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आतंकवाद

धर्मगुरुओं के बिगड़े बोल और उनके परिणाम

कमलेश पांडे

लोकतांत्रिक परिस्थितियों वश हमारे धर्मगुरुओं और राजनेताओं के द्वारा वक्त-वक्त पर जो विवादित बोल बोले जा रहे हैं, उससे इतिहास में मिलावट का खतरा बढ़ा है, जो एक खतरनाक प्रवृत्ति है। इससे इतिहास की वस्तुनिष्ठता प्रभावित होती है और लोक श्रुत इतिहास की मान्यता प्रदूषित होती चली जाती है। यदि सदियों से चला आ रहा यह सिलसिला अब भी नहीं थमा और आगे तक यूं ही जारी रहा तो भविष्य में प्रायोजित ऐतिहासिक विकृतियों को पहचाना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए समय रहते ही सावधानी बरतने की आवश्यकता है।

ऐसे में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली को सतर्क हो जाना चाहिए और उसके विशेषज्ञों द्वारा अविलम्ब एक मानक विषयगत टिप्पणी तत्काल जारी करनी चाहिए, ताकि इतिहास में मिलावट की कोशिशें थमे। साथ ही प्रेस व मीडिया माध्यमों के लिए भी यह अनिवार्य किया जाना चाहिए कि वो अपनी खबरों में बॉक्स के रूप में संस्थागत टिप्पणी को यथोचित स्थान दें। अन्यथा तर्क-वितर्क-कुतर्क से जो जातीय अथवा साम्प्रदायिक वैमनस्यता बढ़ेगी, वह किसी भी धर्मनिरपेक्ष मुल्क के वैचारिक जनस्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होगा। इसलिए समय रहते ही इस आलेख के माध्यम से मैं सबको आगाह कर रहा हूँ।

ऐसा इसलिए कि जब किसी रणनीति के तहत शोध कर रहे सम्प्रदाय विशेष के छात्रगण अपने-अपने शोधपत्र में मीडिया संदर्भ का हवाला देंगे और सबूतों के तौर पर विभिन्न दौर के समाचार पत्रों की क्लिपिंग्स या वीडियो बाइट्स को बतौर साक्ष्य प्रस्तुत करेंगे, तो उनके गाइड भी उसे खारिज नहीं कर पाएंगे और इस तरह से विश्वविद्यालयों के शोध रिकॉर्ड में ये बातें दर्ज होकर स्थान पा लेंगी, जिनके सुनियोजित दुरूपयोग के अपने खतरे होंगे।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि भारतीय इतिहास मिलावटों से भरा पड़ा है। जनश्रुति भी उससे अछूती नहीं बची है। कतिपय लोकगाथाओं में भी बनावटी मिश्रण मौजूद हैं। कतिपय किताब और जातीय-धार्मिक स्मारिकाएं वैचारिक प्रदूषणों का पुलिंदा बनती जा रही हैं। इसलिए राष्ट्रवादी बाजपेयी-मोदी सरकार ने इतिहास-पुनर्लेखन की कोशिशों को बढ़ावा दिया। लेकिन उसके समानांतर अब जो नया-नया धार्मिक, जातीय या क्षेत्रीय इतिहास गढ़ने की कवायद जोर पकड़ रही है और उससे जुड़े अटपटे प्रसंगों को जहां-तहां छेड़ने की जो परंपरा जाति-सम्प्रदाय विशेष के बुद्धिजीवियों यानी धर्मगुरुओं, राजनेताओं और समाजसेवियों ने शुरू की है, उसका मानक स्वरूप क्या है, अतीत से लेकर वर्तमान तक प्रयुक्त विभिन्न साहित्यिक शब्दों के धार्मिक-साहित्यिक अनुप्रयोगों के शब्दार्थ, भावार्थ और निहितार्थ क्या हैं, यह स्पष्ट करना चाहिए।

अन्यथा गिरगिट की तरह ‘नीला’, ‘भगवा’ व ‘हरा रंग’ बदलने में माहिर राजनेता स्वामी प्रसाद मौर्य व उन जैसे लोगों द्वारा गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस के कुछ चौपाइयों की, की जा रही भड़काऊ व्याख्या और जमीयत उलेमा-ए-हिन्द के रामलीला मैदान, नई दिल्ली अधिवेशन के अंतिम दिन मौलाना अरशद मदनी द्वारा प्रस्तुत किया गया धार्मिक समन्वयात्मक तर्क से बेतुकी बहस को ज्यादा बढ़ावा मिलेगा, जिससे मानवीय गोलबंदी तो मजबूत होगी, पर उससे किसी का भला नहीं होगा, क्योंकि ये भावनात्मक मुद्दे हैं, जो जनता का ध्यान उनके मूल मुद्दे से भटकाने के लिए सुनियोजित रूप से दिए या दिलवाए जाते हैं। इस प्रकार ये ज्ञान परक बातें कम और वैचारिक हथियार ज्यादा प्रतीत होते हैं।

देखा जाए तो रामलीला मैदान, दिल्ली के अधिवेशन में मौलाना अरशद मदनी द्वारा देश में बहुसंख्यक समाज के पूर्वज को हिन्दू नहीं बल्कि मनु यानी आदम बताना और उनकी पत्नी हेमवती यानी हव्वा करार देना और फिर उनको ओम यानी अल्लाह की इबादत करने वाला ठहराना, अब तक कि एक ऐसी नायाब कोशिश है, जिसके सकारात्मक असर कम और नकारात्मक असर अधिक दृष्टिगोचर होंगे। क्योंकि अधिवेशन मंच से ही उनकी मुखालफत अन्य धर्मगुरुओं ने शुरू कर दी।

बता दें कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के घरवापसी यानी हिन्दू से मुसलमान बनी कौम को फिर से हिन्दू बनाने के आह्वान सम्बन्धी बयान पर जब मौलाना अरशद मदनी ने यह कहा कि “ओम व अल्लाह और मनु व आदम एक ही हैं। इस्लाम भारत के लिए कोई नया मजहब नहीं है, बल्कि अल्लाह ने आदम यानी मनु को यहीं उतारा। उनकी पत्नी हव्वा को भी यहीं उतारा, जिन्हें हिन्दू हमवती कहते हैं और वे सारे नबियों, मुसलमानों, हिंदुओं, ईसाइयों के पूर्वज हैं”, तो उनके इस बयान के विरोध में अधिवेशन में पहुंचे अन्य धर्मों के धर्मगुरु मंच छोड़कर चले गए।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि मदनी के सवालों में दम है। उनके द्वारा यह सवाल करना कि “जब कोई नहीं था, न श्रीराम थे, न ब्रह्मा थे और न शिव थे, तो मनु पूजते किसको थे। कोई कहता है कि शिव को पूजते थे, कुछ लोग ये बताते हैं कि मनु ओम (ॐ) को पूजते थे। ओम कौन हैं? बहुत से लोगों ने कहा कि उनका कोई रूप-रंग नहीं है। वो हर जगह हैं। इन्हीं को तो हम अल्लाह कहते हैं और आप ईश्वर। पारसी खुदा कहते हैं और ईसाई गॉड”, एक जायज सवाल है, लेकिन उनके तर्कों में दम नहीं है। क्योंकि उन्होंने अपनी टिप्पणियों से अल्लाह को ओम के समतुल्य स्थापित करने की कोशिश की है, जो हिन्दू या जैन आदि कतई स्वीकार नहीं करेंगे।

यह ठीक है कि मौलाना अरशद मदनी के विचार धर्मनिरपेक्ष और तर्कसम्मत नजरिए से गलत नहीं है, क्योंकि सबको अपनी बात बोलने की आजादी देता है। लेकिन मदनी के विवादित बयान पर विश्व हिंदू परिषद की टिप्पणी भी काबिलेगौर है। वह यह कि मदनी की टिप्पणी ने उनकी ‘वास्तविक’ मानसिकता को उजागर कर दिया है।

