हैं कि इस्लाम में चार बीबीयों को रखने की इजाजत है वे समझ लें कि इस्लाम में कहीं भी चार बीवियों का पति होने की इजाजत नहीं है।

साहेबान (मुसलमान हजऱात जऱा ग़ौर फऱमाएँ) इस्लाम में चार बीवियों की इजाज़त नहीं है ! युद्ध आदि उपरान्त के आपातकाल में, यतीमों की देखभाल के लिये, कुछ ख़ास शर्तों के साथ इस्लाम में चार बीवियों तक की इजाज़त है, और यह एक पाबन्दी या रोक है उस समाज पर जो कितनी भी औरतों को हरम में रखा करता था। और यह अरब भूमि के केवल एक शहर मदीना के लिए उहुद युद्ध की हार के बाद, विशेष परिस्थिति में लाया गया विशेष-प्रावधान है, जिसे कुरआन में कभी भी, सभी मुसलमानों के लिए, जायज़ या वांछनीय घोषित नहीं किया गया। और इस विशेष एहकाम को भी चार की गिनती पर रोका गया।

उहुद प्रसंग ये है की मदीना शहर जो की इस्लाम में विश्वास ला चुका था, के मुसलमानों की जंग मक्कावासियों से उहुद नामक घाटी में हुई, इस जंग में मदीनावासियों की हार हुई और 700 मर्दों की जनसँख्या घटकर केवल 400 रह गयी, इस परिस्थिति में यतीमों (शहीदों की बेवा और बच्चे) की ज़िम्मेदारी को समाज पर डालने के लिये इस एक प्रावधान को लाया गया की शहीदों के बच्चे अपनी माओं से अलग हुए बिना सहारा पाएं और उन्हें क़ानूनी सरपरस्ती भी मिले। इस आपातकालीन प्रावधान में भी शर्त थी की जो मुसलमान मर्द एक से अधिक बीवी करे वो एक तो इतना समर्थ हो की सबकी देखभाल कर सके, दूसरे वो सभी पत्नियों को एक सामान समझे, और भेदभाव न करे। लेकिन इसी के साथ कुरआन में साफ़ कहा गया है की यह किसी मर्द के लिये मुमकिन नहीं की वह चारों को बराबर का चाहे, इसलिए तुम्हें आदेश यही है की एक ही करो। स्वयं मुहम्मद साहब ने भी कहा है की ये मुमकिन नहीं की शौहर पत्नियों के बीच भेदभाव ना करे। खुद अपने लिए उन्होंने दुआएं मांगी की उनसे किसी (पत्नी) के प्रति पक्षपात ना हो जाये। इसके बावजूद वे खुद मानते हैं कि उनकी आखरी पत्नी हजऱत आयशा ही उनकी सबसे प्रिय पत्नी थीं।

सभ्य, शिक्षित और जागरूक समाजों ने इस मामले में एक साफ़ और ठोस फैसला लेने में अपने धर्म ग्रंथो, पंडित-पादरियों और परंपरा आदि कि रुकावटों को ठोकर से उड़ा दिया। ख़ुद मुसलमानों ने भी अपने फ़ायदे के आगे, वक़्त की ज़रुरत के हिसाब से बैंकिंग, शेयर बाज़ार, आदि से लाभ कमाने को नई व्याख्या द्वारा जायज़ घोषित कर दिया। यही नहीं महकमाती ज़रुरत को देखते हुए जानदार मखलूक (इंसान की भी) कि फोटो उतारना, सफऱ में चुस्त कपड़ों में, ना-महरम और बे-पर्दा नाजऩीनो से ख़िदमत लेना, मोबाइल से एस एम् एस के ज़रिये बीवी को तलाक दे कर चम्पत हो जाना, फ़ोन पर निकाह करना, शादी से पहले होनेवाली बीवी की खूबसूरती की पड़ताल