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संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा

राव लूणकरण भाटी ने रच दिया था ‘घर वापिसी’ का विशाल यज्ञ

अलवर का प्राचीन इतिहास
राजस्थान के अलवर क्षेत्र ने भी समय आने पर भारत की अस्मिता  की रक्षार्थ अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसके विषय में मान्यता है कि महाभारत कालीन शाल्व नामक राजा ने इसे बसाया था। राजा शाल्व कार्तिकावल्क का शासक था। उस समय अलवर का नाम कार्तिकावल्क ही रखा गया था। इसे कालांतर में राजा शाल्व के नाम से शाल्वपुर कहा जाने लगा। विद्वानों की मान्यता है कि शाल्वपुर से बिगडक़र ही अलवर शब्द प्रचलन में आया है। मध्यकाल में इस क्षेत्र को मेवात के नाम से भी जाना गया था।

हसन खां मेवाती और बाबर
जिस समय बाबर ने भारत पर आक्रमण किया उस समय इस क्षेत्र का शासन हसन खां मेवाती था। यह शासक हिंदू से मुसलमान बना था। हसन खां बहुत ही वीर साहसी और देशभक्त शासक था। उसने अपनी पूजा पद्घति चाहे परिवर्तित कर ली थी, परंतु अपने पूर्वजों के प्रति उसके हृदय में आज भी सम्मान और श्रद्घा का भाव था। इसलिए वह देशभक्त अत्यंत उच्चकाटि का था। बाबर को हसन खां की देशभक्ति ने प्रभावित किया था। इसलिए हसन खां के विषय में जानकारी मिलते ही बाबर ने उससे भेंट का प्रस्ताव रखा, जिससे कि बाबर भारत के इस वीर शासक को अपने साथ मिला सके।
कहा जाता है कि बाबर ने मजहब के नाम पर हसन खां मेवाती को तोडऩे का प्रयास किया, परंतु मां भारती का यह ‘शेर’ अपनी प्रतिज्ञा से डिगा नही और बाबर को अपने प्रयास में असफलता ही हाथ लगी।

हसन खां की देशभक्ति
हसन खां मेवाती मूल रूप में यदुवंशी राजपूत था। जिसे अपने देश की संस्कृति से असीम प्रेम था। बाबर ने उसे राणा सांगा के विरूद्घ अपने साथ लाने के अथक प्रयास किये, बहुत से प्रलोभन दिये परंतु इस पर कोई प्रभाव नही पड़ा। 1527 ई. में जब बाबर ने महाराणा संग्रामसिंह (उपनाम सांगा) के विरूद्घ युद्घ की घोषणा की तो यह देशभक्त हसन खां अपनी तीस हजार की विशाल सेना के साथ (जिसे कुछ इतिहासकारों ने 10 हजार भी माना है) राणा के पक्ष में जा मिला। इस देशभक्त ने महाराणा के साथ मिलकर विदेशी आक्रांता के विरूद्घ भयंकर युद्घ किया, और युद्घ करते-करते ही अपनी सेना सहित वीरगति को प्राप्त हो गया।
अलवर के इस महान देशभक्त को सम्मान देने के लिए अलवर के एक उपनगर का नाम इसके नाम पर रखा गया है।

मुस्लिम देशभक्त हकीम खां सूरी
 1576 ई. में जब हल्दीघाटी का युद्घ हुआ था तो उस समय भी हकीम खां सूरी नामक मुसलमान बहादुर ने देश के सम्मान और आत्मगौरव की रक्षार्थ महाराणा के पक्ष में खड़ा होकर अकबर के विरूद्घ युद्घ किया था। महाराणा ने इस देशभक्त को पूरा सम्मान दिया था। इन वीरों ने अपनी वीरता और देशभक्ति का परिचय देते हुए यह स्पष्ट किया कि उनके लिए मजहब से पहले राष्ट्र है, उनकी इस देशभक्ति मां भारती का वंदन।

जोधपुर का राव राठोड़
जोधपुर के दुर्ग का निर्माण राव जोधा ने कराया था। जब राव जोधा इस किले के निर्माण की योजना बना रहे थे तो उन्हें किसी ज्योतिषी ने परामर्श दिया कि यदि आप अपने किले की नींव में किसी व्यक्ति को दफन कर देंगे तो यह किला शताब्दियों तक आपके वंश की कीर्ति को चमकाएगा। राजा ने घोषणा कराई कि जो व्यक्ति इस किले के लिए स्वेच्छा से अपना जीवन दान देगा, उसे पर्याप्त भूमि और धनादि देकर पुरस्कृत किया जाएगा। तब एक व्यक्ति सामने आया, जिसका नाम राजिया भावी था। उसकी पार्थिव देह के ऊपर किले का निर्माण प्रारंभ किया गया।
1544-45 ई. में यहां का शासक मालदेव था। जिसने शेरशाह सूरी के साथ अपनी स्वतंत्रता का युद्घ लड़ा, उसके हजारों सैनिकों ने अपना बलिदान दिया। परंतु राजा मालदेव युद्घ में परास्त हो गये। 1527 ई. में जब राणा संग्रामसिंह को भारत रक्षा युद्घ में अपने लोगों के सहयोग की आवश्यकता अनुभव हुई तो राव जोधा के पौत्र राव वीरमदेव का यहां उस समय शासन था। वह बहुत ही वीर और साहसी हिंदू शासक था। उस योद्घा राव वीरम देव ने अपनी चार हजार की सेना को लेकर राणा सांगा का साथ देने के लिए प्रस्थान किया। इस युद्घ में मेड़ता के रायमल राठौड़ और भक्तिमती मीराबाई के पिता रतन सिंह राठौड़ को वीरगति प्राप्त हो गयी थी। 
(संदर्भ : सल्तनत काल में हिंदू प्रतिरोध) इस प्रकार भारत रक्षा युद्घ में जोधपुर ने भी अपने देशभक्तों की महत्वपूर्ण आहुति डाली थी।

घर वापसी की वह अनुकरणीय क्रांति
हिंदू समाज में ऐसे क्रांतिकारी योद्घाओं की भी कमी नही रही है, जिन्होंने सामाजिक क्रांतियों के बिगुल बजाकर देश सेवा की है। जब सदियों तक देश में धर्मांतरण की प्रक्रिया चलते-चलते हिंदू समाज की भारी क्षति हो चुकी थी तो उस समय हिंदू समाज को अपनी सुदृढ़ स्थिति करने की आवश्यकता अनुभव हुई, यद्यपि हिंदू समाज ‘अपच’ की बीमारी से ग्रसित रहा है और यह अपने समाज  से निकलकर मुस्लिम बने लोगों को सहजता से साथ लेने को तैयार भी नही रह सका है। परंतु इतिहास में वह गौरव क्षण भी आये हैं, जब लोगों ने अपने विवेक और दूरदृष्टि का परिचय दिया है और अपने उन बहन-भाईयों को बड़ी सरलता से गले लगाने का अनुकरणीय कार्य किया है-जो किसी भी कारण से अपने धर्म को छोडक़र मुस्लिम बन गये थे।

