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सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विर्मश ( एक से सातवें समुल्लास के आधार पर) अध्याय 19( ख ) स्वामी दयानंद जी का चिंतन

स्वामी दयानंद जी का चिंतन

अपने देश के आत्म गौरव पर भी शर्म करना कोई कांग्रेसियों से सीख सकता है। जबकि अपने देश की महान विरासत पर गर्व करना स्वामी दयानंद जी से ही सीखा जा सकता है। अपने इस प्रकार के विचारों को प्रकट करते हुए उन्होंने लिखा “यह आर्यावर्त ऐसा देश है, जिसके सदृश भूगोल में कोई दूसरा देश नहीं है। इसीलिए इस भूमि का नाम स्वर्ण भूमि है, क्योंकि यही स्वर्ण आदि रत्नों को उत्पन्न करती है। पारसमणि पत्थर सुना जाता है ,यह बात तो झूठी है, परंतु आर्यावर्त देश ही सच्चा पारस मणि है, जिसको लोहे रूपी दरिद्र विदेशी छूते ही स्वर्ण अर्थात धनाढ्य हो जाते हैं। सृष्टि के आरंभ से लेकर 5000 वर्षों से पूर्व समय पर्यंत आर्यों का सार्वभौमिक चक्रवर्ती अर्थात भूगोल में सर्वोपरि एकमात्र राज्य था। अन्य देशों में मंडली अर्थात छोटे छोटे राजा रहते थे।”
स्वामी दयानंद जी महाराज ने अपनी यह बात सत्यार्थ प्रकाश के 11वें समुल्लास में उल्लिखित की है। इसलिए इसकी विशेष व्याख्या हम यहां नहीं कर रहे हैं।
स्वामी जी ने अखंड, स्वाधीन, स्वतंत्र और निर्भय – राज्य के होने की बात कही है। इसका अभिप्राय है कि जहां पर यह 4 शर्तें पूर्ण होती हों, वहीं पर स्वराज्य की वास्तविक अवधारणा को साकार होते देखा जा सकता है। यदि देश में टूटन, अलगाववाद और देश को तोड़ने की गतिविधियां जारी हैं या ऐसे लोग कार्य कर रहे हैं जो देश को तोड़ना चाहते हैं तो स्वराज्य की अवधारणा अधूरी है। माना कि जनता अपने शासक से और उसकी नीतियों से कई बार असंतुष्ट हो सकती है, इनको लेकर वह कई बार आंदोलन ,धरने – प्रदर्शन भी कर सकती है, शासक यदि जन हितैषी नहीं है तो जनता उसको पद से हटाने के लिए संविधानिक उपायों को अपनाकर किसी भी सीमा तक जा सकती है। गरीबी, भुखमरी आदि को लेकर भी आंदोलन कर सकती है परंतु इन सबका अभिप्राय यह नहीं होता कि कोई भी वर्ग या समुदाय देश को तोड़ने की बात करने लगे। यदि कोई भी वर्ग या समुदाय ऐसा करता है तो वह देश की अखंडता का शत्रु है। किन्ही बहानेबाजियों को लेकर देश को तोड़ने की अनुमति नहीं दी जा सकती और यदि कोई सरकार ऐसे आंदोलनकारियों के समक्ष ढीली पड़ जाती है तो समझिए कि वह भी देश की शत्रु है।
स्वाधीनता किसी भी देश में स्वराज्य की स्थापना के लिए अनिवार्य शर्त है। यदि किसी सरकार के भी ऊपर कोई सरकार बैठी है तो समझिए कि देश स्वराज्य से शासित नहीं होता। स्वतंत्रता का अभिप्राय अपने स्वयं के सरकारी तंत्र से है। जिस देश के पास दूसरे देश का तंत्र हो या दूसरे देश के तंत्र से जो देश शासित होता हो वह भी स्वराज्य वाला देश नहीं कहा जा सकता।
यदि शासक वर्ग निर्भीक नहीं है और वह डरकर या दब्बूपन से देश को चला रहा है तो समझिए कि वह भी स्वराज्य का सही आनंद नहीं उठा पा रहा है। एक स्वराज्यवादी शासक या शासन के लिए अनिवार्य है कि उसके राजा के द्वारा अपने सभी अधिकारियों, मंत्रियों या सरकारी सेवकों को उनकी योग्यता के अनुसार कार्य विभाजन करना चाहिए।
स्वामी दयानंद जी महाराज के स्वराज्यवादी चिन्तन ने आर्य समाज और आर्य समाज से जुड़े लोगों को देशभक्ति का अनूठा पाठ पढ़ाया । इसी बात को समझकर सन 1911 की जनसंख्या के अध्यक्ष रहे मिस्टर ब्लंट ने आर्य समाज के बारे में लिखा था कि – “आर्य समाज के सिद्धांतों में स्वदेश प्रेम की प्रेरणा है। आर्य सिद्धांत और आर्य शिक्षा समान रूप से भारत के प्राचीन गौरव के गीत गाते हैं और ऐसा करके अपने अनुयायियों में राष्ट्र के प्रति गौरव की भावना को जागृत करते हैं। इस शिक्षा के फलस्वरूप वे समझते हैं कि हमारे देश का इतिहास पराभव की कहानी नहीं है। देशभक्ति और राजनीति एकार्थ वाची नहीं हैं, किंतु राष्ट्रीय कार्यों में रुचि या प्रवृत्ति राष्ट्रीय भावना का स्वाभाविक परिणाम है।”
स्वामी जी महाराज अनेक प्रकार के संप्रदायों के अस्तित्व के विरोधी थे। वह इस्लाम और ईसाइयत को मानने वाले लोगों के प्रति भी शंकित रहते थे। क्योंकि वह जानते थे कि अनेक संप्रदायों के होने से देश की एकता और अखंडता प्रभावित होती है। इस बात को 1901 में जनसंख्या के अध्यक्ष रहे मिस्टर वर्न ने भी स्वीकार किया और उन्होंने लिखा कि ” दयानंद इस्लाम तथा ईसाइयत के प्रति इसलिए सशंकित थे क्योंकि वे समझते थे कि विदेशी मतों के अपनाने से देशवासियों की राष्ट्रीयता की भावना को क्षति पहुंचेगी । जिन्हें पोस्ट करना चाहते थे।”
स्वामी दयानंद जी के बारे में तो अंग्रेजों ने ऐसा लिखा पर कभी भी उन्होंने नेहरू गांधी के बारे में ऐसा नहीं लिखा। इसका कारण केवल एक था कि गांधी और नेहरू देश में अनेक मतों की अस्तित्व के समर्थक थे। झूठी एकता का भ्रम पालने की बात कोई सीखना चाहता है तो वह नेहरू- गांधी की तुष्टिकरण और धर्मनिरपेक्षता से ही सीखी जा सकती हैं।

दूत के बारे में स्वामी जी के विचार

 स्वामी दयानंद जी मनुस्मृति के आधार पर यह भी निश्चित करते हैं कि राजा को किस व्यक्ति को क्या कार्य देना चाहिए? 

वह बताते हैं कि अमात्य को दंडाधिकार, दंड में विनय क्रिया अर्थात जिससे अन्याय रूप दंड न होने पावे , राजा के आधीन कोष और राज्य कार्य तथा सभा के अधीन सब कार्य और दूत के अधीन किसी से मेल वा विरोध करना अधिकार देवे।
यहां पर अन्याय रूप दंड न होने पावे – शब्द विशेष रुप से ध्यान देने योग्य हैं। जैसे परमपिता परमेश्वर प्रत्येक प्राणी को उसके किए कर्म का दण्ड उचित अनुपात में देता है अर्थात न तो न्यून और न अधिक दण्ड उसको दिया जाता है, वैसे ही राजा भी बहुत विवेक के साथ दंड निर्धारित करे। यदि किए हुए अपराध का दंड उचित अनुपात से अधिक दिया जाता है तो वह अन्याय हो जाता है ,जिससे राज्य में अधर्म को बढ़ावा मिलता है।
राजनीति के अनिवार्य तत्व की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हुए स्वामी जी महाराज लिखते हैं कि “दूत उसको कहते हैं जो फूट में मेल और मिले हुए दुष्टों को फोड़ तोड़ दे देवे। दूत वह कर्म करे जिससे शत्रुओं में फूट पड़े।”
आजकल की वैश्विक राजनीति में भी लोग दूतों के कर्मों को इसी प्रकार निर्धारित करते हैं। जिस देश से अपने देश के संबंध मधुर ना हों, उनमें नियुक्त देश का दूत या राजदूत दोनों देशों को निकट लाने का प्रयास करता रहता है। अपने देश के विरोधी देशों के बीच में फूट डालने का प्रयास करता रहता है। जो देश हमारे लिए अनुकूल हो सकते हैं उन्हें अपने देश के निकट लाना और जो हमारे देश के लिए प्रतिकूल हो सकते हैं उनमें परस्पर फूट डलवा कर उनकी शक्ति को क्षीण करना राजदूत का विशेष कार्य है। दूसरे देश के शासक वर्ग की अपने देश के प्रति नीति और नियत दोनों को सोचने व समझने के लिए शासक का गुप्तचर वर्ग सक्रिय रहना चाहिए।
कई बार दूसरा देश ऊपर से मित्र का चोला ओढ़कर भीतर से शत्रुवत कार्य करता रहता है, ऐसे मित्र से सदा सावधान रहना चाहिए। यहां पर यह भी ध्यान रखना चाहिए कि दूसरा देश हमारे प्रति मित्रतापूर्ण भाव रखता है या शत्रुतापूर्ण रखता है, इसकी सही जानकारी देने के लिए दूत ही विशेष रूप से कार्य करते हैं। इसलिए उनकी नियुक्ति में राजा अथवा शासक वर्ग द्वारा विशेष सावधानी बरतनी अपेक्षित है। सत्यार्थ प्रकाश के षष्ठम समुल्लास में इस संबंध में स्वामी जी महाराज लिखते हैं कि वह सभापति और सब सभासद व दूत आदि यथार्थ से दूसरे विरोधी राजा के राज्य का अभिप्राय जान के वैसा यत्न करे कि जिससे अपने को पीड़ा न हो।
महर्षि दयानंद जी का मंतव्य स्पष्ट है कि यदि कोई पड़ोसी देश या शत्रु देश हमारे प्रति शत्रु भाव रखता है तो उसके प्रति किसी भी प्रकार के आलस्य या प्रमाद को अपनाना देश के लिए हानिकारक हो सकता है ।

