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भारतीय संस्कृति

अपना जीवन यज्ञमय बनाएं

यज्ञ का बहुत व्यापक अर्थ है। परमात्मा परमेश्वर को यज्ञरूप भी कहा गया है क्योंकि ईश्वर का प्रत्येक कार्य-सृष्टि का निर्माण, पालन, संहार तथा प्रत्येक जीव के कर्मानुसार फल देना सभी यज्ञ ही हैं। क्योंकि ईश्वर के कार्यों में उनका स्वयं का कोई लाभ स्वार्थ नहीं है अपितु परमपिता परमेश्वर के सभी कार्य स्पष्टï अथवा परोक्ष रूप से जीवों के उपकार के लिए ही हेँ और परोपकार की दृष्टि से किया गया प्रत्येक कार्य यज्ञ की श्रेणी में आता है।परमपिता परमेश्वर ने सृष्टि का निर्माण जीवों के उपयोग, उपभोग करने के लिए ही तो किया है। सृष्टि के निर्माण के उपरांत उसकी पालना करने का कार्य यज्ञ की श्रेणी में ही आता है। नवनिर्माण से पूर्व अपरिहार्य रूप से पुराने को हटाने का कार्य अर्थात सृष्टि का संहार परोपकार का कार्य होने के कारण यज्ञ की श्रेणी में है। ईश्वर की बनायी सृष्टि में जीव को सही मार्ग पर चलाने की प्रेरणा देनेहेतु परमपिता परमेश्वर न्यायकारी सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी प्रभु द्वारा प्रत्येक जीव के कर्मानुसार न्याय व्यवस्था भी जीव को कुमार्ग पर चलने से रोकने तथा सुमार्ग परचलने के लिए प्रेरित करने के कारण यज्ञ की श्रेणी में ही आती है। जीव सब सुपथ परप चलते हुए ईश्वरीय अनुकंपा से अच्छा प्रारब्ध पाता है तो निश्चित रूप से सुपथ पर चलते रहनेकी सदप्रेरणा उसके मन मस्तिष्क में जाग्रत होती है। इसी प्रकार अनाचार करने वाले जीव को जब ईश्वरीय न्याय व्यवस्था में दंड मिलता है तो वह कुमार्ग छोडऩे की प्रेरणा पाता है।
कई बार हम किसी दुराचारी व्यक्ति को भौतिक धन संपदा से युक्त मौजमस्ती करते देखते हैं तो हमारा मन चंचल स्वभाव के कारण विचलित हो जाता है और ईश्वरीय न्याय व्यवस्था से विश्वास उठने सा लगता है। हमें लगता है कि सीधे सच्चे धार्मिक वृत्ति के लोग कष्ट उठा रहे हैं और कुमार्ग पर चलने वाले दुराचारी मौज कर रहे हैं। परंतु यह अनुभूति हमें हमारी अल्पज्ञता के कारण होती है। हमें उन धार्मिक या दुराचारी व्यक्तियों के पूर्व वृत्तांत का ज्ञान नहीं है इसलिए कष्ट अथवा सुख की प्राप्ति के विषय में हम अपने अल्पज्ञान के कारण कोई टिप्पणी नहीं कर सकते। हम अल्पज्ञानी हैं, हमारी दृष्टि सीमित है ईश्वरीय न्याय व्यवस्था पर संशय करना हमारी भूल है।
ईश्वर के सभी कार्य सृष्टि का निर्माण, पालन, संहार तथा न्याय सभी प्राणिपात्र व जीवों के कल्याण के लिए नि:स्वार्थ भाव से किये जाने वाले कार्य हैं इसलिए यज्ञीय कार्यों की श्रेणी में आते हैं। इसलिए ईश्वर को दयालु भी कहा गया है और ईश्वर को यज्ञरूप भी इसी कारण से माना व जाना जाता है। यज्ञरूप ईश्वर से प्रेरणा पाकर यज्ञ करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है।
तैतिरीय ब्राहमण का वचन यज्ञौ वै भुवनस्य नाभि: (तैतिरीय ब्राहमण ६/४/५) (यज्ञ ही संसार का केन्द्र, आधार है।) परमपिता परमेश्वर के यज्ञरूप होने एवं समस्त ईश्वरीय कार्य यज्ञीय होने की पुष्टिï करता है। यदि सभी स्वार्थी हो जायें तथा केवल अपने बारे में ही सोचने लगें तो यह संसार चल ही नहीं सकता। यज्ञीय कार्यों की श्रेणी में आने वाले ईश्वरीय कार्यों से प्रेरणा पाकर जब मनुष्य प्राणिमात्र के उद्धार की बात सोचता हुआ परोपकार के कार्य करता है तभी यह संसार चलता है। अर्थात यज्ञीय कार्य वा यज्ञ ही संसार का केन्द्र वा आधार है। इसलिए देव दयानंद ने संसार के उपकार को आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य बताया और कहा कि हमें अपनी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए।