क्रांति का नायक था राव लूणकरण भाटी
यह सामाजिक क्रांति 1528-1550 ई. के मध्य की है। जब बाबर, शेरशाह सूरी व हुमायूं के शासन काल में हिंदुओं का भारी संख्या में धर्मांतरण हो रहा था अथवा उनके पूर्ववर्ती मुस्लिम शासकों के द्वारा धर्मांतरण करा दिया गया था। इस क्रांति के प्रणेता बने थे जैसलमेर के भाटी राजा राव लूणकरण भाटी। उनके उस ऐतिहासिक कार्य को धर्मनिरपेक्षता के लुंज-पुंज विचार के पक्षाघात को झेल रहे इतिहासकारों ने प्रकाश में आने ही नही दिया है।
‘जैसलमेर राज्य का इतिहास’ के लेखक श्री मांगीलाल मयंक ने अपनी इस पुस्तक में इस तथ्य का उल्लेख किया है, जिससे स्पष्ट होता है कि राव लूणकरण भाटी को अपने समाज से निकलकर मुसलमान बन गये लोगों को पुन: अपने साथ लाकर हिंदू समाज की शक्ति में वृद्घि करने का कितना ध्यान था? उसने अपने समाज से बिछड़क़र मुस्लिम बन गये हिंदुओं को पुन: हिंदू बनाने की बड़ी अदभुत योजना बनाई। उसने अपने धर्मगुरू हरजाल पालीवाल तथा खेतसी पुरोहित से मिलकर उनके ब्रह्मत्व में एक शुद्घि यज्ञ का आयोजन कराया। जितनी दूर तक और जितने साधनों से लोगों को उस शुद्घि यज्ञ में लाया जा सकता था उतने तक लाया गया। लोगों को अपने धर्म, संस्कृति पूर्वजों के गौरवपूर्ण कृत्यों और देश के गौरवपूर्ण अतीत से परिचित कराया गया। लोगों को बताया गया कि जो लोग इस यज्ञ के माध्यम से पुन: अपने हिंदू धर्म में दीक्षित होना चाहते हैं, वे यज्ञ में भाग लें।
जो लोग मुस्लिम बनकर वहां किसी भी प्रकार की असुविधा का अनुभव कर रहे थे, और इन्हें मुस्लिम धर्म प्रिय नही था, वे लोग दूर-दूर से चलकर इस यज्ञ में सम्मिलित हुए। ऐसे लोग स्वेच्छा से जैसलमेर पहुंचे और उन्होंने यज्ञ जल ग्रहण किया। जैसलमेर की पावन भूमि ने हमारे ज्ञात इतिहास में पहली बार वह कार्य कर दिखाया-जिसकी आवश्यकता यह देश और इस देश का हिंदू समाज लंबे समय से अनुभव कर रहा था। परंतु कुछ लोग इस राष्ट्रीय आवश्यकता को पूर्ण नही होने दे रहे थे।
हिंदू समाज के लिए घातक बने ऐसे लोगों से टक्कर लेने का निर्णय राव लूणकरण भाटी ने लिया जिसमें उसे उसके धर्मगुरू हरजाल पालीवाल और खेतसी पुरोहित का भरपूर सहयोग मिला। सचमुच यह एक साहसिक पहल थी। क्योंकि हिंदुओं की ओर से ऐसी कोई सकारात्मक पहल अब से पूर्व नही की गयी थी। इस पहल का समाज पर अनुकूल प्रभाव पड़ा और जैसे ही लोगों को यह जानकारी मिली कि शुद्घि-यज्ञ का आयोजन कर लोगों की ‘घर वापसी’ करायी जा रही है तो जो लोग हिंदू से मुस्लिम बन चुके थे, उन्होंने इस यज्ञ में बड़ी संख्या में भाग लिया।

घर वापिसी का अनोखा उपाय
बड़ी संख्या को देखकर राव लूणकरण भाटी ने फिर एक सुंदर व्यवस्था दी उसने पुन: साहस किया और बड़ी संख्या की घर वापिसी के लिए किसी लंबी प्रक्रिया में पड़े बिना ही घोषणा की कि यज्ञ स्थल पर उपस्थित धर्मगुरू के द्वारा बजाये जाने वाले शंख की ध्वनि जहां तक जितने लोगों के कानों तक जाएगी वहां तक लोग अपने आप को शुद्घ हुआ मान लें। संपूर्ण हिंदू समाज ऐसे शुद्घ हुए अपने भाईयों को अपने साथ लेकर चलेगा, उनके प्रति किसी प्रकार से भी अलगाव का प्रदर्शन नही करेगा।
राव लूणकरण भाटी का यह कार्य उस समय की परिस्थितियों के दृष्टिगत बहुत ही महत्वपूर्ण था। इसकी जितनी प्रशंसा की जाए, उतनी ही कम है। मुस्लिम इतिहासकारों के लिए तो यह कार्य एक ‘काफिराना’ कार्यवाही थी, परंतु हमारे इतिहासकारों के द्वारा भी राव लूणकरण भाटी की इस सामाजिक क्रांति की साहसिक पहल को उचित रूप से महिमामंडित कर इतिहास में यथोचित स्थान नही दिया गया, यह दुख की बात है। इस सामाजिक क्रांति के माध्यम से ऐसे अनेकों लोगों को अपने ‘घर वापिसी’ का रास्ता मिला जो घर तो लौटना चाहते थे, परंतु घर का द्वार उनके लिए बंद था।
राव लूणकरण भाटी एक सामाजिक क्रांति के प्रणेता थे जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने हेतु सामाजिक क्रांति का बिगुल फूंका और लोगों में सामाजिक चेतना उत्पन्न कर एकता का भाव उत्पन्न किया। हमारी फूट की ज्ञात-अज्ञात कहानियों को खोज-खोजकर हमें अनावश्यक ही धिक्कारते रहने वाले इतिहासकार यह भी देखें कि यहां सामाजिक फूट को भरने के लिए और अपनी शक्ति में वृद्घि करने के लिए प्रयास करने वाले कितने ‘लूणकरण’ जन्मे हैं?

