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इतिहास के पन्नों से संपादकीय

देश विभाजन और सावरकर, अध्याय 8 ( क ) वंदेमातरम् और सुरासुर संग्राम

देश के प्रत्येक शैक्षणिक संस्थान से यह अपेक्षा की जाती है कि वह राष्ट्र के मूल्यों को जीवंत बनाए रखने के लिए उनके प्रति समर्पण का भाव दिखाएं और अपने विद्यार्थियों में राष्ट्रीय एकता और अखंडता को सुनिश्चित करने वाली बंधुता को बढ़ाने का हर संभव प्रयास करें। ऐसे प्रयासों में किसी भी प्रकार की सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद और भाषावाद जैसी संकीर्ण मानसिकता कहीं आड़े नहीं आनी चाहिए। क्या इस्लाम को मानने वाले लोग अपने अंतर्मन में ईश्वर को साक्षी मानकर यह शपथ पत्र दे सकते हैं कि वह वास्तव में ही अपने शैक्षणिक संस्थानों में राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बढ़ावा देने वाली बंधुता पर विचार करते हैं और उसी का प्रचार प्रसार कर वहां से श्रेष्ठ नागरिक बनाकर बच्चों को बाहर भेजते हैं?
यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि इस्लाम ने अपनी शैक्षणिक संस्थाओं को प्रारंभ से ही इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे भारत माता अर्थात भारत और भारतीयता के प्रति समर्पित होने का संकेत मात्र भी नहीं देंगी। उनका उद्देश्य केवल और केवल इस्लाम की सेवा करना होगा। इस्लाम की सेवा का अभिप्राय केवल इस्लामिक मान्यताओं को अपने छात्र-छात्राओं में स्थापित करना ही नहीं होता है अपितु उन्हें एक जिहादी बनाने के लिए या गाजी बनाने के लिए या जिन देशों में इस्लाम अभी नहीं फैला है उनमें इस्लाम फैलाने के लिए एक प्रचारक के रूप में तैयार करना होता है। यही वह सच्चाई है जो इस्लाम को मानने वाले युवाओं को राष्ट्र की मुख्यधारा के साथ जुड़ने नहीं देती और उन्हें अलगाववादी बनाकर देश विरोधी आचरण करने के लिए प्रेरित करती है।

‘इस्लाम की सेवा’ का अर्थ

हमारे देश में स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व से ही ‘इस्लाम की सेवा’ का अर्थ केवल इतने तक दिया गया है कि इसके माध्यम से इस्लामिक मान्यताओं को और अपने मजहब की शिक्षाओं को लोग भूलेंगे नहीं । उन्हें बनाए रखने और अपने निजी परिवेश में मानते रहने की उन्हें छूट होनी चाहिए। इस प्रकार की छूट से सावरकर जी को कभी कोई समस्या नहीं थी। उन जैसे लोगों को समस्या इस बात से रही कि ‘इस्लाम की सेवा’ का अर्थ इससे कहीं अलग ही लिया जाता रहा है । जिसका संकेत हमने ऊपर दिया है। सावरकर जी कि यह मान्यता अवश्य थी कि हिंदुस्तान हिंदुओं के लिए है और इस संबंध में उन्होंने ‘हिंदू’ को परिभाषित भी किया, पर इसका अभिप्राय है नहीं था कि अन्य धर्मावलंबियों को अपने मत के अनुसार पूजा-पाठ आदि करने का कोई अधिकार नहीं होगा। सावरकर जी के अनुसार वे ऐसा कर सकते हैं पर शर्त केवल एक है कि उन्हें मां भारती के प्रति भी पूर्ण समर्पण रखना होगा। किसी भी मत की निजी मान्यताएं राष्ट्र की मान्यताओं के ऊपर नहीं होनी चाहिए। जैसे कोई मत या संप्रदाय एक अदृश्य भावना है, पर वह अपने मानने वालों के माध्यम से दिखाई देता है, वैसे ही राष्ट्र भी एक अमूर्त भावना है जो अपने मानने वालों के माध्यम से दिखाई देता है। यदि मत की मान्यताओं को ऊपर रखकर काम किया जाएगा तो राष्ट्र की मान्यताएं मरने लगेंगी । उसका अंतिम परिणाम यह होगा कि राष्ट्र मतीय विवादों की क्रीड़ास्थली बनकर विखंडन का शिकार हो जाएगा। इसलिए राष्ट्र की मान्यता को मतीय मान्यताओं पर अधिमान देना सावरकर जी का अभिमत था। इस्लाम की सेवा निश्चित रूप से राष्ट्र की मान्यताओं में आड़े आती रही हैं जिन्हें सावरकर जी कभी स्वीकार नहीं करते थे। इस्लाम को मानने वाले जिन लोगों की ऐसी मान्यता है कि राष्ट्र से ऊपर उनका मत है अथवा संप्रदाय है, उनकी विखंडित सोच राष्ट्र को भी विखंडित कर डालती है। ऐसे भारत के संदर्भ में नहीं, अन्य देशों के संदर्भ में भी अनेक उदाहरण हैं।