इससे एक कदम आगे बढ़कर जैन संत आचार्य लोकेश मुनि द्वारा यह कहना कि भगवान ऋषभदेव पहले तीर्थंकर थे, जिनके पुत्र भरत के नाम पर भारत देश का नाम पड़ा है, भारतीय सभ्यता व संस्कृति की पृष्ठभूमि में खास मायने रखता है। उन्होंने साफ कहा कि हम केवल सद्भाव में रहने के लिए सहमत हैं, लेकिन ओम, अल्लाह और मनु के बारे में उनकी कहानियां गलत हैं। उन्होंने शास्त्रार्थ के लिए मदनी को आमंत्रित करते हुए अधिवेशन से चला जाना उचित समझा और उनके साथ अन्य धर्मगुरुओं ने भी मंच छोड़ दिया। उन्होंने यहां तक आरोप लगाया कि मदनी ने सत्र का माहौल पूरी तरह से खराब कर दिया है। आपको पता होना चाहिए कि मौलाना अरशद मदनी अपने प्रगतिशील बयानों से मुसलमानों का ‘मोहन भागवत’ बनने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं।

सच कहूं तो उपर्युक्त प्रसंग सिर्फ एक बानगी भर है। जबकि भारतीय राज्यसत्ता पर काबिज होने या फिर उस पर बने रहने के लिए विभिन्न धर्मगुरुओं, राजनेताओं और संगठन प्रमुखों द्वारा तरह-तरह की उलटबांसियों को आये दिन भारतीय समाज में परोसा जा रहा है, जिससे यहां की प्राचीन सभ्यता व संस्कृति में मिलावट का खतरा बढ़ा है। इससे सामाजिक समरसता पर आघात पहुंचेगा। जिसके दृष्टिगत भारतीय कार्यपालिका, न्यायपालिका और स्वायत्तशासी संगठनों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है, क्योंकि जनतांत्रिक मूल्य और पंथनिरपेक्षता इनके लिए भी महत्वपूर्ण है। हालांकि, इन्हें भी भलीभांति यह समझना होगा कि ये लोकतांत्रिक मूल्य भी तभी महफूज रह पाएंगे जबकि विषयगत वस्तुनिष्ठता के साथ छेड़छाड़ नहीं हो और यदि हो भी तो उसे समय रहते ही स्पष्ट कर दिया जाए, ताकि लोगों में किसी तरह की भ्रांति न बढ़े, न रहे।

यह ठीक है कि समकालीन परिवेश में लोकतांत्रिक सियासी परशेप्शन गढ़ने का प्रचलन बढ़ा है, जिससे जाति-धर्म-भाषा-क्षेत्र भी अछूता नहीं बच पा रहा है। क्योंकि सूचना क्रांति और सोशल मीडिया माध्यम से कोई भी बात देश-दुनिया तक पहुंचाना आसान हो चला है, जिसने सूचना युद्ध का रूप अख्तियार कर लिया है, जिससे सभी प्रभावित हो रहे हैं। निर्विवाद रूप से पक्ष-विपक्ष की राजनीति भी इससे प्रोत्साहित और गहरे तक प्रभावित हो रही है।

ऐसे में मानव मन भी परस्पर कभी कुंठित तो कभी आक्रोशित हो जाता है, जिससे सामाजिक व साम्प्रदायिक अशांति का आसन्न खतरा बढ़ता जा रहा है। इसलिए जिम्मेदार संवैधानिक संस्थाओं और विषयगत विशेषज्ञता रखने वाली संस्थाओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वो अपने स्तर से समय रहते ही इतिहास में हो रहे वैचारिक मिलावट को स्पष्ट कर दें, ताकि उनका मूर्खतापूर्ण लोकतांत्रिक दुरुपयोग नहीं किया जा सके। इसी में इतिहास और वर्तमान दोनों की भलाई निहित है, अन्यथा…..!

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