पाकिस्तान का मीडिया जगत कभी भी भारत के प्रति ईमानदार नहीं रहा है। उस पर भी पाकिस्तानी कठमुल्लों की भारत विरोधी सोच और वहां के सत्ताधीशों की भारत विरोधी मानसिकता ही हावी रहती है। यही कारण है कि वहां के दैनिक समाचार पत्र भी भारत के विरूद्घ विषवमन करने का ही कार्य करते रहते हैं। जनवरी 2005 में ‘मजल्लाह अद-दावा’ ने भारत के विषय में लिखा था कि ‘भारत एक पागल देश है, सही मायनों में तो यह एक पागल जानवर है और पागल जानवर के लिए सबसे अच्छा ईलाज है-उसे गोली मार देना। भारत को जिहाद के जरिये गोली मारनी चाहिए। वह प्यार की जबान नहीं समझता है। वह एक ही जबान समझता है-जिहाद। भारत को होश में लाने के लिए एक ही तरीका है-उसका गला रेतकर उसमें इतने जख्म कर दो कि उसका सारा खून निचुड़ जाए और वह मर जाए। ‘किताब-ओ-सुन्नत’ के मुजाहिदीन (लश्कर-ए-तैय्यबा) ने दिसंबर 2004 में 224 हिंदू कुत्तों को जहन्नुम का रास्ता दिखा दिया।’
उसी समय जनवरी 2005 में ही ‘गजवा’ की सम्पादकीय टिप्पणी थी कि-‘जिहाद अल्लाह का हुक्म है। यह ‘मारो या मरो’ तक ही सीमित नहीं है। मुसलमानों की राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में उनकी भूमिका ‘जिहाद’ पर ही निर्भर है। जिहाद इतना महत्वपूर्ण हैं कि अमेरिका जैसी महाशक्ति भी अपनी विदेशनीति में इसे विशेष महत्व देती है। अमेरिकी नीतियां जिहाद की प्रतिक्रिया हैं। मुसलमानों को अब अहसास हो गया है कि जिहाद के बिना दुनिया में उनकी कोई इज्जत नहीं होगी। जिहाद हमारा हथियार है, जो हमारी हिफाजत करता है। कुरान में निर्देश दिया गया है कि दुनिया में अल्लाह का कानून लागू करने के लिए हम जिहाद करें। कुरान को तो कोई नकार नहीं सकता। सरकार को भी यह नसीहत मान लेनी चाहिए।’
अब जिस देश की मीडिया अपने देश की सरकार को यह परामर्श देती हो कि तुम जिहाद को अपनी विदेश नीति का एक अंग बना लो और उसी के आधार पर संसार के विनाश की योजना तैयार करो, तो उस देश की सरकार से यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह अपने देश के लोगों की समृद्घि के लिए कोई ठोस कार्य कर पाएगी? पाकिस्तान विश्व के निर्धनतम देशों में से एक है उसके यहां गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा और बेरोजगारी बहुत बड़े स्तर पर हंै। यदि वह इनसे लडऩे के लिए कमर कसे तो उसे भारत के साथ आने में ही दशकों लग जाएंगे। पर यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इस देश के पास अपने नागरिकों की समृद्घि के लिए लडऩे की कोई ठोस कार्य योजना नहीं हैं। उसे तो भारत विरोध की नीतियां बनाने और उन्हें लागू करने में ही आनंद आता है। यही कारण है कि पाकिस्तान ने पहले दिन से ही भारत विरोध की नीतियों को अपनी विदेश नीति का अनिवार्य भाग बना लिया। जिससे इस उपमहाद्वीप में कभी स्थायी शांति नहीं हो पायी और 1947 से लेकर कारगिल तक भारत-पाक के चार युद्घ हो गये हैं। जिससे पता चलता है कि पाकिस्तान के शासक भारत के विरूद्घ केवल युद्घ की ही सोच सकते हैं-इससे अलग उनके पास सोचने को कुछ नहीं है।
