वैदिक धर्म का भक्त ‘काले खाँ’ अर्थात् ‘कृष्णचन्द्र’

प्रियांशु सेठ
यह कहना तो नितान्त उचित है कि ऋषि दयानन्द की वैचारिक क्रान्ति ने न केवल किसी मत अथवा व्यक्ति विशेष को कल्याण का मार्ग दिखाया अपितु सारे मनुष्य समाज को मानवता के एकसूत्र में भी बांधने का प्रयत्न किया। महर्षि के विचार-शक्ति में इतना सामर्थ्य था कि उसके प्रभाव से अन्य मत वाले भी वैदिक धर्म की ओर प्रवेश कर सत्य-मार्ग के पथिक बन गए व वैदिक धर्म के प्रचार-कार्य में सम्मिलित हो गए। दूर-दूर के गांव में भी आर्यसमाज का डंका बजने लगा और लोग अपनी प्राचीन सभ्यता से अवगत होने लगे, तथा आर्य धर्म को जानने के प्रति लोगों की जिज्ञासा व रुचि बढ़ती गई। यह रुचि केवल हिन्दू मतावलम्बियों में ही नहीं अपितु सभी मतानुयायियों के समुदाय में दृष्टिगोचर होने लगी और लोग आर्यसमाज के उत्सवों, सम्मेलनों में आने-जाने लगे। सिरसा से कुछ मील की दूरी पर जिला हिसार के ‘जलालाणा’ ग्राम के निवासी “काले खाँ” के वैदिक धर्म के प्रति भक्ति कुछ ऐसी ही है।
काले खां का जन्म एक मुस्लिम परिवार में हुआ था। यह ३ वा ४ भाई थे। इस्लामी मत की शिक्षा ग्रहण करने के बाद काले खां अरबी व फ़ारसी के भी बड़े विद्वान् बने। आर्यसमाज के प्रचार को सुनकर उनकी रुचि आर्य धर्म के प्रति बढ़ने लगी। वे अक्सर आर्यसमाज के उत्सवों पर आने-जाने लगे तथा आर्य साहित्य का भी खूब स्वाध्याय किया। परिणामस्वरूप वैदिक सिद्धान्तों में उनकी श्रद्धा हो गई और आर्यसमाज से प्रेम बहुत बढ़ गया, किन्तु जन्म से मुसलमान होना इस कार्य में बाधक बन रहा था। घर-परिवार को छोड़कर अकेले मुंशी काले खां शुद्ध नहीं होना चाहते थे किन्तु महर्षि दयानन्द जी द्वारा निर्दिष्ट सच्चे सिद्धान्तों की उनकी आत्मा पर गहरी छाप लग चुकी थी। उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जगते उनके हृदय में यही धुन रहती थी कि मैं स्वयं आर्य उपदेशक बनकर सर्वत्र वैदिक धर्म की धूम मचा दूं। यह लग्न उन्हें टिकने नहीं देती थी और वह घर में तथा बाहर आर्य सिद्धान्तों की ही चर्चा सर्वत्र किया करते थे। वे काले खां रहते हुए भी आर्य धर्म में प्रविष्ट हो चुके थे अर्थात् उनका आचरण सर्वथा आर्य सिद्धान्तों के अनुकूल हो चुका था। धीरे-धीरे इनके भाईयों की भी विचारधारा में परिवर्तन आने शुरू हो गए। हरियाणे में ग्रामीण क्षेत्रों के मुसलमान प्रायः सभी अधिक कट्टर नहीं होते थे। हिन्दुओं के साथ उठने-बैठने से उन मुसलमानों के कुछ न कुछ संस्कार हिन्दुओं के समान हो ही गए थे। लेकिन आर्य समाज के सत्सङ्ग ने तो काले खां पर सोने पर सुहागे के सदृश कार्य किया। सत्सङ्ग तथा स्वाध्याय से काले खां श्रद्धालु कट्टर आर्यसमाजी बन चुके थे। उनकी कथनी और करनी में भेद नहीं था। प्रायः सभी आर्य सज्जनों और विद्वानों से उनकी मित्रता और परिचय हो गयी थी। इनके साथ आर्यजगत् के धुरंधर विद्वानों में लेखराम, गणपतराम और पण्डित मनसारामजी ‘वैदिकतोप’ आदि अनेक आर्य सज्जन प्रचार में जुटकर सर्वत्र आर्य समाज की धूम मचा दी। कुछ ही समय पश्चात् अपने परिवार सहित काले खां ने शुद्धि संस्कार करा लिया और नियमित रूप से आर्य समाज के एक अभिन्न अङ्ग बन गए। पर्याप्त बड़ा परिवार था इसलिए सबके शुद्ध होने