मनुष्य परमपिता परमेश्वर की सर्वोत्तम कृति है क्योंकि अन्य सभी योनियां केवल भोग योनि, है, जिनमें जीव अपने पूर्व जन्मों के फल को नियम स्वरूप भोगता है परंतु मनुष्य योनि में मनुष्य मननशील विचारवान होता हुआ स्वतंत्रकर्ता के रूप में सभी स्वात्मबत यथायोग्य व्यवहार करता हुआ परोपकार के कार्य करता है तभी मनुष्य कहलाता है। यदि मनुष्य अपने जीवन में मानव बनकर यज्ञीय कार्य नहीं करता तो वह मनुष्य के रूप में भी पशुओं की भांति भार बनकर धरती पर विचरण करता है।
अब प्रश्न उठता है कि मनुष्य के लिए यज्ञीय कार्य क्या है तथा यज्ञ की व्यापक परिभाषा क्या है। देव दयानंद ने यज्ञ की बहुत व्यापक परिभाषा आर्योद्देश्य रत्नमाला में दी है-जो अग्निहोत्री से ले के अश्वमेध रत्नमाला में दी है जो अग्निहोत्र से ले के अश्वमेध पर्यंत वा जो शिल्प व्यवहार के लिए किया जाता है उसको यज्ञ कहते हैं। वस्तुत: महर्षि दयानंद ने जिन शब्दों का प्रयोग अनेक बार अपने ग्रन्थों में किया है तथा जिनका आर्य लोक व्यवहार में बार बार प्रयोग होता है उन ईश्वर से नमस्ते पर्यन्त सौ शब्दों की यौगिक परिभाषा देव दयानंद ने इस उद्देश्य से कर दी थी ताकि प्रकारांतर में कोई अन्य इनके अपनी सुविधानुसार रूढि़ अर्थों का प्रयोग कर प्रकरणों के अर्थों का अनर्थ न कर डालें। परंतु लोक प्रचलित सामान्य रूढि़ अर्थ यौगिक अर्थों का स्थान ले लेते हैं या फिर लोग अपनी सुविधानुसार इन रूढि़ अर्थों का प्रयोग करने लगते हैं। उदाहरण के तौर पर जलज शब्द का यौगिक अर्थ जल में उत्पन्न होने वाला परंतु रूढि़ अर्थ में जलज शब्द का प्रयोग कमल के लिए किया जाने लगा है। इस रूढि़ अर्थ के निरंतर प्रयोग या प्रचलन से हम लोग यौगिक अर्थों को भूलने लगे हैं। ठीक इसी प्रकार आजकल यज्ञ का रूढि़ अर्थ लोक व्यवहार के कारण या फिर आर्यजनों ने अपनी सुविधानुसार केवल अग्निहोत्र या हवन तक सीमित कर दिया है। देव दयानंद द्वारा दी गयी यज्ञ की परिभाषा में अग्निहोत्र यज्ञीय कार्यों का प्रारंभ है हम यदि प्रारंभ को ही अंत मान लें, सफर की शुरूआत को ही मंजिल मान लें तो शायद कभी भी किसी भी कीमत पर जीवन यात्रा की मंजिल तक नहीं पहुंच सकते। इसके दो कारण हैं-पहला शायद हम सुविधा प्रारंभ को ही अंत मानने में समझते हैं। इससे लोग अपनी जीवन यात्रा में यज्ञीय अर्थात नि:स्वार्थ भाव से परोपकर के कार्य करने में होने वाले कष्टो से बचना चाहते हैं।
दूसरा मनुष्य को मानव जीवन का उद्देश्य तथा मंजिल का ज्ञान नहीं है। कर्म एवं भोग योनि होने के कारण केवल मानव जन्म ही ऐसा अनमोल जन्म है जिसे पाकर मनुष्य परोपकार, सदकर्म अर्थात यज्ञीय कार्य करते हुए ही ईश्वरीय न्याय व्यवस्था के अधीन जन्म मरण के बंधन से छूट सकता है। मानव जीवन का उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति है औरर इस उद्देश्य प्राप्ति का एकमात्र साधन परोपकार के यज्ञीय कार्य करना ही है।
किसी भी मंजिल पर पहुंचने के लिए साधन एवं रास्ते का पूरा ज्ञान आवश्यक है। मनुष्य जीवन के समस्त उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए यज्ञ साधन हैं। परंतु इसके लिए यज्ञ के व्यापक अर्थ को समझ कर जीवन में आत्मसात करने की आवश्यकता है।
यतुर्वेद यज्ञौ वै भग: (यजुर्वेद ११/१६) यज्ञ ही ऐश्वर्य है तथा यज्ञौ वै स्व: (यजुर्वेद ०१/४) यज्ञ ही सुख स्वरूप अर्थात सब सुखों का प्रदाता है। परोपकार वा प्राणिमात्र का उपकार करने वाले जीव को परमपिता परमेश्वर अपनी न्याय व्यवस्था के अधीन कृपा स्वरूप अच्छी नियति ऐश्वर्य वा सुख प्रदान करते हैं। इससे स्पष्टï है कि परोपकार के सभी कार्य यज्ञ की श्रेणी में आते हैं। चूंकि ईश्वर के सभी कार्य निष्काम भाव से प्राणिमात्र के उपकार के लिए किये जाते हैं इसीलिए ईश्वर को यज्ञरूप कहा जाता है। परंतु अग्निहोत्र को यज्ञ का पर्यायवाची मानना और फिर हवन को ईश्वर का स्वरूप मान लेना उचित नहीं है। हवन वा अग्निहोत्र यज्ञ का प्रारंभ और प्रतीक है इससे प्रारंभ करके प्रतयेक मनुष्य को यज्ञरूप प्रभु के आदेशों का अनुसरण करते हुए अपना जीवन यज्ञमय बनाना चाहिए।

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