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संपादकीय

नारी को करनी होगी अपने सम्मान की खुद ही संभाल

आजकल नारी सशक्तिकरण की बातें भारत में बहुत होती हैं। वामपंथी इतिहासकारों या विचारकों ने नारी सशक्तिकरण शब्द को इस प्रकार महिमामंडित किया है कि यह केवल और केवल उनके चिंतन से ही निकल कर आया हुआ शब्द है। इससे पहले भारत के लोग नारी सशक्तिकरण के बारे में कुछ नहीं जानते थे। भारतीय संस्कृति और संस्कृत जैसी पवित्र देव भाषा से कटे होने के कारण भारत के बहुत बड़े वर्ग ने वामपंथी विचारकों की इस मूर्खतापूर्ण धारणा पर अपनी सहमति देकर भारतीयता के साथ अपमानित व्यवहार करने का कार्य किया है। ये वही लोग हैं जो नहीं जानते कि वैदिक वांग्मय में किस प्रकार नारी को सम्मान पूर्ण दृष्टिकोण से देखा गया है ? और उसके लिए सम्मान पूर्ण स्थान छोड़ने में हमारे ऋषि पूर्वजों को किसी प्रकार की कोई आपत्ति कभी नहीं रही।
यदि वैदिक वांग्मय में हमारे ऋषि-मुनियों के चिंतन के आधार पर नारी को सम्मान पूर्ण स्थान नहीं दिया जाता तो द्रोपदी के चीर हरण की घटना को लेकर श्री कृष्ण जी महाभारत नहीं कराते और उससे पहले रामचंद्र जी कभी भी सीता माता के अपमान को लेकर रावण की श्रीलंका पर आक्रमण नहीं करते।
दूसरों की महिलाओं को बलात छीनकर उन्हें अपने हरम में ठूंसना और उनके साथ अमानवीय अत्याचार करना जहां इस्लाम की तथाकथित गंगा जमुनी तहजीब की देन है , वहीं भारत के ऋषि मुनियों की परंपरा में नारी के सम्मान के लिए युद्ध किए जाने की प्रवृत्ति के हमें दर्शन होते हैं। कहने का अभिप्राय है कि जर जोरू जमीन के लिए वे लोग लड़े हैं जिन्होंने दुनिया के लोगों के अधिकारों को छीनने का पाप किया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि ऐसे पापी लोग ही आज हमें नैतिकता का उपदेश देते हैं और कहते हैं कि हमने नारी सम्मान के लिए संघर्ष किया है। उन्होंने अपनी बात को सही साबित करने के लिए हिंदी को यह मुहावरा दे दिया कि जर जोरू जमीन के लिए तो दुनिया लड़ती आई है। जबकि भारत की परंपरा रही है कि दूसरों के अधिकारों की रक्षा करने और दूसरों की ही नहीं बल्कि समस्त नारी जाति के सम्मान के लिए यदि युद्ध आवश्यक हो तो किया जाना चाहिए।
    हमारी सांस्कृतिक विरासत को नष्ट भ्रष्ट करने के लिए एक गहरे षड्यंत्र के अंतर्गत श्री कृष्ण जी पर यह आरोप लगाया जाता है कि उनके रनिवास में 16000 रानियां थीं। यह संस्कृतिघात उन लोगों ने किया है जिन्हें अकबर और अन्य मुगल शासकों की पांच पांच हजार रखैलों का वैधानिकीकरण करना था और यह सिद्ध करना था कि मुगल बादशाहों ने ऐसा करके कुछ भी गलत नहीं किया। क्योंकि इससे पहले तो इस देश में विषय और वासना के नशे में डूबा हुआ श्री कृष्ण नाम का इक व्यक्ति रहा है, जिसके यहां 16000 रानियां थीं। यह दुखद है कि हिंदू समाज ने भी गंगा जमुनी संस्कृति के नाम पर इस प्रकार के आरोपों को खारिज न करके अपना लिया। वास्तव में श्री कृष्ण जी को वेद की 16000 ऋचाएं कंठस्थ थीं। उन्हीं को रूपक अलंकार में प्रस्तुत कर दिया गया।