भारत में राज्य और मुस्लिम महिलाएं-3

माता निर्माता भवति
नारी के प्रति वैदिक आदर्श है ‘माता निर्माता भवति’ अर्थात माता हमारी निर्माता होती है। हमारे भीतर जो संस्कार होते हैं उन पर माता का बड़ा भारी गहरा प्रभाव होता है। अत: नारी समाज को पहले उत्पन्न करती है फिर उसका निर्माण करती है अर्थात उसे उसी प्रकार एक सही सांचे में ढालने का प्रयास करती है जिस प्रकार एक कुम्हार अपने बर्तन को सही स्वरूप देने के लिए उसे सांचें में ढालने का कार्य करता है। मां एक संस्था है, एक विश्वविद्यालय है, जहां सर्वप्रथम मानव का निर्माण होता है। संसार के महापुरूषों की जीवनी पढऩे से इस तथ्य पर से पर्दा उठ जाएगा कि उनके निर्माण में उनकी मां का कितना महत्वपूर्ण योगदान रहा था। यहां तक कि संसार के अधिकांश क्रूर व्यक्तियों के निर्माण में भी कहीं न कहीं मां का क्रूर व्यवहार ही छिपा हुआ है। इसलिए मां दिव्य शक्ति संपन्न होती है। उसे तो सही अर्थों में ईश्वर ने विशेष अधिकारों के साथ उत्पन्न किया है। जहां मां का पूर्ण सम्मान होगा वहां राम-कृष्ण और इन जैसी अन्य दिव्य संतानें विचरेंगी ही।
दिव्य संतति की उत्पत्ति ही देवताओं का विचरण करना है। इसलिए यदि नारी की पूजा होगी, उसके गुणों का सम्मान होगा तो उत्तम संतान देवरूप में हमारे घर-आंगनों में विचरेगी। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ का यही अभिप्राय है। भारत की संस्कृति के इस तथ्य को विश्व के सभी मजहबों को स्वीकार करना चाहिए।
राजनीतिज्ञों को कौन समझाएगा?
राजनीतिज्ञों को देश की स्वतंत्रता के पश्चात भारत के मुस्लिम समाज के उन लेखकों, चिंतकों और विचारशील लोगों को प्रोत्साहित करना चाहिए था जो इस्लाम और विज्ञान तथा मजहब और धर्म में समन्वय स्थापित करना चाहते हैं, अथवा मजहब में व्याप्त रूढिय़ों को तोडऩा चाहते हैं, धर्म तो एक प्रवाहमान जल है, जो कभी रूककर खड़ा नहीं होता है। उसमें पायी जाने वाली निरंतरता ही उसे पवित्र रखती है। जब-जब उसमें ठहराव की स्थिति आती है तो उसका स्वरूप गंदला हो जाता है। जिसका परिष्कार आवश्यक है। 
यदि परिष्कार नहीं होगा तो धर्म मजहब (संप्रदाय) बनकर सडऩे गलने लगेगा और समाज का परिवेश दृषित हो जाएगा। इस्लाम के साथ भी यही हुआ है, इसलिए उसे नहीं पता कि किसी सभ्य समाज को आप चौदह सौ वर्ष पुरानी परम्पराओं से बांधकर नहीं रख सकते। हर आने वाली पीढ़ी भी पिछली से टकराती है-कुछ पुरानी परम्पराओं को लेकर कुछ पुरानी मान्यताओं को लेकर।
जो पीढ़ी पुरानी परम्पराओं को सहज छोड़ देती है और विज्ञान के साथ तथा सृष्टिï नियमों के साथ सहज ही अपनी पटरी बिठा लेती है वही संसार में ‘सभ्य और प्रगतिशील’ कहलाती है। दूसरी ओर जो पीढ़ी सृष्टिï नियमों के प्रतिकूल और विज्ञान के नियमों के प्रतिकूल मजहबी परम्पराओं को गले में लटकाकर घूमती रहती है, वह विकास की गति में पिछड़ जाती है। धर्म सदा इसीलिए स्वीकार्य और मान्य होता है कि वह सृष्टिï नियमों के अनुकूल चलता है और विज्ञान से उसका गहरा संबंध होता है। धर्म की परम्पराएं करोड़ों वर्ष पुरानी होकर भी इसीलिए स्वीकार्य होती हैं कि वे सृष्टिï नियमों और विज्ञान के अनुकूल होती हैं। जबकि संप्रदाय या मजहब की कई मान्यताएं  सृष्टिï नियमों और विज्ञान के विरूद्घ होने के कारण समय-समय पर बदलाव चाहती हैं।
वोटों के लालची हमारे राजनीतिज्ञों ने इस सत्य और तथ्य की उपेक्षा की। जिसका परिणाम यह हुआ कि इस्लाम शिक्षा और विज्ञान में पिछड़ गया है। वह आज भी ‘इस्लामी मदरसे’ तैयार कर रहा है। इसलिए राजनीतिज्ञों के षडय़ंत्र का शिकार बनी नारी इस्लाम में आज भी नारकीय जीवन व्यतीत कर रही है।
‘शाहबानो-प्रकरण’ में हमारे राजनीतिज्ञों ने जो आचरण किया था वह निराशाजनक था। शाहबानो के प्रकरण से करोड़ों मुस्लिम महिलाओं की आवाज जुड़ी हुई थी। जिसकी मुस्लिम वोटों के लालची राजनीतिज्ञों ने उपेक्षा की। इनके साथ जन्म-जन्मांतरों तक शाहबानो का अभिशाप रहेगा। हमें शाहबानो के प्रकरण में संवैधानिक उपायों से और मानवीय आधार पर शाहबानो का समर्थन करना चाहिए था। यदि हम ऐसा करते तो निश्चय ही एक शाहबानो के साथ अनेकों शाहबानो का कल्याण हो जाता। जब तक ‘शाहबानो’ यह न्याय चलता रहेगा तब-तक इस समाज को सभ्य समाज नहीं कहा जा सकता।
शाहबानो का भूत हमें जन्म -जन्मांतरों तक सालेगा कि भारत की राजनीति समाज को सही समय पर दिशा देने में चूक कर जाती है। राष्ट्र की दिशा के सही मोड़ के अवसर को चूककर हमारे राजनीतिज्ञों ने देश की मुस्लिम महिलाओं के साथ तो खिलवाड़ किया ही है साथ ही देश में दोहरी विधिक व्यवस्था को प्राथमिकता देकर देश की एकता और अखण्डता के साथ भी खिलवाड़ किया है। दोहरी विधिक व्यवस्था और शाहबानो प्रकरण में सरकारी दृष्टिïकोण सीधे-सीधे षडय़ंत्रपूर्ण राष्ट्रघात का अपराध था, जिसका दण्ड हमारे राजनीतिज्ञों को मिलेगा।
जब तक शासक सुधारक रहता है तब तक क्रांति की आवश्यकता नहीं होती। किंतु जब क्रांति का भी दमन होने लगता है। (यथा वैचारिक क्रांति के लिए विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को समाप्त कर देना) तो क्रांति युद्घ में परिवर्तित हो जाया करती है।

(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
पुस्तक प्राप्ति का स्थान-अमर स्वामी प्रकाशन 1058 विवेकानंद नगर गाजियाबाद मो. 9910336715

Comment: