किसी का साहस नहीं होता जो इस पाशविक प्रवृत्ति के विरूद्घ संसद में अपना मुंह खोल सके। जहां नारी (न+आरि=नारि अर्थात जिसका कोई शत्रु न हो) का समाज इतना भारी शत्रु हो कि उसके सतीत्व को, अस्मिता को, खुल्लम खुल्ला नीलाम कर रहा हो, अथवा उसे अपनी हवश और वासना की पूत्र्ति का साधन मात्र मान रहा हो, वहां ‘रमंते तत्र देवता:’ देवो के रमण करने की बात कैसे पूरी होगी? वहां तो राक्षसों का ही वास होगा। 
जिस बचपन की संरक्षिका मां तलाक की भेंट चढ़ गयी उसका यौवन यदि निर्मम हो जाए तो इसमें क्या आश्चर्य है? जिस बचपन ने नारी उत्पीडऩ, अत्याचार और नारी पर हो रहे अनाचार को अपनी आंखों से देखा हो उसके भीतर यदि ये सारी बातें एक संस्कार के रूप में बैठ गयी हैं तो इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं।
जिस बचपन ने घर में मां को व्यभिचार और वासना पूत्र्ति का साधन बनते ही देखा है उसका यौवन यदि इन्हीं बातों में बीत जाए तो इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं होगा। 
मुस्लिम पुरूषों को नहीं पता कि तुम मजहब के नाम पर जिस घृणास्पद ढंग से अपने गृहस्थ में अशांति के पौधे लगा रहे हो उससे तुम्हारी आने वाली संतति की कितनी क्षति हो रही है? मजहब यदि वास्तव में ही धर्म है तो धर्म के विषय में यह भी सत्य है कि-वह ऐसी किसी भी असमानता को बढ़ावा नहीं देता जिससे नारी किन्हीं विशेष अधिकारों से हीन कर दी जाए, अथवा उसे पैरों की जूती या व्यक्ति की भोग्या जाना जाए, क्योंकि धर्म कभी भी उत्पीडऩ, व्यभिचार और अनाचार को बढ़ावा नहीं देता।
धर्म सदा सृष्टि नियमों के अनुकूल रहता है और सृष्टि नियम सदा धर्म के अनुकूल रहते हैं। सृष्टि में नारी को समानता का अधिकार है। सृष्टिक्रम को आगे बढ़ाने में उसका भारी योगदान है। उसके चिंतन का प्रभाव बच्चे पर गर्भ में भी पड़ता है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार बीज पर पृथ्वी के गर्भ में रहते हुए मिट्टी का प्रभाव पड़ता है। इसलिए नारी को अधिकारविहीन करना ईश्वर के नियमों में हस्तक्षेप करना है। किंतु इस्लाम को यह बात समझाये कौन? नारी को ईश्वर ने समानाधिकारों के साथ उत्पन्न किया है। इसलिए उसकी प्रतिभा और विकास पर किसी भी प्रकार का पहरा बैठाना अनुचित है।

मुगलवंश का प्रभाव
साम्यवादी इतिहासकारों ने भारत में मुगलवंश के शासकों का बड़ा गुणगान किया है। ये मुगलवंशी शासक वे शासक थे-जिनके हरम में हजारों हिंदू कन्याएं और सुंदर युवतियां कथित बेगम के रूप में नारकीय जीवन व्यतीत करती थीं। मुगल शासक तो अपनी वासनापूर्ति करने के लिए इनमें से किसी भी स्त्री के पास जाने के लिए स्वतंत्र थे, किंतु इन दासी बनी स्त्रियों की स्थिति बड़ी करूणाजनक थी। उनका यौवन वासना की धधकती आग में जलने के लिए विवश था।
बादशाह को एक दिन पाने के लिए उन्हें महीनों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। न्यूनाधिक कई धनाढ्य मुसलमान आज भी ऐसा ही कर रहे हैं। कई-कई बीवियां और रखैल रखना उनके लिए आज भी एक सामान्य सी बात है। चौदहवीं सदी की पाशविकता इस प्रकार आज भी मुस्लिम परिवारों में देखी जा सकती है। आज के वैज्ञानिक युग में भी इस्लाम मजहब की मान्यताएं तंग दीवारों के भीतर कैद हैं, यह खेद की बात है।
खुली हवाओं के झोंके न तो इस्लाम आने देना चाहता है और न ही उसकी धर्म पुस्तक (कुरान) इसकी आज्ञा देती है। अत: तर्क विज्ञान से इस्लाम की समानता करना नितांत अतार्किक है। वीर्य नाश को इस्लाम में बुरा नहीं माना जाता। न ही उसे जीवन शक्ति का स्रोत समझा जाता है। मरने पर भी वहां हूरों, गिलमों, लौंडियों, रखैलों और औरतों के हसीन सपने दिखाये गये हैं। संसार में रहकर कीचड़ में डालने के सपने उसे कथित जन्नत में भी दिखाये जाते हैं। जहां केवल शीलहरण हो, व्यभिचार हो, और वासनापूर्ति का सारा सामान रखा हो, शराब का महत्व जहां हो, जो आत्मा का पतन कराती है और व्यक्ति को मानवता से गिराती है। मध्यकालीन इतिहास में मुस्लिम मुगल बादशाह यदि इस कीचड़ में फंसे और पड़े रहे तो आज का शिक्षित मुस्लिम वर्ग इसी प्रकार की कीचड़ में क्यों फंसा रहना चाहता है? आज तोडऩा होगा उस परम्परा को और उस मजबूत रस्सी और तंग दीवार को, जो मजहब के नाम पर उसके चारों ओर कसी पड़ी है और मजहबी दीवार बनकर खड़ी है। आज उसे बीवियों को खेती मानने की पुरानी परम्परा को त्यागना चाहिए।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)

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