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संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा

गुरू परंपरा की पराक्रमी ज्योति को जलाये रखा गुरू गोविन्द ने

वजीद खान की बढ़ गयी चिंता
वजीद खान ने गुरू गोबिन्दसिंह के पुत्रों को समाप्त तो करा दिया था पर वह भी भलीभांति जानता था कि उसके किये हुए ‘पापकृत्य’ का दण्ड उसे अवश्य भोगना पड़ेगा। वैसे भी सत्य के लिए दिया गया बलिदान रक्तबीज का कार्य किया करता है। वह जैसे ही धरती से संपर्क करता है, वैसे ही उस रक्तबीज से असंख्य वट वृक्ष उगकर बाहर आने लगते हैं। भारत के समाज के विषय में वजीद खां जानता था कि यहां की भूमि इतनी उर्वरा है कि वह किसी भी रक्तबीज को हवा में भी उगाने की सामथ्र्य रखती है। इसलिए वह अपने ‘पापकृत्य’ को लेकर लज्जित चाहे ना हो, पर आशंकित और भयभीत अवश्य था।
वजीद खां को अपने गुप्तचरों और विश्वसनीय लोगों के माध्यम से सूचनाएं मिल रही थीं कि गुरू गोविन्दसिंह इन दिनों रामकोट के चौधरी कल्ला के पास ठहरे हुए हैं। वह निरंतर गुरू गोविन्दसिंह के क्रिया कलापों पर दृष्टि रखने लगा, अपने लोगों को गुप्तचरों के रूप में उसने नियुक्त कर दिया, जो उसे यह सूचना देते थे कि गुरू अपने पुत्र जोरावरसिंह और फतेहसिंह के बलिदान का प्रतिशोध कैसे लेंगे? या उस पर उनकी क्या योजना या गतिविधियां हैं?
गुरू गोबिन्दसिंह करने लगे युद्घ की तैयारी
गुरू गोबिन्दसिंह प्रारंभ से ही सैनिकीकरण कर अपने लोगों को बलशाली करने की नीति पर कार्य कर रहे थे। इसलिए नये घटनाक्रम पर उन्होंने अपने साथियों के साथ विचार विमर्श कर युद्घ की तैयारियां करनी आरंभ कर दीं। इसलिए वह अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए रामकोट से जटपुरा जा पहुंचे। अब उन्होंने गांव-गांव प्रचार करना आरंभ किया और सिखी के प्रसार में लग गये।
लोग अपने गुरू के दर्शनार्थ आते, उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते, और अपनी ओर से गुरूजी को अपना पूर्ण समर्थन व सहयोग देने का विश्वास दिलाकर चले जाते। गुरू गोविन्दसिंह को अपनी लक्ष्य साधना में आशातीत सफलता मिलती जा रही थी।
भाई लखमीर और शमीर की देशभक्ति
उस समय दीना कांगड़ के चौधरी भाई लखमीर और शमीर थे। वे दोनों मुसलमान होकर भी गुरू के प्रति आस्थावान थे। उन दोनों को सही मार्ग पर लाने के लिए वजीद खां ने उनके लिए एक पत्र लिखा। दोनों भाईयों ने मानवतावाद और राष्ट्रवाद का परिचय देते हुए वजीद खां के पत्र का उत्तर कड़े और स्पष्ट शब्दों में दिया। उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि दो बच्चों का निर्ममता से वध करके अपराध तुमने किया है। तुमने गुरू की झूठी सौगंध उठाकर इस्लाम को लज्जित किया है। कुरान के नाम पर किसी को धोखा देना इस पवित्र ग्रंथ का अपमान करना है। अत: हम अपनी ओर से तन, मन, धन से गुरू गोविन्दसिंह के साथ हैं।
औरंगजेब ने खाई थी कुरान की झूठी कसम
उधर गुरू गोविन्दसिंह जी से भाई दयासिंह ने कहा कि औरंगजेब ने उनसे कुरान की सौगंध उठाकर वचन दिया था कि वह भविष्य में उन्हें कभी कष्ट नहीं देगा और उसकी सेनाएं उन्हें कभी दु:खी नहीं करेंगी पर, उसने कार्य अपने दिये वचन के विपरीत ही किया है। इसलिए अब उसे उसके वचनभंग के अपराध में फटकार लगाने का उचित समय है। तब गुरूदेव ने औरंगजेब के लिए एक पत्र लिखा जिसमें उसके अत्याचारों और अत्याचारी शासन का स्पष्ट वर्णन किया। उन्होंने बादशाह को अपनी प्रजा के प्रति उचित, न्यायसंगत और पक्षपात रहित व्यवहार करने के लिए भी प्रेरित किया। साथ ही उसके द्वारा कुरान शरीफ की झूठी कसमें खाने के लिए उसे फटकार भी लगायी।
गुरूदेव ने लगाई औरंगजेब को कड़ी फटकार
गुरूदेव ने लिखा-”तुमने (औरंगजेब ने) कुरान की झूठी कसम खाई, खुदा और ईमान को बीच में डाला तथा फिर मुकर गये। खुदा के नाम पर बात कहकर मुकरने से अधिक भ्रष्ट कार्य क्या हो सकता है? तुम्हारी सेना, सेनापति और अन्य अधिकारी सब बेईमान हैं। तुमने मुझे हथियार उठाने को विवश किया। यह तो तुम भी मानोगे कि जब अन्य सब उपाय व्यर्थ हो जाएं तो हथियार उठाना उचित ही होता है, वैसे मुझे ज्ञात था कि तुम इतने चालबाज तथा मिथ्याचारी हो। तुम्हारी कसमें सब झूठी हैं-यह मुझे पूर्ण विश्वास था। किंतु समय और विवशता के कारण अथवा अपने सिखों का आगामी समय में पथप्रदर्शन करने के कारण मुझे तुम्हारी कसमों की परीक्षा लेने के लिए अपने आपको दांव पर लगाना पड़ा। मुझे तो एकमात्र अल्लाह (अकालपुरूष) का सहारा है इसलिए सिखों के मित्र मृगों और गीदड़ों से नहीं डरा करते। तुम अपनी करतूतों का क्या जवाब दोगे? प्रलय के दिन खुदा के सामने तुम्हारा सिर नीचा होगा और तुम पछताओगे।”
गुरूदेव के इस स्पष्टवादी पत्र को लेकर भाई दयासिंह ही औरंगजेब के पास गया था। गुरू के इतने कड़े शब्दों को पढक़र औरंगजेब को पता चल गया कि तेरे अत्याचार भी भारत के शेरपुत्रों को भयभीत कराने में असफल रहे हैं।
पत्र पढक़र औरंगजेब हो गया था बीमार
वह उस पत्र को पढक़र तनाव में आ गया था और बीमार भी पड़ गया था। पर देखने वाली बात यह है कि ‘उसके अत्याचारी शासन से मुक्ति ही अंतिम उपाय है’ का संदेश देने वाला यह पत्र भारत के लोगों की स्वतंत्रता प्रेमी भावना को स्पष्ट आकार देता है, जिसका नेतृत्व उस समय निस्संदेह गुरू गोविन्दसिंह जी कर रहे थे।
गुरूओं पर मिथ्या आरोप
गुरू गोविन्दसिंह खंडित मानवता (संप्रदायों में विभक्त) खंडित राष्ट्रवाद (क्षेत्रवाद में विभक्त) खंडित वैश्विक मानस (विभिन्न राष्ट्रीयताओं में विभक्त मानव समाज) के विरोधी थे। उन जैसे भारतीय महान मनीषियों ने मानवता को उन्नत करने के लिए जीवन को ही शोध और बोध का विषय बना डाला था। इसलिए उन जैसी महान विभूतियों ने भारत की प्राचीन आर्य संस्कृति को विश्व संस्कृति के रूप में प्रस्तुत और प्रस्थापित करने का प्रयास किया। कुछ लोगों ने अनौचित्य पूर्ण ढंग से यह सिद्घ करने का प्रयास किया है कि गुरू गोविन्दसिंह या उनके पिता गुरू तेगबहादुर हिंदुओं का पक्ष इसलिए नहीं ले रहे थे कि वह हिंदू थे, अपितु इसलिए उनका पक्ष ले रहे थे कि वह उत्पीडि़त थे। यदि उनके स्थान पर मुसलमान रहे होते तो वह मुसलमानों का पक्ष लेते।
