देश में फॉर्मूला-वन रेस का आयोजन पूर्ण हो गया है। आयोजन में नं. वन और ईनाम पाने में पीछे रहने वाले भारत ने सब कुछ शांतिपूर्ण संपन्न होने पर संतोष की सांस ली है। नि:संदेह इस प्रकार के आयोजन हमें दुनिया से जोड़ते हैं और हमें विदेशों के साथ बेहतर सोच कायम करने का अच्छा अवसर उपलब्ध कराते हैं। दोस्ती के पैगामों से दुनिया की दूरियां सिमटकर नजदीकियों में बदल जाती हैं। पर इस प्रकार के आयोजनों का एक दूसरा पक्ष भी है। एक -एक करोड़ के टिकट बुक करके बेशुमार दौलत कमाना किसी व्यक्ति या ग्रुप को मालामाल कर सकता है लेकिन इससे भारत के आम आदमी का विशेषत: गरीब आदमी का कोई भला हुआ हो यह नही कहा जा सकता। जिस देश की कुल आबादी का बहुत बड़ा भाग रोटी के टुकड़ों तक के लिए मोहताज हो या रोटी कपड़ा और मकान की मूलभूत आवश्यकताओं तक से वंचित हो या उन्हीं के लिए कड़ी मशक्कत करने के लिए अभिशप्त हो, उसमें एक ग्रुप द्वारा इतने महंगे खेलों का आयोजन कराना बताता है कि पूंजी श्रम के खून को पीकर किस प्रकार उसी पर शासन कर रही है और उसे चिढ़ा रही है। गरीबों की सूखती अंतडिय़ों में अन्न का कौर नही पड़ रहा है लेकिन अमीरों की थालियों से शोरबा बहकर नालियों में जा रहा है। गरीबी और अमीरी के बीच जितनी बड़ी खाई आज भारत में बन चुकी है उसके लिए चंद लोगों की पैसे की अंधी दौड़ जिम्मेदार है। 21वीं सदी का भारत आज हमारे सामने है। लेकिन 21वी सदी के भारत में रहने वाली अधिकांश जनता 14वीं शताब्दी का जीवन यापन कर रही है। आज भी देश में बड़ी संख्या में ऐसे स्कूल हैं जहां बच्चे खुले आकाश के नीचे शिक्षा लेते हैं। बिना भवन के विद्यालय चल रहे हैं। जिनमें कल का भारत पल रहा है। उस भावी भारत के यश और आशा की प्रतिमूर्तियों की चिंता किसी को नही है। चंद लोग 21वीं सदी में खड़े हैं और भारी फौज पीछे कहीं बहुत पीछे छूट गयी है। भारत में सर्वोदयवाद की अवधारणा को आजादी के एकदम बाद बड़े ही तर्कपूर्ण ढंग से रखा गया था। लेकिन आज भारत का सर्वोदय वाद कहीं या तो भटक गया है या उसे खेलों के फार्मूला 1 जैसे आयोजनों ने सटक लिया है। क्योंकि इस आयोजन का लुत्फ देश की आबादी का बहुमत नही उठा पाया है। टीवी या दूरसंचार माध्यमों से भी नही। पहले घर में सब ठीक हो तभी कोई आयोजन अच्छा लगता है। राजसूय यज्ञ की अनुमति भी किसी राजा को हमारे यहां तभी मिलती थी जब उसके राज्य में सारी प्रजा सुखी होती थी। लेकिन आज भ्रष्टाचार के इस युग में जनता के दु:खों की किसे परवाह है। इसलिए अब तो यही कहा जा सकता है कि अब तो यहां गरीबों की मजार पै हर बरस मेले लगेंगे यानि सिलसिला अभी रूकेगा नही। सचमुच गरीबों की गरीबी का इससे बड़ा उपहास और कोई नही हो सकता।
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लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।