गर्म किवाड़ों के भालों को अपनी छाती में घुसाने वाला कान्हा चौहान
मध्यकाल में अपनी सुरक्षा के लिए बड़े-बड़े किले बनाने और उन किलों की सुरक्षा पर भी विशेष ध्यान देने की परंपरा का तेजी से प्रचलन हुआ। क्योंकि युद्घ और एक दूसरे को समाप्त कर उसके धन व राज्य पर अपना अधिकार स्थापित करना इस काल की विशेषता बन गयी थी। इसलिए लोग किलों के दरवाजों को विशेष रूप से सुदृढ़ बनाते थे-उनके कपाटों (किवाड़ों) को लोहे की कीलों से या भालों की नोकों से इस प्रकार बनाया जाता था कि उनमें हाथी टक्कर मारते थे तो वे कील या भालों की नोंक उनके सिर में घुस जाती थीं। फलस्वरूप हाथी उन दरवाजों को तोडऩे से कई बार भाग खड़े होते थे।
अहमदनगर के किले को भी इसी प्रकार बनाया गया था। उसके द्वार के कपाटों पर सीधे भालों की नोकें लगी थीं, जिन्हें तोडऩा या जिनके तीव्र प्रहार को झेल पाना हाथियों के भी वश की बात नही थी।
महाराणा संग्रामसिंह ने अपने शासन काल में एक बार ईडर राज्य पर आक्रमण किया था। यह घटना 1520 ई. की है। उस समय यहां का हाकिम मलिक हुसैन था, जो निजामुल मुल्क कहलाता था। महाराणा संग्रामसिंह के भय से कांपकर हाकिम मलिक हुसैन अहमदनगर के दुर्ग में जा छिपा। महाराणा ने अहमदनगर के किले के बाहर जाकर घेरा डाल दिया।
महाराणा की सेना में यूं तो एक से बढक़र एक महायोद्घा था, परंतु डूंगर सी चौहान का  विशेष नाम था। वह इस युद्घ में महाराणा  के साथ था। युद्घ में चौहान और उसके भाई व पुत्र सब साथ मिलकर लड़ रहे थे। चौहान युद्घ में गंभीर रूप से घायल हो गया था। जबकि उसके कई भाई व पुत्र युद्घ में वीरगति को प्राप्त हो गये थे।
इसी चौहान का पुत्र कान्हा चौहान भी सेना में राणा के साथ था। कितनी अनुपम वीरता  से भरा इतिहास है हिंदू जाति का, जिसमें एक परिवार के सारे पुरूष एक साथ युद्घ मैदान में हैं, और सबको पता है कि युद्घ में सारे ही मारे जा सकते हैं। परंतु किसी को मरने के बाद की यह चिंता नही है कि तब हमारे परिवार का क्या होगा? यहां तो चिंता अपने सम्मान की है, अपनी स्वतंत्रता की है और अपने वैभव की है? कान्हा चौहान भी वीरता के इस उत्कृष्ट भाव से ही ओतप्रोत था। उसने युद्घ में देख लिया था कि उसका पिता किस प्रकार गंभीर रूप से घायल हो चुका है, और उसके भाई, चाचा आदि परिजन किस प्रकार वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं? परंतु भारत माता के वीरों को वीरगति ही तो सर्वाधिक प्रिय होती है, इसलिए कान्हा चौहान ने वीरगति प्राप्त किये अपने परिजनों को परम सौभाग्यशाली मानकर स्वयं भी उसी मार्ग का अनुकरण करना उचित समझा।

