अमेरिकी सोच में परिवर्तन

आज का अमेरिका पहले वाला अमेरिका नहीं है। एक समय था जब अमेरिका भारत को संदेह की दृष्टि से देखता था और इसका कारण यह था कि वह हमें रूस का पिछलग्गू माना करता था। यद्यपि भारत ने अपनी ओर से अमेरिका को ऐसा विश्वास दिलाने का हरसंभव प्रयास किया था कि वह विश्व की किसी शक्ति का पिछलग्गू नहीं है और अपनी ‘गुटनिरपेक्षता’ की नीति के आधार पर विश्वशांति के लिए कार्य करते रहना चाहता है। परंतु अमेरिका इस पर विश्वास करने को तैयार नहीं होता था।
1976 में अमेरिका ने अपनी स्वाधीनता की 20वीं वर्षगांठ मनाई थी। तब भारत की नेता श्रीमती इंदिरा गांधी थीं। जिन्होंने भारतीय नर्तकों की और हस्तशिल्पियों की एक टोली अमेरिका भेजी थी। उस टीम ने अमेरिका के विभिन्न शहरों में जाकर अपनी कला का प्रदर्शन किया और अमेरिकी जनसामान्य को हृदय से प्रभावित किया। तब भारत के एक दैनिक समाचार पत्र के अमेरिकी संवाददाता एम.वी. कॉमथ ने एक पुस्तक लिखी थी जिसका नाम था-‘अमेरिका 1776-1976।’ यह पुस्तक अमेरिकी  लोगों को बड़ी रास आयी थी। राष्ट्रव्यापी डब्ल्यूटीओपी रेडियो के एक संपादकीय प्रसारणों में उस पुस्तक की बड़ी प्रशंसा की गयी थी।
भारत के ऐसे अनेकों योगी और स्वामी रहे हैं, जिनके अमेरिका में अनेकों शिष्य हैं। शिकागो के स्वामी रामा, कन्नेक्टिकट में इंटीग्रल योग इंस्टिट्यूट के संस्थापक स्वामी सच्चिदानंद, शिवानंद डिवाइन आश्रम के स्वामी विष्णु जिनका मुख्यालय वाल मोरिन (कनाडा) में रहा है और उनकी कैलियोफोर्निया, न्यूयार्क, फ्लोरिडा और पैराडाइस आइलैंड में शाखाएं रही हैं, ऐसे स्वामी और योगियों में प्रमुख रहे हैं। इसके अतिरिक्त अमेरिका में ऐसे लोगों की भी बड़ी संख्या है जो आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद से प्रभावित हैं और स्वामी विवेकानंद के हिंदुत्व के प्रति दिन पर दिन आकर्षित होते जा रहे हैं। एक आंकलन के अनुसार हर तीसरा अमेरिकी ईसामसीह की शिक्षाओं से मुंह फेरकर भारत के आध्यात्मिक दर्शन की ओर खिंचा चला आ रहा है। उसे लगता है कि विश्वशांति का मानव का सपना तभी सफल हो सकता है जब विश्व को भारत की वैदिक संस्कृति का पाठ पढ़ाया जाए। अमेरिका में ‘हरे कृष्ण’ मंडली का प्रचलन इसीलिए बढ़ा है कि वहां के लोग गीता को विश्व समस्याओं के समाधान की एक गारंटी के रूप में देखते और लेते हैं।
इस सबके उपरांत भी अमेरिका भारत से दूरी बनाकर चलता रहा है। उसके शासन की नीतियां भारत विरोधी न होकर भी भारत के हितों के अनुकूल न रहने वाली रही हैं। स्पष्ट है कि उसने भारत से अब तक के अपने संबंधों में पहले पाकिस्तान को लिया है। जिससे ऐसा लगता है कि वाशिंगटन डी.सी. से नई दिल्ली पहुंचने का रास्ता इस्लामाबाद होकर आता है। हर अमेरिकी राष्ट्रपति ने ‘इस्लामाबाद’ के भोजन के स्वाद को ध्यान में रखकर ही नई दिल्ली के आतिथ्य सत्कार को लेने का प्रयास अब तक किया है। अमेरिकी प्रशासन की प्राथमिकता रही है कि पाकिस्तान को भारत के विरूद्घ उकसाया जाता रहे। अमेरिकी प्रशासन की ऐसी नीतियों के चलते भारतीय उपमहाद्वीप में हथियारों की होड़ बढ़ी है। जिससे मानवता के लिए कभी भी कोई अशुभ घड़ी आ सकती है, परंतु अमेरिका ने इस अशुभ घड़ी की चिंता न करते हुए दक्षिण एशिया को युद्घ की विनाशकारी विभीषिकाओं में झोंकने की अपनी ओर से हरसंभव चेष्टा की है।
