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सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विर्मश ( एक से सातवें समुल्लास के आधार पर) अध्याय 28 ,( ख) संध्या से मिलती है असीम ऊर्जा

संध्या से मिलती है असीम ऊर्जा

इस प्रकार के उदाहरणों से हमें पता चलता है कि संध्या या ईश्वर की स्तुति- प्रार्थना – उपासना न केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में बल्कि सांसारिक क्षेत्र में भी हमारा उत्साहवर्धन करती है और हमें जीने की असीम शक्ति और ऊर्जा प्रदान करती है। आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति के साथ-साथ सांसारिक क्षेत्र में सज रहे युद्ध शिविरों के बीच वीरता का प्रदर्शन करना और उसमें तनिक भी विचलित नहीं होना, यदि किसी से सीखा जा सकता है तो वह केवल आर्य हिंदू वीर योद्धाओं से ही सीखा जा सकता है। आर्य वीर योद्धाओं ने इतिहास को जीवंतता प्रदान की है। इतिहास की यह जीवंतता बलिदानों से बनी है। जिसके पीछे केवल और केवल एक ही आदर्श रहा है कि हम हर स्थिति में धर्म की स्थापना चाहते हैं।
परमपिता परमेश्वर की अदृश्य सत्ता अपने शक्ति रूप अदृश्य हाथों से जिस प्रकार जगत का रचन, ग्रहण, पालन पोषण आदि करती है, वैसे ही उसकी इसी प्रकार की अनंत शक्ति से उसका उपासक संपन्न हो जाता है। फिर चाहे युद्ध क्षेत्र हो या सांसारिक क्षेत्र हो या फिर आध्यात्मिक क्षेत्र हो, वह बड़ी से बड़ी सफलता प्राप्त करता जाता है। संसार समर का योद्दा अनेक लोगों की मुक्ति के लिए पापाचारियों,दुष्टों, अत्याचारियों से संघर्ष करता है तो मोक्ष के लिए उपासना कर रहा योद्धा अपने आंतरिक जगत की दुष्ट प्रवृत्तियों से महा संघर्ष करता है। दोनों का उद्देश्य पवित्र है। एक अनेक लोगों की मुक्ति के लिए मार्ग प्रशस्त करता है तो दूसरा आध्यात्मिक जगत में उतरकर ब्रह्मानंद की प्राप्ति के लिए जीवन को परम पद के प्रति प्रतिष्ठित करता है।

मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और श्री कृष्ण जी

अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियों और उपनिषद वचन के आधार पर स्वामी जी हमारा मार्गदर्शन करते हैं कि परमेश्वर के हाथ नहीं परन्तु अपनी शक्तिरूप हाथ से सब का रचन, ग्रहण करता, पग नहीं परन्तु व्यापक होने से सब से अधिक वेगवान्; चक्षु का गोलक नहीं परन्तु सब को यथावत् देखता; श्रोत्र नहीं तथापि सब की बातें सुनता, अन्तःकरण नहीं परन्तु सब जगत् को जानता है और उस को अवधिसहित जाननेवाला कोई भी नहीं। उसी को सनातन, सब से श्रेष्ठ सब में पूर्ण होने से पुरुष कहते हैं। वह इन्द्रियों और अन्तःकरण के विना अपने सब काम अपने सामर्थ्य से करता है।"

ऐसे अनन्त शक्ति संपन्न ईश्वर के बारे में स्वामी जी बताते हैं कि :-
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः।। -योगसू०।।

जो अविद्यादि क्लेश, कुशल, अकुशल, इष्ट, अनिष्ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है वह सब जीवों से विशेष ईश्वर कहाता है।
हमारे देश में श्री कृष्ण जी और रामचंद्र जी जैसे अनेक महापुरुषों को ईश्वर का अवतार कहकर महिमामंडित किया गया है। इससे ईश्वर के प्रति लोगों का ध्यान भंग हुआ है और श्री राम व श्री कृष्ण जी को ईश्वर का अवतार मानने के कारण उनकी ओर अधिक ध्यान चला गया है। इससे भारतीय वैदिक संस्कृति की हानि हुई है। एकेश्वरवाद के वैदिक सिद्धांत को भी क्षति पहुंची है। हमें मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और योगीराज श्री कृष्ण जी महाराज के जीवन चरित्र से शिक्षा लेनी चाहिए। क्योंकि उन्होंने कभी भी देश ,धर्म और संस्कृति के विरोधियों को सहन नहीं किया। उनका सारा जीवन इस प्रकार के असामाजिक तत्वों के विनाश के लिए समर्पित रहा। महर्षि दयानंद जी महाराज ने इन दोनों ही महापुरुषों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है।
इस सब के उपरांत भी भारतवर्ष में ऐसे अनेक लोग हैं जो श्री कृष्ण जी को गीता में आए निम्नलिखित श्लोक की व्याख्या करके उन्हें ईश्वर का अवतार घोषित करते हैं-

 यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। भ० गी०।।

श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि जब-जब धर्म का लोप होता है तब-तब मैं शरीर धारण करता हूं।
स्वामी दयानंद जी महाराज इतिहास की इस भ्रांति का निवारण करते हुए बड़े ही स्पष्ट शब्दों में हमें समझाते हैं कि ” यह बात वेदविरुद्ध होने से प्रमाण नहीं और ऐसा हो सकता है कि श्रीकृष्ण धर्मात्मा और धर्म की रक्षा करना चाहते थे कि मैं युग-युग में जन्म लेके श्रेष्ठों की रक्षा और दुष्टों का नाश करूं तो कुछ दोष नहीं। क्योंकि ‘परोपकाराय सतां विभूतयः’ परोपकार के लिए सत्पुरुषों का तन, मन, धन होता है तथापि इस से श्रीकृष्ण ईश्वर नहीं हो सकते।”
अवतारवाद की इस मूर्खतापूर्ण अवधारणा ने भारत में अनेक ईश्वरों का अवतरण करवा दिया। जिससे समाज में अनेक प्रकार के संप्रदाय जन्म लेने लगे। यहां तक कि जब भारत अपनी धुरी से अथवा अपनी चेतना के केंद्र से भटक गया तो संसार में भी ईसाई और इस्लाम जैसे कई मत , पंथ अथवा संप्रदाय पैदा हुए। इन सब ने भी ईश्वर की अखंड सत्ता को उस अर्थ में स्थापित नहीं किया जिस प्रकार हमारे वेद आदि धर्म ग्रंथों में स्थापित की गई थी।

पीर पैगंबर और अवतारवाद

इस प्रकार इतिहास की अवतारवाद की मूर्खतापूर्ण अवधारणा ने संसार के इतिहास को उस दलदल में फंसा दिया, जिससे करोड़ों लोगों को उन तथाकथित अवतारों, पीर पैगंबरों के तथाकथित अनुयायियों के हाथों मरना पड़ा। यदि सारा संसार एकेश्वरवाद की वैदिक अवधारणा के अनुसार जीता तो करोड़ों लोगों को ऐसा में अपने प्राणों से हाथ धोना नहीं पड़ता। स्वामी दयानंद जी महाराज ने इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में ईश्वर के एक होने के मत को फिर से स्थापित किया। स्वामी दयानंद जी महाराज यह भली प्रकार जानते थे कि एक पिता की संतान होने के भाव से ही संपूर्ण मानवता में धर्म के प्रति गहन आस्था विकसित की जा सकती है और संसार में वास्तविक शांति लाई जा सकती है।
ईश्वर के नाम पर महर्षि दयानंद जी के काल में या उनसे पूर्व या उनके बाद जो भी अत्याचार होते रहे हैं या विभिन्न संप्रदायों के लोग अपनी शासन सत्ता स्थापित करने के लिए या दूसरे मत, पंथ या संप्रदायों के लोगों का विनाश करके उनके माल को लूटने के सपने संजोते रहे हैं ,उन्होंने यह धारणा भी विकसित की है कि वह ऐसा सब कुछ ईश्वर, खुदा ,अल्लाह या गॉड के नाम पर कर रहे हैं ,इसलिए वह निहायत दयावान मेहरबान ईश्वर उनके पापों को क्षमा कर देगा।
। इतिहास की इस मूर्खतापूर्ण सांप्रदायिक अवधारणा ने भी संसार में अनेक प्रकार के पापाचरण को बढ़ावा दिया है । लोगों ने एक दूसरे के मत, पंथ अथवा संप्रदाय के लोगों पर अत्याचारों का कहर बरपा दिया और जाकर अपने-अपने धर्म स्थलों में अपने ईश्वर, खुदा या गॉड से यह दुआ मांग ली कि उन्होंने यह सब कुछ तेरे नाम पर किया है, इसलिए यदि हमने कोई गुनाह किया है तो वह माफ हो। इस प्रकार सृष्टि के सिरजनहार के नाम पर ही उसके सृजन को विध्वंस में बदलने की इन घटनाओं को भी लोगों ने बहुत हल्के में लिया। कुल मिलाकर संसार के लिए संसार के लोगों का ही ईश्वर खुदा या गॉड कहर बरपाने वाला बन गया। लोगों को ईश्वर, खुदा या गॉड से नफरत हो गई। जिससे नास्तिकवाद को तेजी से प्रसारित होने का अवसर मिला।

