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इतिहास के पन्नों से साक्षात्‍कार

“विभाजनकालीन भारत के साक्षी” नामक पुस्तक के लेखक कृष्णानंद सागर जी से विशेष बातचीत के कुछ अंश

हिंदू मुस्लिम एकता का वह नायाब फार्मूला और गांधी जी

“विभाजन कालीन भारत के साक्षी” नामक ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में चार खंडों में प्रकाशित पुस्तक के लेखक कृष्णानंद सागर जी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उन्होंने 20 वर्ष के परिश्रम साध्य कार्य को पूर्ण करते हुए इस पुस्तक को चार खंडों में प्रकाशित करने का राष्ट्रभक्ति से भरा हुआ कार्य किया है। निश्चित रूप से जिन लोगों ने विभाजन कालीन पीड़ा को अपनी आंखों से देखा, वह अब बहुत तेजी से समाप्त होते जा रहे हैं। उनकी बातों को सुनना और सुनकर के एक ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में सुरक्षित कर लेना या सुरक्षित करके राष्ट्र को सौंप देना सागर जी की बहुत बड़ी साधना का प्रतीक है। विगत 20 नवंबर को 30 सायंकालीन संध्या में उनके “जागृति प्रकाशन” नोएडा स्थित आवास पर उनसे भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जिसमें मैं स्वयं, ज्येष्ठ भ्राता श्री एवं “उगता भारत” समाचार पत्र के चेयरमैन श्री देवेंद्र सिंह आर्य जी व मेरा बेटा अमन आर्य थे।

श्री कृष्णा नंद सागर जी ने इस पुस्तक के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि इसको तैयार करने में उन्हें 20 वर्ष का समय लगा है। जिसमें 350 लोगों की उन बातों को समाविष्ट किया गया है जिन्होंने विभाजनकालीन भारत के लोगों की पीड़ा को निकट से देखा, समझा या झेला है। श्री सागर का मानना है कि भारतवर्ष में पिछली कई शताब्दियां ऐसी गुजरी हैं जिनमें कई विदेशी आक्रमणकारियों ने अपना शासन स्थापित किया, पर समय आने पर भारत के लोगों ने उनके शासन को उखाड़ फेंकने में सफलता प्राप्त की।

अंग्रेजों को भारत से खदेड़कर बाहर निकालने की तैयारी भारत ने सबसे पहले 1857 की क्रांति के समय की। अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने के लिए अंग्रेजों ने दुधारी नीति अपनाई। उनका मानना है कि भारतवर्ष में इस भाव को गहराई से स्थापित करने की चाल अंग्रेजों की रही है कि यह देश आर्य / हिंदुओं का न होकर हिंदू , मुस्लिम, ईसाई आदि सभी का है। इससे भारतीय समाज में कई अंतर्विरोधों ने जन्म लिया। अंग्रेजों ने दूसरी चाल यह चली कि भारत के हिंदू समाज के भीतर शस्त्रों के प्रति विरक्ति का भाव पैदा किया जाए, ताकि वे विद्रोही की बात करना छोड़ दें और उसके बारे में सोचें भी नहीं। सचमुच, अंग्रेजों ने अपनी इस प्रकार की चाल को चलकर भारतीय समाज को बहुत अधिक हानि पहुंचाई है।

अंग्रेजों ने इस विचार को भारत के लोगों के मन मस्तिष्क में गहराई से बैठाने का कार्य अपने स्कूलों के माध्यम से किया कि भारत के लोगों के सच्चे मित्र अंग्रेज ही हो सकते हैं। अपनी योजना को क्रियान्वित करते हुए उन्होंने 1885 में इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना अपने एक सेवानिवृत्त अधिकारी ए0 ओ0 ह्यूम के द्वारा करवाई। ढाका के नवाब सलीमुल्ला खान के द्वारा ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना 1906 में कराई। श्री सागर का कहना है कि वास्तव में यह सारी कसरत केवल भारतीय राष्ट्रवाद को क्षतिग्रस्त करने के लिए की जा रही थी। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि भारत में तुष्टीकरण और छद्म धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत भारत के लिए बहुत बड़ा खतरा है। जिसको समय रहते समझ लेना चाहिए।