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी के बारे में भी समाज में धारणा है कि उन्होंने एक धोबी के व्यंग्य पूर्ण शब्दों को सुनकर अपनी पत्नी सीता को वनवास दे दिया था। महर्षि वाल्मीकि रचित ‘रामायण’ के उत्तरकाण्ड के 42वें सर्ग के 31-35 श्लोक में इस मूर्खतापूर्ण आरोप का उत्तर देते हैं । जहां श्रीराम अपनी गर्भवती पत्नी सीता से पूछते हैं कि इस अवस्था में आपकी हार्दिक इच्छा क्या है? तब सीताजी कहती हैं कि हे राघव! मैं पवित्र तपोवनों में रहकर महान ऋषि-मुनियों की सेवा-सत्संग का लाभ उठाना चाहती हूं, जिससे कि मेरा गर्भस्थ शिशु क्षत्रिय तेज के साथ ब्रह्मतेज से भी संयुक्त हो।
अपनी सहधर्मिणी सीता जी के मुखारविंद से इस प्रकार के पवित्र शब्दों को सुनकर श्री राम कहते हैं कि :-‘ ऐसा ही होगा, मैं कल ही आपको तपोवन भेजने की व्यवस्था करूंगा।’ इससे स्पष्ट है कि सीता जी रामचंद्र जी के निकालने से वन नहीं गई थीं। अपितु वह अपनी भीतरी इच्छा से प्रेरित होकर और अपने गर्भस्थ शिशु के भीतर ब्रह्म तेज और क्षत्रिय तेज भरने की भावना से प्रेरित होकर वन के लिए गई थीं। यहां नारी का उत्पीड़न नहीं है अपितु नारी के महत्व को समझ कर और व्यक्ति निर्माण से लेकर राष्ट्र निर्माण में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका का सम्मान करते हुए रामचंद्र जी ने उन्हें वन जाने की अनुमति दी।
इस एक उदाहरण से ही यह भी स्पष्ट है कि उस समय रामचंद्र जी जैसे संयमी राजाओं के रहते हुए नारी के चरित्र पर किसी प्रकार का संदेह करने की लेश मात्र भी संभावना नहीं थी। आज इसी प्रकार के सकारात्मक चिंतन को प्रस्तुत करने की आवश्यकता है।
भारतीय नारी के लिये वैदिक वांग्मय में बहुत ही सम्मान पूर्ण दृष्टिकोण अपनाया गया है। यजुर्वेद का (21। 5) यह श्लोक देखिए- मंहीमूषु मातरं सुव्रतानामृतस्य पत्नीमवसे हुवेम। तुविक्षत्रामजरन्तीमुरूची सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्॥
‘अर्थात हे नारी! तू महाशक्तिमती है। तू सुव्रती संतानों की माता है। तू सत्यशील पति की पत्नी है। तू भरपूर क्षात्रबल से युक्त है। तू मुसीबतों के आक्रमण से जीर्ण न होनेवाली अतिशय कर्मशील है। तू कल्याण करनेवाली और शुभनीति का अनुसरण करनेवाली है।’
जब नारी सुसंतानों की माता होती है, उनको जनने वाली होती है, तो राष्ट्र में मर्यादा पालन करने वाले लोगों का प्राबल्य होता है। सर्वत्र शांति और सुव्यवस्था स्थापित रहती है। इससे राष्ट्र सशक्त होता है ,इसीलिए नारी महाशक्तिमती कही गई है कि वह सुव्यवस्थित राष्ट्र की संपदा अर्थात युवाओं की माता है। ऐसी प्रत्येक माता राष्ट्रमाता का सम्मान पाने की स्थिति में होती है, जो राष्ट्र निर्माण के लिए अपनी संतानों का निर्माण करती है। माता निर्माता भवति के बड़े व्यापक अर्थ हैं। इन तीन शब्दों से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारे ऋषि पूर्वजों ने माता के राष्ट्र निर्माण में योगदान को सम्मानित करते हुए ही उसके विषय में ऐसा कहा था।