यह बात दिखने में अच्छी लगती है, पर यह सोच गुरू गोविन्दसिंह के साथ न्याय नहीं कर पाती है। इसी बात को यूं प्रस्तुत करने की आवश्यकता है कि गुरू गोविन्दसिंह मानवतावाद के पुजारी थे, और तत्कालीन सत्ता साम्प्रदायिक शासन स्थापित कर देश में हिंदुओं को कुचलने का कार्य कर रही थी, इसलिए गुरू गुरू गोविन्दसिंह ऐसे साम्प्रदायिक और अन्यायपूर्ण शासन से मुक्ति दिलाकर हिंदू समाज को स्वराज्य प्राप्ति के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे। मुसलमानों को कुरान मुसलमान बनाती है और कुरान में जब तक काफिर का कत्ल करने की आयतें हैं, तब तक मुसलमान से पंथनिरपेक्ष रहने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। इसलिए गुरू गोविन्दसिंह किसी धर्मग्रंथ की ऐसी शिक्षाओं के भी विरोधी थे जिनसे मानव मानव के मध्य घृणा का व्यापार हो।
मुगल सेना करने लगी युद्घ की तैयारी
गुरू गोविन्दसिंह के पत्र को पढक़र औरंगजेब को अच्छा नहीं लगा। इस पत्र के पश्चात दोनों पक्षों ने पुन: युद्घ की तैयारियां आरंभ कर दीं। मुगल सेना ने गुरू गोविन्दसिंह की आनंदपुर के किले में घेराबंदी कर दी। यह घेराबंदी दीर्घकाल तक चलती रही। इसमें कुछ सिखों ने गुरू गोविन्दसिंह को कहना आरंभ कर दिया कि वह मुगलों से संधि कर लें, और उन पर विश्वास करें। पर गुरू गोविन्दसिंह मुगलों की कसमों पर किसी प्रकार से भी विश्वास करने को तैयार नहीं थे। अंत में कुछ सिखों ने भूख प्यास से दुखी होकर अपने घर जाने की इच्छा व्यक्त की। गुरूदेव ने भी यह कह दिया कि जो व्यक्ति घर जाना चाहता है, वह एक कागज पर लिख कर दे कि हम आपके शिष्य नहीं और आप हमारे गुरू नहीं।
40 सिखों को कर दिया किले से बाहर
गुरूदेव के इस प्रस्ताव पर 40 सिखों ने ऐसा लिखकर दे दिया तो उन्हें रात्रि में किले से बाहर निकाल दिया गया। जब ये लोग अपने-अपने गांवों में पहुंचे तो लोगों ने उन्हें बड़े घृणित भाव से देखा और उन्हें इस बात के लिए धिक्कारा कि उन्होंने गुरू के साथ ऐसा कृतघ्नता का व्यवहार कर दिया है।
एक स्थान पर वीर सावरकर कहते हैं :-‘इस मातृभूमि की कोख से केवल सत्यपुत्र ही नहीं जन्मे हैं, इस भाग्यवती उदर से नररत्नों के समान ही उसी मात्रा में स्त्री रत्न भी उत्पन्न हुए हैं। ऋषि-मुनियों की सभा में शास्त्रार्थ एवं ब्रह्मचर्चा में विजय प्राप्त करने वाली गार्गी इसी भूमि की देन है। लोपामुद्रा, अहिल्या और तारा का जन्म यहीं पर हुआ था। दमयंती और सावित्री की भूमि यही है। भूदेवी की वे पुत्रियां उसके पुत्रों जैसी ही पावन हैं। इस श्रंखला में और कितने नाम चाहिएं। सुनो, इस पवित्र श्रंखला में से केवल एक ही नाम का उल्लेख करना पर्याप्त होगा। सदगुण, औदार्य, धैर्य, पतिव्रत, सहृदयता नैसर्गिक गंभीरता और दिव्य सुंदरता आदि समस्त सदगुणों को जिस एक नाम से संबोधित किया जा सकता है वह नाम है-श्री सीता माता का। सीता देवी जिस भूमि के उदर से उत्पन्न हुए हैं। यह अनुभूति होते ही मन आकाश से भी अधिक विशाल एवं विस्तीर्ण हो उठता है।”