उस्मानिया विद्यापीठ और ‘वंदेमातरम्’

 १० दिसंबर, १९३८ के दिन उस्मानिया विद्यापीठ ने इस्लाम की सेवा के नाम पर 'वंदेमातरम्' बोलने पर पाबंदी लगा दी थी। वास्तव में इस्लाम की सेवा का अर्थ ही यह है जिसे उस्मानिया विद्यापीठ ने अपने इस आदेश को लागू करके दिखाया। उस्मानिया विद्यापीठ का यह निर्णय कई छात्रों को पसंद नहीं आया। फलस्वरूप उन्होंने उस समय उस पाबंदी को तोड़कर उग्र प्रदर्शन किए। कांग्रेस के लिए उस्मानिया विद्यापीठ के इस निर्णय के विरुद्ध छात्रों द्वारा किए जा रहे इस प्रकार के प्रदर्शन पूर्णतया अनुचित थे। यही कारण रहा कि इस प्रकार के प्रदर्शनों को कांग्रेस और उसकी मानसिकता के लोग आज तक भी अनुचित ही मानते हैं। वास्तव में ऐसी मानसिकता के लोग इस्लाम को खुली छूट देने के समर्थक होते हैं और यदि इस्लाम इस खुली छूट का लाभ उठाते हुए देश विरोध तक भी जाए तो उन्हें यह भी स्वीकार है। 

इस संबंध में वीर सावरकर ने एक पत्रक निकाला-
“वंदेमातरम् का उच्चारण करना आपका अधिकार है। निजाम कौन होता है ? ब्रिटिशों को भी इस देश में ‘वंदेमातरम्’ सुनना पड़ा। आप प्रत्येक स्थान पर ‘वंदेमातरम्’ का घोष करो, ताकि उससे वातावरण गूंज उठे।”
कांग्रेस और मुस्लिम लीग भारत से वैदिक सत्य सनातन संस्कृति के मानवीय मूल्यों को उजाड़ कर इस्लाम की मान्यताओं को लागू करने पर लगभग सहमत थे। गांधी और नेहरु एक ऐसा स्वाधीन देश मांग रहे थे जिसमें मुस्लिम मान्यताओं को अधिमान देकर भारत की निजता पर कुठाराघात किया जाए। वंदेमातरम् वैदिक सत्य सनातन संस्कृति का एक अविभाज्य तत्व है। जिसने युग – युगों से भारतीय एकता और अखंडता को बनाए रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह अलग बात है कि इस शब्द की उपस्थिति सृष्टि प्रारंभ में नहीं थी, पर जब मां भारती और राष्ट्र भूमि के प्रति समर्पण ,बलिदान और उसके साथ मां पुत्र का संबंध होने का संकेत वैदिक वांग्मय में हमको मिलता है तो स्पष्ट होता है कि यह पवित्र भावना वंदेमातरम् की ही प्रतीक थी। राष्ट्र वंदना की इस पवित्र भावना को भी सावरकर विरोधियों ने उनका उग्र राष्ट्रवाद माना । यदि ऐसा है तो इसका अभिप्राय यह हुआ कि हमारे वैदिक ऋषि भी उग्र राष्ट्रवादी थे ? जिन्होंने वंदेमातरम् की पवित्र भावना को वैदिक वांग्मय में स्थान दिया। यदि वेद ईश्वरीय वाणी है और उसमें भी वैदिक राष्ट्र की प्रार्थनाएं उपलब्ध हैं तो इसका अभिप्राय यह हुआ कि परमपिता परमेश्वर ही उग्र राष्ट्रवादी थे या हैं? इस सबके उपरांत भी हम भारतीयों की आस्था चूंकि वेदों और ईश्वर में है तो वेद और ईश्वर की आज्ञाओं का यथावत पालन करना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है।