आज सर्वत्र व्यभिचार को प्रोत्साहित करने वाले साहित्य का निर्माण हो रहा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो या फिर प्रिंट मीडिया हो इन सबने अपनी भूमिका से दूर जाकर नारी को बाजार की वस्तु बनाने में अपना योगदान किया है। यदि इनके सामने वेद की नारी का चित्र आ जाए और उसके मर्यादापूर्ण धर्माचरण को स्पष्ट किया जाए तो ये आधुनिकता के नाम पर नारी की सच्चरित्रता की उस पवित्रतम तस्वीर को स्वीकार करने को तैयार नहीं होंगे। इस संबंध में वैदिक ऋषि कहते हैं कि कन्याएं ब्रह्मचर्य के पालन से पूर्ण विदुषी होकर ही विवाह करें (अथर्ववेद 11।5।18।।),माता- पिता अपनी कन्या को पति के घर भेजते समय उसे ज्ञान और विद्या का उपहार दें (अथर्ववेद 14।1।6।।),
कहने का अभिप्राय है कि हमारे यहां पर हमारे पूर्वज ससुराल के लिए विदा होती हुई बेटी को कभी दूसरे का घर बिगाड़ने की शिक्षा नहीं देते थे। वे जानते थे कि बेटी जितनी ही अधिक गंभीर और मर्यादित होकर अपनी भूमिका का निर्वाह ससुराल पक्ष में करेगी, उतना ही उसका जीवन आनंदित रहेगा। इसीलिए कहा गया है कि स्त्री अपनी विद्वत्ता और शुभ गुणों से पति के घर में सबको प्रसन्न रखे (अथर्ववेद 14।1।20।।), पति अपनी नववधू से कहता है- तुम सभी सांसारिक कलाओं की ज्ञाता हो, तुम हमारे कुल की धन-समृद्धि और मान को बढ़ाओ (अथर्ववेद 7।47।2।।)। वेदस्त्री और पुरुष दोनों को समान अधिकार देते हुए कहते हैं कि राजा ही नहीं, रानी भी न्याय करने वाली हों (यजुर्वेद 10।26।।)। वैदिक ऋषि स्त्रियों को युद्ध में भाग लेने के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं (यजुर्वेद 17।45।।)।
आज हमें भारत को विश्व गुरु के रूप में सम्मानित होते देखने के लिए वैदिक नारी के आदर्श चरित्र को अपनाने की आवश्यकता है। यदि हम वैदिक वांग्मय में नारी के प्रति व्यक्त किए गए श्रद्धा भाव को अपनाकर उसे । क्रियान्वित करने की ओर जागरूक होते हैं तो निश्चय ही इससे भारत का सामाजिक परिवेश बहुत ही सुरक्षित और सुंदर बन जाएगा। हमें चाहिए कि अपनी प्राचीन आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत को सहेजने के प्रति सदैव सावधान रहें।
अनर्गल बोलना और असंगत शब्दों का प्रयोग करना किसी भी दृष्टिकोण से ठीक नहीं है । भारतीय वैदिक वांग्मय में इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि किसी के लिए अनर्गल और असंगत ना बोला जाए। महाभारत और रामायण जैसे टी0वी0 सीरियल्स को भी यदि देखा जाए तो उनमें भी बहुत ही मर्यादित और संतुलित भाषा का प्रयोग करने का प्रयास हमारे आर्य पूर्वजों ने किया है। कुल मिलाकर आज भारत के वैदिक अतीत को समझने पढ़ने और नए दृष्टिकोण से गढ़ने के पश्चात प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। इसके लिए सरकार को भी चाहिए कि वह वैदिक नारी के सच्चे स्वरूप को स्पष्ट करने वाले अध्यायों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करें। अश्लील और अभद्र भाषा के साथ-साथ अशोभनीय भूषा को अपनाने वाली नारी भारतीय नारी का प्रतीक नहीं हो सकती । नारी को टी0वी0 सीरियल्स और सिनेमा में अपने चरित्र और अपने सम्मान का ध्यान रखना चाहिए। यदि वह स्वयं अपने स्थान से फिसलेगी तो उसे यह याद रखना चाहिए कि फैसले हुए तो पत्थर को भी पत्थर ना कहकर रोड़ा कहा जाने लगता है। रोड़ा ठोकर तो खाता है पर सम्मान कभी नहीं पाता।

डॉ राकेश कुमार आर्य

(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)

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