रच दी दाधीच परंपरा
कान्हा चौहान ने देखा कि अहमदनगर के दुर्ग के कपाटों पर नुकीले भाले लगे हैं, और किवाड़ों को भी गर्म कर दिया गया है, जिससे हाथी उन किवाड़ों को तोड़ नही पा रहे हैं। तब ये द्वार कैसे तोड़ा जाए, यही प्रश्न सबके मन मस्तिष्क में कौंध रहा था, और तभी वीर कान्हा चौहान को एक अत्यंत रोमांचकारी उपाय उन द्वारों को तोडऩे का सूझ गया। उसने सभी के हृदयों को कौंधाने के लिए विवश करने वाले प्रश्न का उत्तर स्वयं बनना स्वीकार कर लिया।
बस, फिर क्या था? कान्हा देव ने अपने आपको उन नुकीले भालों के सामने खड़ा कर लिया और महावत से कहा कि हाथी को मेरे शरीर पर टक्कर मारने के लिए वह संकेत करे। हाथी ने अपने महावत के संकेत पर जब कान्हा के शरीर में आकर टक्कर मारी तो सारे उसके शरीर में घुस गये। परंतु संसार से विदा लेने से पहले देश और धर्म के लिए अपनी अस्थियों का बलिदान करने वाले उस महावीर ने देख लिया कि जिसका बलिदान व्यर्थ नही गया है, अपितु दुर्ग का द्वार खुल गया है। यह दधीचि का देश है, और यह ‘दाधीच राष्ट्र’ अपना अस्तित्व इसीलिए बचा सका कि यहां ‘दाधीच परंपरा’ का निर्वाह हर काल में किया गया।
दुर्ग का द्वार टूटने पर राजपूत किले में प्रविष्ट हो गये। यह अलग बात है कि राजपूतों के भय से निजामुल मुल्क पुन: (किले के पिछले द्वार से) भागने में सफल हो गया। परंतु राजपूती सेना ने अपनी वीरता का जिस प्रकार परिचय दिया और उस वीरता को रोमांच की पराकाष्ठा तक वीर कान्हा ने जिस प्रकार पहुंचाया, वह तो विश्व इतिहास का एक रोमांचकारी उदाहरण बन ही गया सही ही तो है-‘मेरी मां शेरों वाली है।’
(संदर्भ : नैणसी री-ख्यात)

कामरान के छक्के छुड़ाने वाला राव खेतसी राठोड़
मुगल बादशाह बाबर के पश्चात उसका साम्राज्य कई भागों में विभक्त हो गया था। उसका एक लडक़ा कामरान था, जिसे अपनी राजधानी लाहौर और काबुल में बना रखी थी। उसने अपने शासनकाल में एक बार राजस्थान की ओर अपने साम्राज्य का विस्तार करने का संकल्प लिया। उसने एक विशाल सेना तैयार की और राजस्थान की ओर चल दिया। उसकी यह भयंकर विशाल सेना भटिण्डा और अबोहर के मध्य से निकली, और बड़ी तेजी से ससीवाल को नष्ट कर भटनेर को जाकर घेरकर बैठ गयी।
कामरान ने खेतसी राठोड़ के पास अपना दूत भेजकर अपने आने का प्रयोजन बताया और उसे यह भी स्पष्ट कर दिया कि जितना शीघ्र हो सके वह कामरान की शरण में चला जाए। इस्लाम स्वीकार कर ले और कामरान को अपना शासक मान ले, अन्यथा गंभीर परिणामों के लिए तैयार रहे।
कामरान के इस प्रकार के प्रस्ताव से खेतसी राठोड़ की भौहें तन गयीं। उसे लगा कि कामरान ने सीधे उसके राष्ट्रीय स्वाभिमान को चुनौती दी है। इसलिए उसने अपने राष्ट्रीय  स्वाभिमान की किसी भी मूल्य पर रक्षा करने का संकल्प लिया। खेतसी ने अपने लोगों के माध्यम से कामरान तक सूचना पहुंचा दी कि राष्ट्रीय स्वाभिमान की रक्षा वह युद्घ के मैदान में करना उचित समझेगा।
इसके पश्चात तुर्कों ने दुर्ग का घेरा डाल दिया। तुर्कों ने खेतसी को झुकाने के लिए भांति-भांति के उपाय करने आरंभ कर दिये। तोपों से भी किले को भारी क्षति पहुंचायी गयी। चारों ओर भयानक जनहानि हो रही थी पर खेतसी था कि झुकने का नाम नही ले रहा था। 
अंत में खेतसी ने किले से बाहर निकलने का निर्णय लिया। उधर तुर्क सेना के सैनिक सीढिय़ां लगाकर भीतर प्रवेश करने में सफल हो रहे थे। तब हिंदू वीरों ने जौहर का निर्णय लिया। केसरिया बाना पहनकर आज अंतिम युद्घ के लिए हमारे सैनिक युद्घ क्षेत्र में कूद पड़े। खेतसी का पितामह रावत कांधल भी एक महायोद्घा रहा था आज अपने पितामह के द्वारा अर्जित यश और कीर्ति का स्मरण कर और उसके सम्मान को बचाने के लिए खेतसी युद्घ क्षेत्र में शत्रुओं पर भूखे शेर की भांति टूट पड़ा।
चारों ओर घमासान युद्घ हो रहा था। कामरान के सैनिकों ने खेतसी को चारों ओर से घेर लिया, उनका मूल उद्देश्य खेतसी को ही समाप्त कर देने का था। खेतसी भी वस्तुस्थिति को समझ चुका था पर जो योद्घा आज केवल मारने या मरने का संकल्प लेकर अपने दुर्ग से बाहर निकला हो उसके लिए ऐसे सैनिकों का इस प्रकार घेराव करना कोई भय उत्पन्न करने वाली घटना नही थी, उसकी तलवार शत्रुओं को गाजर, मूली की तरह काटती जा रही थी। उसका साहस युद्घ क्षेत्र में उसका सबसे बड़ा मित्र बन गया था। इसलिए वह काल बनकर शत्रु का संहार करता जा रहा था। उसकी वीरता उसके सिर चढक़र बोल रही थी। 
चारों ओर युद्घ क्षेत्र में  शव ही शव दिखाई देने लगे। पर अकेला योद्घा अंतत: कब तक विशाल सेना का सामना करता? खेतसी के अन्य अनेकों साथी धीरे-धीरे समाप्त हो रहे थे। उन सबका शौर्य भी देखने योग्य था। खेतसी युद्घ को पावन भूमि में मातृभूमि की रक्षार्थ युद्घ करते-करते धराशायी हो गया।
(संदर्भ नैणसी री ख्यात)

भारत के हीरे मोती
ये थे भारतभूमि के हीरे मोती जो उसने हर काल में उगले है, और जिनके कारण अपने संकटकाल (जिसे पराधीनता का काल कहा जाता है) में भी भारतभूमि वीरों की भूमि बनी रही। खेतसी ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर हमारी पराक्रमी परंपरा को बलवती किया, जिससे स्वतंत्रता के लिए किये जा रहे संघर्ष की परंपरा भी आगे बढ़ी। वंदन है ऐसे वीर का, वास्तव में अपना अतुल बलिदान देकर खेतसी ने अपनी मातृभूमि की रक्षा की। भटनेर (हनुमानगढ़) में खेतसी का नाम आज तक बड़े सम्मान से लिया जाता है।
क्रमश:

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