सुरासुर संग्राम

हम अपने राष्ट्रीय कर्तव्य के निर्वहन से पीछे नहीं हट सकते, यह सोच सावरकर जैसे हिंदूवादी राष्ट्रवादी लोगों की थी। उधर मुस्लिम लीग या इस्लाम को मानने वाले लोग कहते थे कि उन्हें अपने पैगंबर और उसकी किताब पर विश्वास है और इससे अलग वे किसी अन्य की आज्ञाओं का पालन नहीं करेंगे। विभाजन की मानसिकता का पेंच यही फंसा था। सावरकर जी जैसे लोग कहते थे कि हम अपने राष्ट्र का निर्माण उन्हीं मानवीय मूल्यों पर करेंगे जिनका आदेश हमारे वेद आदि धर्म ग्रंथों में दिया गया है, हम अपनी राष्ट्र नीति को भी उसी प्रकार चलाएंगे जिनका उपदेश हमारे धर्म शास्त्रों में दिया गया है और हम मानव का मानव के प्रति रिश्ता भी वही रखेंगे जो हमें वेदादि धर्म शास्त्रों ने सिखाया है। उधर ‘किताब’ को मानने वाले लोग काफिरों के प्रति पूर्णतया निर्ममता और निर्दयता की शिक्षा देने वाली आयतों को अपने लिए खुदा का हुकुम मानते थे।
इस प्रकार यह मानवता और मानवता के बीच सृष्टि का परंपरागत वही युद्ध था जिसे सुरासुर संग्राम के नाम से इतिहास में जाना जाता है। देश और मानवता को घायल कर उसे रक्त रंजित करने के लिए जहां एक ओर अपसंस्कृति अपना खेल खेलना चाहती थी, वहीं एक मानवीय संस्कृति उसका प्रतिकार कर रही थी। जिन मूर्खों ने ऐसी रक्तरंजित अपसंस्कृति का बचाव करने का काम किया है, उन्होंने मानवता के विरुद्ध अक्षम्य अपराध किया है।
इसके स्थान पर होना यह चाहिए था कि राष्ट्र के प्रति समर्पण का पवित्र भाव देश के प्रत्येक संप्रदाय को मानने वाले व्यक्ति पर अनिवार्य रूप से लागू किया जाता। यदि किसी राष्ट्र के पास निवासी तो हैं पर उनके भीतर राष्ट्रभक्ति ना हो तो ऐसा राष्ट्र खंडित हो जाता है। राष्ट्रवासियों के भीतर एक ऐसी अमूर्त पवित्र भावना का संचार किया जाना आवश्यक होता है जिससे वे सब एक दूसरे के साथ अपने आपको बंधे हुए अनुभव करें। यदि बंधन की यह पवित्र डोर किसी राष्ट्र के निवासियों के मध्य किसी भी कारण से टूट-फूट जाती है या कहीं खंडित हो जाती है तो इसका सीधा प्रभाव राष्ट्र के स्वास्थ्य पर पड़ता है। संप्रदाय एक ऐसा ही बाधक तत्व है जो राष्ट्र की अखंड ज्योति को बाधित करता है। राष्ट्रभक्ति की इन पवित्र भावनाओं को वंदेमातरम् जैसे प्रतीक ही जीवंत बनाए रखने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सावरकर जी जैसे लोग उस समय चल रहे सुरासुर संग्राम में विजयी होने के लिए अपने आप को वंदेमातरम् से गहराई से जुड़ा हुआ अनुभव करते थे और इसी से जुड़े रहने के लिए राष्ट्र वासियों को प्रेरित करते थे। जबकि इस्लाम को मानने वाले लोग अपनी सांप्रदायिक मान्यताओं के वशीभूत होकर राष्ट्र निर्माण के महत्वपूर्ण तंतुओं की या तो उपेक्षा कर रहे थे या जानबूझकर उन तंतुओं या तत्वों को भी कमजोर कर देना चाहते थे।

डॉ राकेश कुमार आर्य

( यह लेख मेरी नवीन पुस्तक “देश का विभाजन और सावरकर” से लिया गया है। मेरी यह पुस्तक डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका मूल्य ₹200 और पृष्ठ संख्या 152 है।)

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