ईश्वर पाप क्षमा नहीं करता

स्वामी दयानंद जी महाराज ने इतिहास की इस विकृति का सफलतापूर्वक समाधान दिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि ईश्वर, खुदा या गॉड अपने किसी भी अनुयाई के पापों को कभी क्षमा नहीं करता। "क्योंकि जो पाप क्षमा करे तो उस का न्याय नष्ट हो जाये और सब मनुष्य महापापी हो जायें। क्योंकि क्षमा की बात सुन ही के उन को पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराधियों के अपराध को क्षमा कर दे तो वे उत्साहपूर्वक अधिक-अधिक बड़े-बड़े पाप करें। क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उन को भी भरोसा हो जाय कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे और जो अपराध नहीं करते वे भी अपराध करने से न डर कर पाप करने में प्रवृत्त हो जायेंगे। इसलिये सब कर्मों का फल यथावत् देना ही ईश्वर का काम है, क्षमा करना नहीं।"

जीव कर्म करने में स्वतंत्र और फल भोगने में परतंत्र है। वैदिक धर्म का यह आदर्श है। ‘स्वतन्त्रः कर्त्ता’ यह पाणिनीय व्याकरण का सूत्र है। जो स्वतन्त्र अर्थात् स्वाधीन है वही कर्त्ता है। इस दृष्टिकोण से किसी भी मत, पंथ अथवा संप्रदाय वाले ने किसी भी विपरीत मत, पंथ या संप्रदाय वाले पर यदि अत्याचार किए हैं या आज कर रहे हैं तो उन्हें ना तो उस समय ईश्वर ने क्षमा किया था और ना ही आज करेगा। जो लोग एक दूसरे के माल को लूट कर अपने धर्म स्थलों पर जाकर अपने इष्ट को प्रसन्न करने के लिए चढ़ाते हैं, वह लुटेरे ही कहे जाएंगे ईश्वर के भक्त नहीं।
कुछ लोग अपने पापों को ईश्वर की इच्छा या खुदा की मर्जी कहकर ढकने का असफल प्रयास करते हैं।
सच यह है कि ईश्वर या खुदा अपने किसी भी भक्त या बंदे से पाप करने के लिए कभी नहीं कहता। वह अपना और संसार का उपकार करने की ही सदप्रेरणा दिया करता है। वास्तव में ऐसी सदप्रेरणा को पाने वाले लोग ही ईश्वर की इच्छा या खुदा की मर्जी कहने के वास्तविक अधिकारी होते हैं। संसार के सामान्य जन इन लोगों की नकल करके इस शब्द को अपने लिए अपना लेते हैं और वह भी कहने लगते हैं कि ईश्वर की इच्छा या खुदा की मर्जी से ही सब कुछ हो रहा है। वे अपने पाप कर्मों को भी ईश्वरीय प्रेरणा से किया गया मान लेते हैं। वास्तव में ऐसे लोगों का इस प्रकार कहना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है।
इस संबंध में स्वामी जी महाराज का यह कथन दृष्टव्य है कि “जिस के आधीन शरीर, प्राण, इन्द्रिय और अन्तःकरणादि हों। जो स्वतन्त्र न हो तो उस को पाप पुण्य का फल प्राप्त कभी नहीं हो सकता। क्योंकि जैसे भृत्य, स्वामी और सेना, सेनाध्यक्ष की आज्ञा अथवा प्रेरणा से युद्ध में अनेक पुरुषों को मार के अपराधी नहीं होते, वैसे परमेश्वर की प्रेरणा और आधीनता से काम सिद्ध हों तो जीव को पाप वा पुण्य न लगे। उस फल का भागी प्रेरक परमेश्वर होवे। स्वर्ग-नरक, अर्थात् सुख-दुःख की प्राप्ति भी परमेश्वर को होवे। जैसे किसी मनुष्य ने शस्त्रविशेष से किसी को मार डाला तो वही मारने वाला पकड़ा जाता है और वही दण्ड पाता है, शस्त्र नहीं। वैसे ही पराधीन जीव पाप पुण्य का भागी नहीं हो सकता। इसलिये अपने सामर्थ्यानुकूल कर्म करने में जीव स्वतन्त्र परन्तु जब वह पाप कर चुकता है तब ईश्वर की व्यवस्था में पराधीन होकर पाप के फल भोगता है। इसलिये कर्म करने में जीव स्वतन्त्र और पाप के दुःख रूप फल भोगने में परतन्त्र होता है।”

डॉ राकेश कुमार आर्य

मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
प्रकाशक का दूरभाष नंबर : 011 – 407122000।

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