भारत में करोड़ों महिलाएं हैं। उधर भारत में लोक कल्याणकारी राज्य भी हैं, धर्मनिरपेक्ष शासक भी हैं, कानून के समक्ष समानता का नागरिकों का मौलिक अधिकार भी है, और जाति, धर्म, लिंग के आधार पर राष्ट के किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव न करने की संवैधानिक व्यवस्था भी है।
इन सबके उपरांत भी देश में मुस्लिम महिलाओं की एक बड़ी जनसंख्या ऐसी है जो संभवत: इस ‘लोक कल्याणकारी’ शासन की और इसके राज्य की नागरिक नहीं है, जिनके लिए भारत का कानून नहीं-अपितु उनका एक निजी कानून लागू होता है। इससे वह तिल-तिल कर मरने को विवश हैं, क्योंकि उसके साथ जाति, धर्म-लिंग के आधार पर भरपूर भेदभाव किया जाता है। जब कोई मुस्लिम महिला बुरके में कैद हुई मेरे सामने से गुजरती है तो मुझे उन लोगों की बुद्घि पर बड़ी दया आती है जो ‘धर्म’ के नाम पर इस बुरके को बनाये रखने की वकालत करते हैं। उन्हें क्या पता कि-वह धर्म, धर्म नहीं होता जो व्यक्ति के जीवन पर पहरे बैठा दे या किसी के जीवन को नारकीय बना दे। वह धर्म भी धर्म नहीं जो सदियों पुरानी परम्पराओं को रूढि़ के रूप में ढोने के लिए लोगों को विवश कर दे। इसी प्रकार वह धर्म भी ‘धर्म’ नहीं है-जिसकी मान्यताएं विज्ञान और प्रकृति के नियमों के विरूद्घ या तो सिद्घ हो चुकी हों अथवा वर्तमान में सिद्घ हो रही हों।
बुद्घिजीवी विचार करें कि क्या महिला बच्चा उत्पन्न करने वाली एक ‘मशीन’ का नाम है जो कि पुरूष की भोग्या है, या पैरों की ‘जूती’ है या भेड़ बकरियों की भांति इस खूंटे से खोलकर उस खूंटे से बंधने वाला पशु है। पीडि़त महिला की पीड़ा को यदि उससे पूछा जाए तो महिला जगत की जो पीड़ात्मक अश्रुधारा बहेगी-उससे संभवत: सागरों का जल भी कम पड़ जाए-इतना पानी बह सकता है। मेरी बात में अतिश्योक्ति हो सकती है-किंतु पीड़ा की उपमा इससे कम होगी, यह कदापि संभव नहीं। मेरी कई मुस्लिम महिलाओं से इस विषय पर बातें हुई हैं। पुरूष के पास ‘तलाक’ का विशेषाधिकार उन्हें चैन से न तो बैठने देता है और न ही सोने देता है। परिणाम स्वरूप वे ना मरने की रहीं और ना ही ससम्मान जीने की रहीं।
‘बहु विवाह’ प्रथा से उपजी सौतन डाह तो उसे जीते जी मार डालती है। कई बार मुस्लिम महिलाएं सौतनों से लड़ती झगड़ती देखी जा सकती हैं। ऊपर से पतिदेव की जूतों से होने वाली पिटाई जो मिलती है-वह अलग से है। ‘हलाला’ नामक दुर्गंधयुक्त परंपरा भी उसे झेलनी पड़ती है, तब जबकि कोई पूर्व पति अपनी तलाकशुदा पत्नी को पुन: पाने की इच्छा रखता हो और इसके लिए वह पत्नी भी इच्छुक हो। ऐसी स्थिति में उसे किसी अन्य पुरूष से निकाह करके उसके साथ तीन दिन और तीन रात बितानी पड़ती हैं। इसके पश्चात वह कुंआरी समझी जाती है और फिर अपने पूर्व पति के पास जा सकती है। इस्लाम की गलत व्याख्या करने वाले कुछ लोगों के अनुसार कुरानी अरबी खुदा की पहली शर्त ही यह है-
‘पूर्वपति द्वारा तलाक शुदा पत्नी को पुन: लेने की शर्त ही यह है कि वह किसी दूसरे पुरूष से निकाह करने के बाद संभोग कराकर आने के बाद ही उसे वापस ले सकता है।’ किसी के टूटे हुए दिल के तार पुन: जुड़े नहीं-इसके लिए मजहब का कितना सुदृढ़ बंधन है, उन दोनों प्रेमियों पर? साथ ही किसी की शुचिता, पवित्रता, पति के प्रति अडिग आस्था और अगाध प्रेम को दुर्गंधित करने का कितना घृणास्पद ढंग है-‘तीन दिन और तीन रात किसी अन्य व्यक्ति से संभोग कराके आने की शर्त।’ दुर्भाग्य से लगभग प्रत्येक विवाहिता मुस्लिम महिला के जीवन में ऐसा ही होता है।
महिलाओं के अस्तित्व का मोल-‘वैश्यावृत्ति’
आज भी ट्रक ड्राइवर और अन्य इसी प्रकार की अनाचारपूर्ण बातों में विश्वास रखने वाले लोग इस धंधे से ही अपनी काम वासना की पूर्ति कर रहे हैं। लंबे राजमार्गों पर जंगलों के एकांत में कोठों पर यह अनाचार खूब फल फूल रहा है।
उन्हें न कानून की परवाह है और न ही किसी लोकलाज का भय है। इन कोठों पर फीस तय करके लड़कियां इन भेडिय़ों के सामने परोस दी जाती हैं। यद्यपि अब यह व्यवस्था कुछ लोगों द्वारा ‘कॉल गर्ल’ तथा क्लबों की अश्लील पार्टियों के माध्यम से भी अपना ली गयी है। देखिये कुछ लोग कुरान का हवाला देकर क्या कहते हैं-‘फिर जिन महिलाओं से तुमने लुत्फ अर्थात मजा उठाया हो तो उनसे जो (धन या फीस) ठहरी थी, उनके हवाले करो, ठहराये पीछे आपस में राजी होकर जो और ठहरा लो तो तुम पर इसमें कुछ गुनाह नहीं। अल्लाह जानकार और हिकमत वाला है।’
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात नारी के सतीत्व की रक्षा होनी चाहिए थी। वह नीलाम न होती। उसे सतीत्व उजडऩे की एवज में मेहर मिलने की व्यवस्था समाप्त होनी चाहिए थी, नारी का कल्याण और सम्मान हमारी सरकारों का आदर्श वाक्य होना चाहिए था। किंतु वोट के लालची भेडिय़ों ने मुस्लिम महिलाओं को पशुओं के समान बाजार में सहज ही नीलाम होने दिया और होने दे रहे हैं। क्रमश:
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)

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