करना, बे-शर्मी से मेहेर हज़म कर जाना, भारतीय उपमहाद्वीप में तो दहेज़ मांगना, ज़ात-पात, ऊंच-नीच जैसी सभी आधुनिक रीतियाँ-कुरीतियाँ डंके की चोट पर अपना ली हैं। लेकिन देश/ दुनिया के कानून के मुताबिक़ एक पत्नी प्रथा को इस्लाम के नाम पर लगातार धता बता रहा है। इस गंभीर अराजकता पर ख़ुद मुसलमान औरतों को समझ और हिम्मत पैदा करना ज़रूरी है क्योंकी वे इस्लाम के नाम पर सरासर बेवक़ूफ़ बनाई जा रही हैं। इस्लाम एक से ज़्याद: बीवी की इजाज़त देता ही नहीं। आपातकाल के दौरान हर समाज अपने नियम कुछ ना कुछ ढीले करता ही है, लेकिन हालात सामान्य होते ही उन विशेष प्रावधानों को ज़ब्त कर लिया जाता है, ये सारी दुनिया का नियम है। इसी के साथ ये भी जानना ज़रूरी है कि कुरआन कहीं पर भी मर्दों को शारीरिक सुख के लिये एक से अधिक पत्नी की इजाज़त नहीं देता। अब सवाल ये उठता है की मुसलमान आलिम क्या कुरआन को सही पढ़ नहीं पाते, या फिर शारीरिक हवस के आगे मजबूर हो कर कुरआन को झुट्लाते रहे हैं? सारी दुनिया में अमीर और अय्याश मुसलमान इस्लाम के नाम पर एक से ज़्याद: शादियाँ, बिना किसी नैतिक, सामाजिक, क़ानूनी और धार्मिक दबाव के कर रहा है। हालाँकि ऐसा करने की आर्थिक स्थिति अधिसंख्य की नहीं है, लेकिन फिर भी कुल मिला कर आए दिन कि ऐसी ख़बरों ने माहौल ऐसा ही पैदा किया है कि अमीर, औसत और गऱीब, किसी भी दर्जे का मुसलमान एक पत्नी के जीते जी उसकी सौत लाने में हिचकिचाता नहीं। वो बड़े आराम से कह देता है कि हमारे यहाँ तो इसकी इजाज़त है। यही नहीं, वो इस ग़लत काम को सुन्नत भी कह डालता है, क्यूंकि मुहम्मद साहब ने एक से अधिक शादियाँ कि थीं। सउदी अरब के पेट्रो-दौलती शेख़ जिस बेशर्मी से अपने हरम सजाए हैं, और 20-25 तक औलादें पैदा कर रहे हैं उसका असर एशिया-अफ्ऱीका की जाहिल, गऱीब और क़बीलाई मानसिकता पर साफ़ देखा जा सकता है। हद ये है की ये जाहिल लोग यूरोप, अमरीका और कनाडा आदि मुल्कों में मज़दूरी करने जाते हैं तो वहां भी अब ये क़ानूनी मांग करने लगे हैं की उनका कल्चर और धार्मिक परंपरा का पालन करते हुए उन्हें एक से अधिक पत्नी की इजाज़त मिले। संख्याबल के बढऩे के साथ इनके हौसले भी बढ़ रहे हैं। इस सब में सबसे मक्कारीपूर्ण है मुसलमानों की मज़हबी कय़ादत का सहयोग ! मुस्लिम समाज को जाहिल, गऱीब और सभ्यता से बैर रखनेवाली इस परंपरा से वफादारी करने वाला बना कर वे अपनी आधी आबादी को निस्सहाय और अपमानित कर रहे हैं। माना की 95त्न मुसलमान मर्द एक ही शादी करता है लेकिन इस अपराध को मान्यता देकर सौत की तलवार को तो लटकाए रखा ही गया है। कोई ताज्जुब नहीं की मौलानाओ को पढ़ी-लिखी, आत्म-निर्भर, सत्ता में भागीदार मुस्लिम महिला कितनी