भारत ने नारी को आगे बढऩे का अवसर इसी लिए दिया कि वेद के राष्ट्रगान में ही उसे आगे बढऩे की पूरी छूट दे दी गयी थी। अत: भारत पर यह आरोप लगाना मिथ्या और भ्रामक है कि यहां कभी नारी का सम्मान नहीं किया गया। हमारी संस्कृति में नारी सम्माननीया है, जहां उसे सम्माननीया नहीं माना गया वहां हमारी संस्कृति न होकर हमारी विकृति है, और विकृति कभी भी किसी भी राष्ट्र की मुख्यधारा नहीं मानी जा सकती।
कितने ही राज्यों के राजा जब स्वर्ग सिधार गये तो राजकुमार के अल्पवयस्क होने की स्थिति में या राजा को कोई संतान न होने की स्थिति में अनेकों ‘रानी झांसी’ राष्ट्र संचालन के लिए सामने आयीं और उन्होंने बड़ी वीरता से राष्ट्र संचालन करके दिखाया। इस्लाम में हमें ऐसे उदाहरण नहीं के बराबर मिलते हैं, कारण कि उन्होंने नारी को पर्दे की कैद में बंद करके उसे पीछे हवालात में डाल दिया और गद्दी पर नवाब या बादशाह के अनेकों उत्तराधिकारी तलवारें भांज-भांजकर लड़ते रहे और कटते रहे। इस मारकाट में जो जीता वही ‘मुकद्दर का सिकंदर’ कहलाया। हमारे यहां इस प्रकार ‘मुकद्दर का सिकंदर’ नहीं बना जाता, हमारे यहां तो मां के दूध से और मां की गोद से राष्ट्र के भावी नेता का निर्माण होता है। मां उसे अपने दूध की सौगंध देती है कि-‘वत्स आततायी के विरूद्घ तलवार उठाना स्वयं आततायी मत बनना। यदि तू स्वयं आततायी सिकंदर बना तो समझ लेना मेरे दूध को लजा देगा।’ जहां ऐसी मांएं होती हैं-वह राष्ट्र उत्तम राष्ट्र बनता है-विश्वगुरू बनता है। ऐसी माताओं को वेद राष्ट्र की आधार बनाता है, मानता है। उसका मानना है कि जैसी जड़ होगी-वैसे ही फल लगेंगे। कीकर की जड़ पर आम के फल नहीं लगा करते। यदि आप आम चाहते हो तो पहले जड़ आम की बनाओ। यदि उत्तम राष्ट्र चाहते हो तो उत्तम राष्ट्र के लिए फल देने वाली मां को पहले उत्तम बनाओ और वह उत्तम तभी बन सकती है-जब उसकी प्रतिभा का चतुर्दिक सम्मान किया जाना आरंभ होगा।
 संसार के लोगों ने नारी का इतनी उत्तमता से कहीं भी सम्मान नहीं किया है-जितना वेद के इस राष्ट्रगान में वेद ने किया है। आज भारत मेें नारी केवल इसलिए असुरक्षित है कि भारत वेद विमुख आचरण कर रहा है। ‘जब गुरू अपने शिष्यों से बीड़ी मांगकर पीने लगता है तो समझ लेना चाहिए कि गुरू के दिन अच्छे नहीं रहे। आज भारत अपने शिष्य पश्चिम से बीड़ी मांगकर पी रहा है और नारी को विज्ञापन की वस्तु बनाकर उसके राष्ट्र निर्माण में योगदान की संभावनाओं का उपहास उड़ा रहा है-परिणाम सामने हैं कि भारत अपनी आभा को दागदार बना रहा है।’
बलवान सभ्य योद्घा यजमान पुत्र होवें
राष्ट्र का अगला आवश्यक और नियामक तत्व है-‘बलवान सभ्य योद्घा और यजमान पुत्रों का होना।’ जिस देश की युवा पीढ़ी निर्बल, तेजहीन, असभ्य, और यज्ञादि शुभ कार्यों से मुंह फेरने वाली पापाचारिणी हो जाती है-वह देश कभी भी एक सुसभ्य और सुसंस्कृत समाज राष्ट्र का निर्माण नहीं कर पाता है। इसलिए यह वेदमंत्र कह रहा है कि-‘जिष्णू रथेष्ठा सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायताम्’ अर्थात राष्ट्र में जयशील, रथारूढ़, सभ्य, सभा संचालन करने में प्रवीण अथवा कुशल, युवावीर संतान उत्पन्न हो।
शत्रु हमारे लिए किसी भी प्रकार से अमंगल न कर सकें और हमारा राष्ट्र सदा उनसे सुरक्षित रह सके, इसके लिए जयशील युवाओं का होना आवश्यक माना गया है। जयशील युवा ही राष्ट्ररक्षक हो सकते हैं। सभ्य का अभिप्राय है कि सभा के योग्य होना। सभा विद्वानों की ही हुआ करती है, जिसका उठना-बैठना, और संचालनादि सब कुछ मर्यादित और अनुशासित होता है। मूर्खों के सम्मेलन को सभा नहीं कहा जा सकता है। यह वैसे ही असंभव है जैसे कुत्तों की बारात नहीं जा सकती। मूर्ख लोग बैठक कर ही नहीं सकते, यदि वह कहीं बैठ भी जाएंगे तो बिना किसी तर्क-संगत निष्कर्ष पर पहुंचे वे जूतम पैजार करके ही उठ जाएंगे। जिससे पता चलता है कि मूर्ख लोग सभ्य अर्थात सभा के योग्य नहीं होते।