(संदर्भ : ‘हिंदुत्व’ पृष्ठ-94)
वीरांगना महिलाओं का वंदनीय योगदान
जब कुछ सिख गुरू गोविन्दसिंह को बीच में ही छोडक़र अपने घरों को लौट गये तो कुछ वीरांगनाओं ने आगे आकर तत्कालीन पुरूष समाज का मार्गदर्शन किया और महिलाओं ने एक विशाल सभा का आयोजन कर उसमें प्रस्ताव पारित किया कि ऐसे कृतघ्न और भगौड़े लोगों को घरों में रहकर स्त्रियों के वस्त्र पहनने चाहिएं तथा जो कार्य घर में महिलाएं करती हैं वे उन्हें करने चाहिएं। हम सभी महिलाएं गुरूदेव के साथ शस्त्र धारण कर युद्घभूमि में जाकर युद्घ करेंगी और यदि आवश्यक हुआ तो मातृभूमि के लिए अपना बलिदान देंगी।
इस प्रकार की लताड़ और धिक्कार का प्रभाव यह हुआ कि जो लोग गुरू गोविन्दसिंह का साथ छोडक़र भाग गये थे-उनको अपने किये पर पाश्चात्ताप हुआ। उन लोगों ने समाज से और आंदोलनरत महिलाओं से क्षमायाचना की और दोबारा गुरूजी की सेना में सम्मिलित हो गये।
इस घटना का महत्व
यह घटना चाहे छोटी सी है पर इसका महत्व बहुत अधिक है। क्योंकि इस घटना से हमें तत्कालीन समाज की मानसिकता का बोध होता है। लोगों के लिए उस समय राष्ट्र कितना महत्वपूर्ण था, और उस काल में अपने नायक के साथ प्राणपण से खड़े रहना लोगों के लिए कितना आवश्यक समझा जाता था-इससे यह स्पष्ट होता है।
आज तक भी भारत के देहात में सेना के भगौड़े को लोग हेयदृष्टि से देखते हैं। घटनाएं, परिस्थितियां और समकालीन परिवेश सभी कुछ बोला करते हैं और अपनेे प्रभावों की ऊर्जा को उत्सर्जित कर उसे भविष्य के लंबे काल खण्ड पर अपने प्रभाव के रूप में अंकित कर देते हैं। सेना का साथ न देकर युद्घ से भागने को अपराध मानने की प्रवृत्ति भारत में युगों पुरानी है। मनु स्मृति में भी युद्घ से भागने वाले भगौड़ों को हेयदृष्टि से देखने की बात कही गयी है। इसी परंपरा का और इसी प्रवृत्ति का पालन गुरू गोविन्दसिंह का समकालीन भारतीय समाज कर रहा था। जिससे स्पष्ट होता है कि इस प्रवृत्ति का लोप नहीं हुआ। परंपराओं में इतिहास बोल रहा था और परंपराएंं ही इतिहास का निर्माण कर रही थीं।
इन भगौड़े सैनिकों ने भाई भागकौर के नेतृत्व में आगे बढक़र गुरू गोविन्दसिंह से फिरोजपुर जनपद के खिदराना गांव में जाकर क्षमायाचना करनी चाही ताकि गुरू उन्हें पुन: गले लगा लें।
वीरों ने लिया शत्रु से लोहा
गुरू के ये सैनिक जब खिदराना की ओर बढ़ रहे थे, और गुरूजी के शिविर से जब मात्र आधा-पौना कोस ही दूर रह गये तो इन्हें सूचना मिली कि नवाब वजीद खान की सेना का एक दल उनका पीछा कर रहा है। इससे यह बहादुर सिख विचलित नहीं हुए और उन्होंने वहीं रूककर शत्रु का सामना करने का निर्णय लिया। इन लोगों ने अपनी चादरें कुछ झाडिय़ों पर इस प्रकार सुखा दीं, या डाल दीं कि जिससे शत्रु को दृष्टि भ्रम हो जाए। हुआ भी यही दूर से वजीद खां की सेना को यह छोटा सा जत्था विशाल सैन्य दल के रूप में दिखाई दिया।