खटकती है। जब भारत के इन्साफ पसंद हल्क़े दलित-आदिवास महिलाओं के साथ मुसलमान महिलाओं को भी संसद में आरक्षण की बात कर रहे थे तो ये ख़ुद-परस्त कठमुल्ले इस साज़िश के लिये इकठ्ठा हुए की हमारी औरतें तो संसद में जाएंगी नहीं क्यूंकि वह सत्ता में सिर्फ़ इस्लामी मुल्क में ही शामिल हो सकती हैं। कोई इनसे पूछे की जहाँ सत्ता में अपनी बात बताने के लिये सबसे ज़्यादा भागीदारी की ज़रुरत है वहीँ वे इसे रोक कर उनके प्रतिनिधित्व को कैसे पूरा करेंगे? 62 बरसों में इन कठमुल्लों ने बे-ईमान, मेहेर-ख़ोर, धोकेबाज़ी से दूसरी शादी करने और बात-बे-बात तलाक की तलवार चलानेवाले शौहरों की नकेल कसने के लिये कोई मुहिम नहीं चलाई, अब जब लगा की ख़ुद मुसलमान औरत संसद में बैठकर कहीं क़ानून और क़ायदे की बात ना करने लगे तो लगे इस्लाम-इस्लाम करने। इनसे पूछा जाना चाहिए की भाई अभी तक तो आपको इसी जम्हूरियत से ही सभी कुछ चाहिए था। 

आरक्षण से लेकर इंसाफ़ तक! तो फिर इस मामले में जम्हूरियत में ऐब क्यूँ निकल आया? अगर ये इस आशंका से पीडि़त हैं की इलेक्शन-विलेक्शन में हमारी औरतों को ग़ैर मर्दों के बीच जाना पड़ेगा जहाँ वे सुरक्षित नहीं, तो इसमें कोई बड़ा मसला नहीं, हमारी औरतों का हमारे मर्द साथ दें। लेकिन सवाल यह है कि आंकड़े बताते हैं कि हिन्दू हो या मुसलमान या सिख या इसाई, औरतों की इज्ज़त पर हाथ तो ज़्यादातर अपने ही डालते हैं। दूसरे ये कि मुस्लिम देशों में जो बलात्कार होते हैं वे क्या इम्पोर्टेड बलात्कारियों द्वारा किये जाते हैं? मुसलमान मर्द ना हुआ फ़रिश्ता हो गया और वो भी एक ऐसा फ़रिश्ता जिसे एक तरफ तो चार-चार औरतों कि महती आवश्यकता पड़ रही है अपनी कामुकता को साधने के लिये दूसरी तरफ़ उसी की हिफ़ाज़त में औरत सुरक्षित है। इसका मतलब सामने से तो यही निकल रहा है कि हम हमारी औरतों के साथ कुछ भी करें, दूसरा ना करे बस यही देखना है। इस मामले में हिन्दू मर्द भी उतने ही बड़े जियाले हैं। उनका ध्यान भी बस इस तरफ़ है कि हमारी लड़कियों को कोई शाहरुख़ खान, आमिर खान, ज़हीर खान, इमरान खान आदि बेवक़ूफ़ ना बना पाएं, वे ख़ुद चाहें तंदूर काण्ड करें या घासलेट काण्ड, मट्टू काण्ड करें या खैरलांजी। लेकिन बेचारे हिन्दू मर्दों के पास इस्लाम को बचाने जैसे बहाने नहीं हैं (बजरंगियों, हिन्दू-वाहिनियों आदि को छोडक़र) इसलिए उन्हें भारतीय संस्कृति कि बेपनाह फि़क्र सताए रहती है। ख़ैर, सवाल ये है की क्या इस्लाम इतना मासूम मज़हब है कि अपनी आधी आबादी को हर समय ग़ुलाम की हैसियत में रखने का इन्तिज़ाम कर के भी वह उनसे एकनिष्ठ समर्पण की उम्मीद कर सकता है? तब, जबकि वह औरत को शिक्षा, रोजग़ार, संपत्ति और कय़ादत से ख़ारिज नहीं करता? कोई भी इंसान शिक्षित, आत्म-निर्भरता, संपत्ति का स्वामी और सत्ता में भागीदार होकर भी तीन सौतों को क्यूँ झेलेगा? ज़ाहिर है पढ़ी लिखी, आत्मनिर्भर, स्वयं-सिद्ध मुसलामन औरतें ये लोग पैदा ही नहीं होने देना चाहते। इस्लाम में- परदे के नाम पर शिक्षा पर रोक, बाल-विवाह को जारी रखने के लिये शारदा एक्ट से परहेज़, निकाह और तलाक के पंजीकरण से परहेज़ जिससे धूर्त पति की नाक में नकेल ना कसी जा सके, चार बीवियों को कुदरती मर्दानी यौन-ज़रुरत बताना और सत्ता में भागीदारी को इस्लाम विरूद्ध बता कर एक महिला विरुद्ध महाद्जाल बुना गया है की एक तरफ से निकले तो दूसरे पायदान पर अटक जाए। मौलाना हजऱात की इन खुली धांधलियों में इस्लाम धर्म की फज़़ीहत तो एक साइड-इफ़ेक्ट है, डाईरेक्ट-इफ़ेक्ट जो इंसानों की ज़िन्दिगी पर पड़ता है उसकी गंभीरता को समझना ज़्यादा ज़रूरी है। मौलानाओं की इन्ही हरकतों की वजह से मुसलमानों में शिक्षा का विकास नहीं हो पा रहा है। आज मुसलमान विश्व के स्तर पर कोई योगदान देने की बात तो दूर, ख़ुद अपने घर-परिवार, ख़ानदान-समाज के मसलों पर भी सही सोच नहीं पैदा कर पा रहा। और मर्द-औरत के रिश्तों में बिगाड़, तनाव, तलाक और हिंसा बढ़ी है। दूसरे मामलों में भी तर्क का नहीं तालिबानीकरण का सहारा लेने का चलन बढ़ रहा है।

इस्लाम में चार शादियों की ‘इजाज़त’ की धांधली उस ही बड़ी साज़िश का हिस्सा है जो मौलाना अशरफ़ अली थानवी मार्का व्यभिचार को धर्म के अंधे विश्वासों से जायज़ ठैराती है। लेकिन यदि किसी कूढ़-मघज़ को अब भी यह अपराध इस्लाम के नाम पर करना है तो इस्लाम की सही व्याख्या करने से परहेज़ नहीं, ना ही इस्लाम के इतर देश के क़ानून को सर्वोपरि मानने से। आखिर सवाल आधी आबादी के आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास का है। ऐसी शादियों में पैदा होनेवाली औलादों के मानसिक संतुलन और स्वास्थ्य का है, एक कमाने और ज़्यादा खानेवालों की उपस्थिति से पैदा हुई गऱीबी, अशिक्षा और अवसाद का है। इस दुनिया के अभावों-अपमानों से निजात के तौर पर, ‘उस दुनिया’ के ऐश और सम्मान की उम्मीद पर खुदकश होने को तैयार नौनिहालों की इस दुनिया में वापसी का है।  इसलिए इन अहम् मसलों को मुल्लाओं पर छोडऩा खतरनाक होगा, अक़ल से काम लीजिये, साफ़ और ठोस एक्दाम के ज़रिये समाज को कबीलाई मानसिकता से उबारिये। वरना जिस ‘युद्ध जैसे आपातकाल’ के लिए चार-शादी की ना-पसंद वयवस्था करनी पड़ी थी वो पूरी इंसानियत का स्थाइकाल बन जाएगा। तालिबानों की व्यवस्था इस ओर क़दम बढ़ा ही चुकी है। लगातार युद्ध के आपातकाल में जीना मुसलमान की नियति कब तक बना रहेगा?

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