अपनी इसी सोच को भारत के विरूद्घ लागू करने के उद्देश्य से पाकिस्तान भारत में अनेकों आतंकी घटनाएं करा चुका है। वह अपनी हर आतंकी घटना के पश्चात उससे यह कहकर मुकर जाता है कि भारत इस घटना में पाकिस्तान के सम्मिलित होने के ठोस प्रमाण दे। जब उसे प्रमाण दिये जाते हैं तो कहता है कि ये प्रमाण तो भारत ने मुझे बदनाम करने के उद्देश्य से झूठे ही गढ़ लिये हैं।
भारत की सरकार को यह समझना चाहिए कि पाकिस्तान की नीतियां भारत को नष्ट करने की हैं, उसकी विदेश नीति में अघोषित रूप से भारत के विरूद्घ जिहादी अवधारणा का भूत छिपा है। जो उसे नष्ट करने के लिए ही तैयार किया गया है। इसलिए भारत सरकार को पाकिस्तान के विरूद्घ संघर्ष की दीर्घकालीन योजना पर कार्य करना चाहिए। जब तक जिहाद की यह अघोषित नीति पाक की विदेशनीति में दिखाई दे-तब तक हमें पाकिस्तान के प्रति सजग रहते हुए आक्रामक रहना ही चाहिए। हमें किसी देश के अस्तित्व को मिटाने की तो नहीं सोचनी है और ना ही किसी संप्रदाय से घृणा करनी है-परंतु जो हमें मिटाने को उद्यत हो उसे मिटाने के लिए तैयार अवश्य रहना होगा।
आतंकी घटना को करने के पश्चात उसमें अपने सम्मिलित होने के प्रमाण मांगने वाले पाकिस्तान की पोल अब वहां के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार महमूद अली दुर्रानी ने ही खोल दी है। उन्होंने दिल्ली में 6 मार्च को हुई ’19वीं एशियन रक्षा कांफ्रेंस’ को संबोधित करते हुए कहा कि मुंबई हमले को पाकिस्तान के आतंकी संगठनों ने ही अंजाम दिया था और यह सीमा पार के आतंकवाद का एक शानदार उदाहरण है। श्री दुर्रानी मुंबई पर हुए आतंकी हमले 2008 के समय पाकिस्तान के एनएसए थे। श्री दुर्रानी के  साहस की प्रशंसा ही की जानी चाहिए। जिन्होंने अपने प्राणों को संकट में डालकर मानवता के हितार्थ पाकिस्तान को यह शिक्षा भी दी है कि वह अपनी भूमि का प्रयोग आतंकी घटनाओं के लिए ना होने दे। उन्होंने आतंकी हाफिज सईद के लिए कहा है कि उसकी कोई आवश्यकता पाक में रखने की नहीं है। पाकिस्तान को उसके विरूद्घ कठोर कानूनी कार्यवाही करनी चाहिए। श्री दुर्रानी की इस स्वीकारोक्ति को इस प्रकार लिया जाना चाहिए कि वह इस क्षेत्र में किसी प्रकार के सामरिक युद्घ के विरोधी हैं और दोनों देशों को अपनी प्रजा के कष्ट क्लेशों को मिटाकर उसे सुखी व समृद्घ बनाने के उपाय करते देखना चाहते हैं। वह जिहाद की अवधारणा को नकारते हैं और यह मानकर चलते हैं कि इसने मुस्लिमों की भुखमरी, अशिक्षा, बेरोजगारी आदि की ज्वलंत समस्याओं का कोई समाधान न देकर विश्व कलह को बढ़ावा दिया है, जिससे पारस्परिक भ्रातृत्व की भावना को विकसित करने में बाधा आयी है। हमें श्री दुर्रानी के प्रति सहानुभूति रखते हुए और उनकी सुरक्षा का विश्वास उन्हें दिलाते हुए उनकी टिप्पणी के अर्थ निकालने चाहिएं। जिससे कि भविष्य में भी कोई ‘दुर्रानी’ न हो सके। पाकिस्तान के पूर्व एनएसए के इस बयान को अब चीन को भी समझना चाहिए जो यूएन में आतंकी देश पाकिस्तान को केवल इसलिए सहायता करता है कि इससे भारत को नीचा दिखाया जा सकता है।

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