सभा संचालन कार्य भी हर किसी के वश की बात नहीं है। सभा संचालक को हर व्यक्ति का सम्मान करना होता है और सभा में व्यवस्था बनाये रखने के लिए यह आवश्यक भी है। सभा की गरिमा तब और भी अधिक बढ़ जाती है-जब सभा संचालक अपनी परिष्कृत वाणी से सबका यथोचित सम्मान करता है। हमारे युवा सुसंस्कृत और सुसभ्य हों और अपने श्रेष्ठतम कार्यों अर्थात यज्ञादि के प्रति गहन श्रद्घा रखते हों। यज्ञादि के प्रति उनकी निष्ठा परिवेश को नि:स्वार्थ और पारमार्थिक बनाती है।
 यजमान होने का अभिप्राय है कि प्रभु की ओर से चल रहे इस वैश्विक यज्ञ में वह युवा अपनी भूमिका निर्वाह के लिए तैयार है और प्रभु के कार्यों को आगे बढ़ाना चाहता है। ऐसे युवा लोककल्याण और सर्वमंगल की भावना से प्रेरित होते हैं। उनका जीवन राष्ट्र के उत्थान व उद्घार के लिए समर्पित हो जाता है। मानो यज्ञमान बनकर वह सेवा, समर्पण, त्याग और मानवता के उच्च भावों से भर जाते हैं।
इच्छानुसार बरसें पर्जन्य ताप धोवें
संसार में सुखशांति और समृद्घि के लिए बादलों का समय पर बरसना बड़ा आवश्यक है। हमारा किसान आठ माह बारिश के बिना रह सकता है। परंतु ज्येष्ठ के अंतिम दिनों के आते-आते वह वर्षा की प्रतीक्षा करने लगता है। आषाढ़ का माह यदि बिना वर्षा के निकल जाए तो किसान अत्यंत व्यग्र हो उठता है। उसे ऐसा लगने लगता है कि जैसे अब जीवन बहुत बोझिल हो जाएगा और वर्षभर अत्यंत कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। एक प्रकार से देश का सारा का सारा जनसमुदाय उन दिनों में बिना वर्षा के तीव्र व्याकुलता की अनुभूति करने लगता है। वेद एकमात्र ऐसा धर्मग्रंथ है जो किसी भी देश के नागरिकों की इस व्याकुलता को न केवल समझता है, अपितु उस व्याकुलता से मुक्ति पाने का उपाय भी बताता है। यही कारण है कि वेद ने अपनी राष्ट्रीय प्रार्थना में समय पर वर्षा करने वाले बादलों को भी राष्ट्र का एक आवश्यक अंग स्वीकार किया है। वेद कहता है कि बादल ऐसे हों जो हमारी इच्छानुसार वर्षा करने वाले हों। जब चाहें-जितना चाहें, हम उतना पानी मेघों से ले लें। वेद ऐसे कह रहा है-जैसे हम मटके के पास जायें और उससे जितना चाहें उतना पानी ले लें।
वेद कहता है कि मानो कि उसकी बात में बल है, उसकी बात का अर्थ है। वेद की कोई भी बात निरर्थक नहीं हो सकती। अत: पर्जन्य इच्छानुसार वर्षें, जब वेद यह कहता है तो उसकी बात में यहां भी सार्थकता है। जब व्यक्ति यज्ञादि में रूचि रखता है और पर्यावरण संतुलन को बनाये रखने की अपनी ओर से पूरी चेष्टा करता है-तब पर्जन्य वर्षा करने में उसकी इच्छा का पालन करते हैं।
पर्जन्य ताप धोने का अर्थ है कि पर्जन्य समय पर वर्षा करके हमारे तापों को अर्थात दु:खों को धोने वाले हों। इसके लिए हमारी पूरी जीवनचर्या और जीवन-व्यवस्था प्रकृति के अनुकूल चलने वाली होनी भी अपेक्षित है। यदि प्रकृति के अनुकूल हम नहीं चलेंगे और उसके अनुकूल नहीं वर्तेंगे तो प्रकृति हमसे रूष्ट हो जाएगी और तब पर्जन्य भी इच्छानुसार नहीं बरसेंगे। अत: यदि हम पृथ्वी पर हरियाली और समृद्घि चाहते हैं तो उसके लिए आवश्यक है कि बादलों को यज्ञ की हविषा के माध्यम से अपना मित्र बना लें। भारत में वेद मंत्रों से वर्षा कराने वाले अनेकों ऋषि हुए हैं। उनका वह प्रयास वैसा ही था-जैसे हमने ऊपर कहा है कि मटके के पास जाओ और जितना चाहो उतना पानी उससे ले लो। उनकी यह यज्ञीय भावना बहुत ही प्रशंसनीय रही है।
क्रमश: 

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