ऐसी परिस्थितियों में अमेरिका से संबंध बनाकर चलना बड़ा कठिन रहा है। आतंकवाद की वैश्विक समस्या से निपटने में भारत ने अमेरिकी प्रयासों का समर्थन किया है-परंतु अमेरिका उससे भी प्रसन्न नहीं हुआ। अब प्रधानमंत्री मोदी के सत्ता संभालने के पश्चात अमेरिका ने भारत की ओर मन से देखना आरंभ किया है। यद्यपि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ओबामा दो कदम भारत की ओर बढक़र भी पाकिस्तान की ओर भी उतना ही बढऩा भूले नहीं, और अपने परम्परागत मित्र पाकिस्तान की पीठ वह थपथपाते रहे। जिससे अमेरिका-भारत के संबंधों पर पड़ा अविश्वास का कुहासा छटा नहीं। यद्यपि हमें ऐसा लगने लगा था कि हम दोनों एक दूसरे को पहले की अपेक्षा और अधिक गंभीरता से समझने का प्रयास कर रहे हैं।
अब डोनाल्ड ट्रम्प का अमेरिका है। जिसने विश्व शांति के लिए खतरा बने इस्लामिक आतंकवाद को विश्व का सबसे बड़ा शत्रु माना है। डोनाल्ड ने साहस करके यह स्थापित कर दिया है कि आतंकवाद का कोई मजहब होता है। विशेषत: तब जबकि आतंकवाद को कुछ मजहबी देशों की सरकारें और उनके धर्मगुरू अपना खुला समर्थन और संरक्षण दे रहे हैं। ट्रम्प ने ऐसे देशों की सरकारों और धर्मगुरूओं का सत्यापन कार्य आरंभ किया और सत्ता संभालते ही कुछ देशों के नागरिकों के अमेरिका आगमन पर रोक लगा दी। इसके साथ ही ट्रम्प ने भारत की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाया। उन्होंने अमेरिका के प्रथम नागरिक के नाते पहली बार जिस विश्वास के साथ हाथ बढ़ाया है, उससे लगता है कि वह भारत के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं रखते हैं और वर्तमान विश्व में विश्वशांति के लिए वह भारत की भूमिका को अत्यंत उपयोगी और अनिवार्य मानते हैं। भारत ने अपने नेता प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में अमेरिकी प्रशासन के विश्वास का सम्मान किया और उसका उचित लाभ उठाने के संकेत भी दे दिये हैं। भारत की विदेशनीति स्पष्ट और मुखर होकर पाकिस्तान के दोगले चेहरे को विश्व समुदाय के सामने लाने के लिए सचेष्ट हो गयी है।
अमेरिका में रह रहे एक इंजीनियर श्रीनिवास की वहां के एक सिरफिरे ने पिछले दिनों हत्या कर दी थी। जिसे ट्रम्प प्रशासन ने अपनी संसद में श्रीनिवास के सम्मान में एक मिनट का मौन रखकर नस्ली हिंसा माना है। वास्तव में अमेरिकी संसद (कांग्रेस) का यह कार्य भारत को यह विश्वास दिलाने के लिए पर्याप्त है कि अमेरिका अब बदल रहा है और वह भारत के साथ चलने में अपना लाभ और भला दोनों देख रहा है। अमेरिका ने श्रीनिवास को श्रद्घांजलि देकर एक प्रकार से अपना अपराधबोध  प्रकट किया है। निश्चय ही अमेरिकी दृष्टिकोण में आया यह परिवर्तन भविष्य में विश्व के लिए उपयोगी रहेगा-हमें ऐसी आशा करनी चाहिए।

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