पर आर्यों का उत्साह और बढ़ा। किन्तु सनातनी तथा विशेषकर मुसलमान इनसे जलने लग गए थे और छुप-छुप कर मारने की धमकियां भी देते थे जैसा कि मुसलमानों का स्वभाव होता है। किन्तु आर्यों के संगठन से सब भयभीत रहते थे क्योंकि कोई सत्य को पराजित नहीं कर सकता। प्रकट रूप में किसमें शक्ति थी कि काले खां जिसने अपना नाम बदलकर ‘मुंशी कृष्णचन्द्र’ कर लिया था, की ओर टेढ़ी दृष्टि से देख सकता। वे निर्भयतापूर्वक पं० मनसारामजी आदि के साथ खूब उत्साह से आर्य समाज का कार्य व वैदिक धर्म का प्रचार करते थे। उन्होंने प्रचार की एक योजना भी बनाई- वे ग्रामों में जाकर पाठशाला चलाते थे, जिसमें आर्य सिद्धान्तों का शिक्षण देते थे। चार वा पांच वर्ष तक एक ग्राम में पाठशाला चलाकर फिर दूसरे ग्राम में नई पाठशाला खोल देते थे। वे विद्वान् तो थे ही, थोड़े समय में ही उन्होंने कितने ही नए आर्य समाजी अपने सहयोगी बना डाले। पण्डित मनसारामजी इनके साथी थे। वे इनके साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर प्रचार कार्य करते थे। आगे चलकर पण्डित मनसारामजी इतने चमके कि “शास्त्रार्थ महारथी” के नाम से सारे आर्य जगत् में प्रसिद्ध हो गये। बड़े-बड़े पौराणिक पण्डित तो उनका केवल नाम सुनकर ही भाग जाते थे।
मुंशी कृष्णचन्द्रजी को अनेक कष्टों का सामना भी करना पड़ा था, किन्तु यह आर्यवीर कष्टों की क्या परवाह करता? अपने अन्त समय तक यह रात-दिन आर्य समाज के प्रचार में जुटे रहे। उन्होंने अपने जीवन में बहुत कार्य किए। उनकी सेवा-कार्य की प्रशंसा विरोधी भी करते हैं। सन् १९२५-१९२८ ई० तक भयंकर प्लेग फैला। सारा शहर खाली हो गया। लोग यहां तक भयभीत हुए कि अपने सगे-सम्बन्धियों को घरों में अकेले छोड़कर भाग गए। उस समय एक ‘कोनर’ नाम का अंग्रेज S.D.O. था। उसने भी सेवा के लिए लोगों को प्रेरणा की। आर्य समाजी तो इस सेवा कार्य में पहले ही लगे हुए थे। अनाथ रोगियों को ढूंढ-ढूंढ कर उनकी औषधादि के द्वारा सेवा करना, मुर्दा लाशों को शमशान में पहुंचाना, लकड़ी-कफ़न आदि का प्रबन्ध करना, ये सभी कार्य आर्यसमाजी करते थे। मुंशी कृष्णचन्द्रजी भी रात-दिन जुटे रहते थे। वे सबके अग्रणी थे। आर्यसमाज के प्रधान, मन्त्री आदि सभी अधिकारी तन-मन-धन से चार वर्ष सेवा में लगे रहे। प्लेग समाप्त होने पर अंग्रेज S.D.O. कोनर साहब ने सबको सेवा के फलस्वरूप स्वर्ण तथा रजत (चांदी) के मैडल दिए। आर्यसमाजियों को सबसे अधिक मैडल मिले। मुंशी कृष्णचन्द्रजी को रजत मैडल मिला। केवल आर्यसमाज के प्रधान को ही स्वर्ण मैडल मिला। S.D.O. ईसाई था किन्तु आर्यसमाजियों के इस सेवा-कार्य से बहुत प्रसन्न हुआ।
मुंशी कृष्णचन्द्रजी अपनी जान हथेली पर रखकर सभी अच्छे कार्यों में अग्रणी रहते थे, इन्होंने चन्दा करके सिरसा में आर्यसमाज मन्दिर बनवाया। आज भी सभी आर्य भाई मुंशी कृष्णचन्द्रजी को बड़ी श्रद्धापूर्वक स्मरण करते तथा उनके प्रति बड़ी कुशलता प्रकट करते हैं। परमात्मा आर्यजाति तथा आर्यसमाज को इस प्रकार सच्चे सपूत उपदेशक वा सेवक प्रदान करे। आशा है, पाठक इस लेख को पढ़कर मुंशी कृष्णचन्द्रजी का अनुसरण करके अपना जीवन सफल बनायेंगे।
-‘सुधारक’ १९६५ के अंक से साभार

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