दोनों पक्षों में युद्घ आरंभ हो गया। गुरू गोविन्दसिंह को कुछ ही क्षणों में वस्तुस्थिति का ज्ञान हो गया तो उन्होंने भी शत्रु दल पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। युद्घभूमि में चारों ओर शव ही शव नजर आने लगे। यह जत्था तो वीरगति पा गया, परंतु वीरगति प्राप्त करने से पूर्व अपनी पीठ पर लगे दाग को अपने शौर्य प्रदर्शन और राष्ट्रप्रेमी भावना से धो गया। उन्हें इस बात पर कोई दु:ख नहीं था कि उनका प्राणांत हो रहा है। आज तो उन्हें प्रसन्नता और निर्भीकता ने अपनी गोद में ले लिया था, इसलिए वीरगति प्राप्त करने पर भी इन पराक्रमी सिखों के चेहरे पर संतोष और आनंद की रेखाएं स्पष्ट पढ़ी जा सकती थीं। अपना बलिदान देकर उन वीरों ने देश के नायक से ही नहीं अपितु देश की आत्मा से स्वयं को क्षमा करा लिया। देश पर प्राणोत्सर्ग करके उनका यौवन धन्य हो गया।
वजीद खां को नहीं मिला पानी
वजीद खां की सेना के लिए अब पानी की समस्या आन खड़ी हुई। वह प्यास से व्याकुल थी। पर पानी पर गुरू गोविन्दसिंह का नियंत्रण था। इसलिए गुरूदेव से वजीद खां का संघर्ष अनिवार्य था। वजीद खां की सेना ने गुरूदेव के शिविर पर बड़ा घातक प्रहार किया। परंतु गुरूदेव के शिविर में उनके ‘सिंह’ भी घात लगाये बैठे थे, इसलिए उन्होंने इस घातक प्रहार का उत्तर भी उसी ढंग से दिया। सिंह भी अपने शिकार पर टूट पड़े। मानो वह भूखे बैठे थे। सिंहों का पराक्रम प्रभावी रहा और उन्होंने शत्रु का यह आक्रमण निष्फल कर दिया।
वजीद खां के सैनिकों का मनोबल टूट गया और वह दुबारा आक्रमण करने का साहस नहीं कर पाये। अंत में निराश होकर वजीद खां के सैनिकों को यहां से लौट जाना पड़ा।
गुरूजी ने दे दिया क्षमादान
इतिहासकार लिखता है-”जब मैदान खाली हो गया, तो गुरूदेव अपने सेवकों के साथ रणक्षेत्र में आये और सिखों के शवों की खोज करने लगे। लगभग सभी सिख वीरगति पा चुके थे। परंतु उनका मुखिया महासिंह अभी अचेतावस्था में था। श्वांस धीमी चल रही थीं। जब गुरूदेव ने उसके मुख में पानी डाला तो वह सचेत हुआ और अपना सिर गुरूदेव की गोदी में देखकर प्रसन्न हो उठा। उसने गुरूदेव से प्रार्थना की कि उन्हें क्षमा कर दें। इस पर गुरूदेव ने उसे प्रसन्नता पूर्वक कहा-मुझे ज्ञात था कि तुम्हें अपनी भूल का अहसास होगा और आप सभी लौट आओगे। अत: मैंने वह तुम्हारा बेदावे वाला पत्र संभाल लिया था, मैंने सब कुछ लुटा दिया है, परंतु वह पत्र अपने सीने से आज भी चिपकाये बैठा हूं और प्रतीक्षा कर रहा हूं कि वे मेरे भूले-भटके पुत्र कभी न कभी अवश्य ही लौटेंगे। गुरूदेव का सहानुभूति वाला व्यवहार देखकर महासिंह की आंखों में आंसू आ गये। उसने सिसकियां लेते हुए गुरूदेव से अनुरोध किया कि यदि आप हम सभी पर दयालु हुए हैं तो हमारी सभी की एक ही इच्छा थी कि हमने आपसे आनंदपुर में जो दगा किया था अथवा वे दावा पत्र लिखा था वह हमें क्षमा करते हुए फाड़ दें, क्योंकि हम सभी ने अपने खून से उस धब्बे को धोने का प्रयास किया है। कृपया आप हमें पुन: अपना शिष्य स्वीकार करें। जिससे हम शांतिपूर्वक मर सकें।
गुरूदेव ने अथाह उदारता का परिचय दिया और वह पत्र अपनी कमर में से निकालकर महासिंह के नेत्रों के सामने फाड़ दिया तभी महासिंह ने प्राण त्याग दिये, मरते समय उसके मुख पर हल्की सी मुस्कान थी और धन्यवाद की मुद्रा में था। जब सभी शवों को देखा गया तो उनमें एक स्त्री का शव भी था, जिसने पुरूषों का वेश धारण कर रखा था, ध्यानपूर्वक देखने पर उसकी नब्ज चलती हुई मालूम हुई। गुरूदेव ने तुरंत उसका उपचार करवाया तो वह जीवित हो उठी। यह थी भाई भागकौर जो जत्थे को क्षमा दिलवाने के लिए लायी थी और उसका नेतृत्व कर रही थी। शहीदों का संस्कार करते समय गुरूदेव इनकी वीरता पर भावुक हो उठे, और उन्होंने प्रत्येक शहीद के सिर को अपनी गोद में लेकर उनको बार-बार चूमा और प्यार से कहते गये-यह मेरा पांच हजारी योद्घा था यह मेरा दस हजारी योद्घा था, यह मेरा बीस हजारी योद्घा था। तात्पर्य यह था कि गुरूदेव ने उनको मरणोपरांत उपाधियां देकर सम्मानित किया। वर्तमान में इस स्थान का नाम मुक्तसर है जिसका तात्पर्य है कि बेदावे वाले ‘सिंहों’ ने अपने प्राणों की आहूति देकर यहां पर मोक्ष प्राप्त किया।”
औरंगजेब की मृत्यु के बाद की मुगल राजनीति
उधर जब औरंगजेब 1707 ई. में मर गया तो उसके लडक़ों में उत्तराधिकार का संघर्ष आरंभ हो गया। जिसमें बहादुरशाह को सफलता मिली। बहादुरशाह ने नादेड़ में जाकर गुरू गोविन्दसिंह से भेंट की और उन्हें एक बहुमूल्य नगीना भेंट किया।
गुरू गोविन्दसिंह एक आध्यात्मिक व्यक्ति थे। उन जैसे महापुरूषों को अक्सर कुछ घटनाओं का पूर्वाभास हो जाया करता है। अब गुरूजी को अपनी मृत्यु का आभास होने लगा था। यद्यपि उनकी युवावस्था को देखकर उनकी साहिबकौर ने उनसे कहा भी कि आप ऐसी बातें क्यों करने लगे हैं? अभी आपकी युवावस्था है। परंतु गुरू गोविन्दसिंह अपनी बात पर पूर्ववत स्थिर रहे।
चला गया ‘भारत माता’ का अमर सपूत
अंत में एक दिन बकरीद के अवसर पर एक पठान (गुलखान नामक) ने गुरू गोविन्दसिंह पर कटार से गहरा प्रहार कर दिया। उन्होंने भी उस हमलावर को अपनी कटार से समाप्त कर दिया। गुरूदेव की शल्य चिकित्सा करायी गयी। परंतु एक दिन एक शस्त्र प्रतियोगिता में धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने में गुरू गोविन्दसिंह के पेट पर भारी दबाव पडऩे से कच्चा घाव पुन: खुल गया, और भारी रक्त प्रवाह उन्हें हो गया। यद्यपि उनका उपचार कराने का हर संभव प्रयास किया गया, परंतु सब व्यर्थ ही रहा।
इस प्रकार भारतमाता का यह अमर सपूत सदा-सदा के लिए चला गया। यद्यपि उनका सूक्ष्म शरीर आज भी हर भारतीय के मन मस्तिष्क में अमर है। गुरूजी के निधन के आघात को भाई दयासिंह नही झेल पाये और मानसिक आघात से उनका भी निधन हो गया।
स्वर्गारोहणा से पूर्व गुरू गोविन्दसिंह ने ‘गुरूग्रंथ साहिब’ को गुरू की पदवी प्रदान कर दी थी। उनके पश्चात इस प्रकार गुरू परंपरा समाप्त हो गयी और उसका स्थान ‘गुरुग्रंथ साहिब’ ने ले लिया।
क्रमश:

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