इस पुस्तक के प्रथम खंड में पृष्ठ 31 पर वे स्पष्ट करते हैं कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ही ब्रिटिश सत्ता की संताने हैं। अंग्रेजों ने इन दोनों को राजनीतिक दलों के रूप में विकसित किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय इन दोनों दलों ने ही देश को काटने और बांटने का दु:खद निर्णय लिया। अंग्रेजों ने “फूट डालो और राज करो” – की नीति के अंतर्गत मुस्लिम लीग और कांग्रेस के नेताओं को अनावश्यक ही प्रोत्साहित करना आरंभ किया।
इस समय राष्ट्रवादी हिंदूवादी जितने भर भी नेता थे या जिन पर हिंदूवादी राष्ट्रवादी होने का थोड़ा सा भी संदेह अंग्रेजों को था, उन सभी लोगों को या शक्ति, संगठनों को कुंठित करने का अंग्रेजों ने भरसक प्रयास किया । अंग्रेजों का प्रयास था कि जैसे भी हो , यह हिंदूवादी राष्ट्रवादी नेता भारत में नहीं पनपने चाहिए।
अंग्रेजों को डर था कि यदि यह हिंदूवादी राष्ट्रवादी नेता किसी प्रकार भारत में पनप गए तो फिर भारत से उनका जाना निश्चित है।

सन 1888 में कांग्रेस के चौथे अधिवेशन में ही कांग्रेस की आगे की कार्य विधि तय की गई। इस कांग्रेस के अध्यक्ष जॉर्ज यूल थे। चौथे अधिवेशन में पारित किए गए इस प्रस्ताव के अनुसार यह निश्चित किया गया गया कि हिंदू या मुसलमान अपने संप्रदाय के नाम पर सर्वसम्मति से या लगभग सर्वसम्मति से आपत्ति करेंगे वह विषय समिति में विचार के लिए पेश नहीं किया जाएगा। यह भी कहा गया कि पूर्वी बंगाल मुस्लिम बहुल था। अंग्रेजों ने 1905 में बंगाल का विभाजन करके पूर्वी बंगाल को अलग प्रांत बना दिया। जिससे कि वह देश की छाती पर दाल दलता रहे। बंग विभाजन से पूर्व तत्कालीन वायसराय कर्जन ने ढाका में एक विशेष बैठक की थी, उसमें कहा गया था कि विभाजन की प्रस्तावित योजना से ढाका एक नए और आत्मनिर्भर प्रांत का केंद्र तथा संभवत: राजधानी बन जाएगा। इससे पूर्वी बंगाल में मुसलमान ऐसी एकता प्राप्त कर लेंगे जो उन्होंने पुराने मुसलमानों और बादशाहों के समय से लेकर अब तक प्राप्त नहीं की है।

कॉन्ग्रेस ने मुसलमानों को अपने साथ मिलाने के लिए 1916 में मुस्लिम लीग समझौता किया था। समझौते के अनुसार कॉन्ग्रेस ने मुसलमानों के लिए अलग प्रतिनिधित्व देना तो स्वीकार किया ही साथ ही उन्हें उनकी जनसंख्या के अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व भी देना स्वीकार कर लिया। श्री सागर का कहना है कि यहां से ही कांग्रेस के नेताओं की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति का आरंभ हुआ। कांग्रेस ने अपने आपको हिंदू और मुसलमान दोनों का प्रतिनिधि माना। यद्यपि व्यवहार में उसने ऐसा प्रदर्शन प्रदर्शन किया कि वह हिंदुओं की और मुस्लिम लीग मुसलमानों की संस्था है, लेकिन ऐसा कहने में वह सदा घबराती रही।

मुसलमानों को खुश करने के लिए सितंबर 1920 के कोलकाता अधिवेशन में कांग्रेस ने खिलाफत आंदोलन को समर्थन तो किया ही साथ ही इस आंदोलन को कांग्रेस का ही कार्यक्रम मान लिया। जबकि खिलाफत से भारत का कोई लेना-देना नहीं था। उस समय जितने भर भी खिलाफती मौलाना कांग्रेस में सम्मिलित होकर कांग्रेस के नेता बने, उन्हीं नेताओं में एक मौलाना अबुल कलाम आजाद भी थे। इस खिलाफत आंदोलन ने मुसलमानों में ‘इस्लामी श्रेष्ठता’ और ‘इस्लामी शासन’ का भाव फिर से पैदा किया । इसी के कारण केरल में मोपला दंगे हुए। गांधीजी ने मोपला दंगाइयों की निंदा करने के बजाए उनको धर्मभीरु वीर लोग कहकर सम्मानित किया ।
उनका कहना है कि 1923 के काकीनाडा अधिवेशन में खिलाफती मौलाना मुहम्मद अली को कांग्रेस अध्यक्ष बना देने पर उसने अपने अध्यक्षीय भाषण में हिंदू-मुस्लिम समस्या के हल के लिए एक नायाब फार्मूला बताया। वह फार्मूला था 7 करोड हिंदू “अछूतों” को मुसलमान बना दिया जाए। उस समय हिंदुओं की आबादी 21 करोड़ थी और मुसलमानों की 7 करोड़। हिंदुओं में से 7 करोड़ को मुसलमान बना देने से दोनों 14 – 14 करोड़ हो जाएंगे । इस प्रकार हिंदू मुस्लिम समानता तथा हिंदू मुस्लिम एकता हो जाएगी। अतः हिंदू-मुस्लिम समस्या समाप्त।

वास्तव में इस प्रकार का फार्मूला अपनाने से इस मौलाना ने सारे देश का इस्लामीकरण करने की अपनी गुप्त योजना को छल भरे शब्दों में प्रकट करने का काम किया था। ऐसा करने का उसका साहस तभी हो पा रहा था, जब गांधी उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित कर रहे थे अर्थात उन्हें ऐसा कहने का अवसर दे रहे थे।
बात 1924 की है जब मौलाना मोहम्मद अली ने अलीगढ़ में अजमेर में अपने वक्तव्य में कहा था कि अपने मजहब और विश्वास के अनुसार मैं मानता हूं कि एक व्यापारी और पतित मुसलमान भी गांधीजी से श्रेष्ठ है। अतः मुस्लिम नेताओं का इस प्रकार का कथन स्पष्ट रूप से यह बता रहा था कि वह अपने दीनी भाइयों के लिए पहले हैं और किसी भी हिंदू के लिए उनके दिल में कोई जगह नहीं है, फिर चाहे वह गांधी ही क्यों न हो ? इसके उपरांत भी गांधीजी और उनके साथियों की आंखें नहीं खुली। अंधे होकर वे सभी लोग मुसलमानों के पीछे – पीछे भागते रहे। वे जितना ही अधिक मूल्य इन मौलाना नेताओं का लगाते थे, वे उतना ही अधिक अपने आपको श्रेष्ठ समझने के घमंड से फूलते जाते थे। मुस्लिम श्रेष्ठता का प्रचार कांग्रेस अध्यक्ष मुहम्मद अली उस समय पूरे देश में घूम घूमकर कर रहा था। इसके कारण देश में उस समय कई स्थानों पर मुस्लिम दंगे भड़क उठे।

श्री सागर कहते हैं कि हिंदू मुस्लिम एकता की मूर्खता पूर्ण धारणा को देश में आरोपित / स्थापित करने के उद्देश्य से ही दंगों को मुस्लिम दंगे न कहकर “हिंदू मुस्लिम दंगे” जैसे शब्द का प्रयोग किया जाता है। जिसमें दोनों समुदाय ही दंगों के लिए जिम्मेदार दिखाई देते हैं। शब्दों के इस फेर में दंगे करने वाले और दंगे झेलने वाले दोनों बराबर के जिम्मेदार दिखाई दे जाते हैं। जिससे दोषी को दोषी न कहकर निर्दोष को भी दोषी घोषित कर दिया जाता है। इससे लाभ उसी को मिलता है जो दोषी न होकर भी निर्दोष सा दिखाई देता है। जो जो निर्दोष होकर भी दोषी ठहराया जाता है उसके हिस्से में केवल घाटा ही घाटा आता है। श्री सागर कहते हैं कि आजादी के बाद भी देश की कांग्रेसी सरकारों और कांग्रेसी नेताओं की सोच इसी प्रकार की रही है। देश की धर्मनिरपेक्ष राजनीति और राजनीतिज्ञों ने भी इसी प्रकार के आचरण को अपनाया है।

श्री सागर कहते हैं कि जब तक देश में तुष्टीकरण और छद्म धर्मनिरपेक्षता की राजनीति चलती रहेगी तब तक देश के बहुसंख्यक समाज की चिंता राजनीति के माध्यम से होना असंभव है। यद्यपि अब मोदी सरकार के आने के पश्चात इस स्थिति में बहुत कुछ परिवर्तन आया है। यह वही कांग्रेस है जिसके नेता गांधी ने अब्दुल रशीद नामक मुसलमान को उस समय अपना भाई कहा था, जब उसने 1926 में स्वामी श्रद्धानंद जी की हत्या कर दी थी। तब गांधीजी ने कहा था कि “मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा है और मैं पुनः उसे भाई कहता हूं । मैं तो उसे स्वामी जी की हत्या का दोषी भी नहीं मानता।”
क्रमश:

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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