शासक वर्ग और दूत

जब शासक वर्ग को अपने दूतों या गुप्तचर विभाग के द्वारा यह स्पष्ट हो जाए कि अमुक देश हमसे किसी न किसी प्रकार का शत्रु भाव रखता है और उसका ऐसा शत्रुभाव हमारे लिए या हमारे देश की एकता और अखंडता के लिए घातक सिद्ध हो सकता है तो शासक वर्ग को सावधान होकर ऐसे शत्रु देश के प्रति समुचित नीतियों का निर्धारण करना चाहिए। समुचित नीतियों का अभिप्राय है कि अपने देश की एकता और अखंडता के प्रति पूर्ण सावधानी बरतते हुए ऐसे शत्रु देश के प्रति किसी भी सीमा तक जाने की क्षमता रखनी चाहिए।
राज्य में शांति – व्यवस्था बनाए रखने और जनसाधारण को अपने लोकतांत्रिक मानवाधिकारों का खुलकर प्रयोग करते रहने के लिए आवश्यक है कि राजा सुरक्षा हेतु सैन्य बल या सुरक्षा बलों की ओर भी विशेष ध्यान दे। राज्य में भीतरी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए सुरक्षा बलों की आवश्यकता होती है। यह आवश्यक नहीं है कि राज्य में सभी लोग शांतिप्रिय और देशभक्त हों। कई बार ऐसा भी होता है कि शत्रु देश छद्म नीतियों का सहारा लेकर हमारे देश में शांति व्यवस्था को भंग करने के कुचक्र चलता है। इसके लिए वह भीतरी शांति व्यवस्था को बिगाड़ने हेतु कई प्रकार के हथकंडों का उपयोग कर सकता है। उसके ऐसे कुचक्रों के द्वारा के जाल में हमारे देश का कोई भी नागरिक फंस सकता है या लोभ आदि में फंस कर देश के विरुद्ध कार्य कर सकता है। ऐसे देश घातक लोग किसी भी प्रकार से देश को दुर्बल करने में सफल न हों, इसके लिए सुरक्षा बलों की आवश्यकता होती है। सुरक्षाबलों की नियुक्ति करना किसी शासक की दुर्बलता नहीं है अपितु ऐसा करना उसकी अपने धर्म और देश के प्रति जागरूकता पूर्ण नीतियों को प्रकट करता है।

नगरों की सुरक्षा व्यवस्था

  किसी भी शासक का यह पवित्र धर्म होता है कि वह शांति पूर्ण परिस्थितियां उत्पन्न कर जनसाधारण को उनके आत्मिक कल्याण और स्वराज्य के पूर्ण उपभोग का सुअवसर उपलब्ध कराए। इसलिए सुंदर जंगल, धन धान्य युक्त देश में धनुर्धारी पुरुषों से गहन मिट्टी से किया हुआ, जल से घिरा हुआ अर्थात चारों ओर वन, चारों ओर सेना रहे अर्थात चारों ओर पहाड़ों के बीच में कोट बनाकर इसके मध्य में नगर बनावे। 
 इस प्रकार के वर्णन से स्पष्ट है कि वनों के बीच में या चारों ओर से बनी पहाड़ियों के बीच में या सुरक्षाबलों से घेरकर नगर बसाना आर्य राजाओं की पुरानी परंपरा है। आज भी भारत वर्ष में ऐसे अनेक नगर हैं जो पहाड़ों या वनों से घिरे हुए हैं। इस प्रकार के नगरों को देखकर हमें भारत के आर्य राजाओं के स्वर्णिम इतिहास और उनकी जनहितैषी राजनीति का बोध होता है। वास्तव में सुरक्षा नीति को सुदृढ़ करना भी प्राचीन काल में भारतीय राजनीति का एक अंग होता था। इसका कारण केवल यह था कि नागरिकों की सुरक्षा करना राज्य का सर्वोपरि कर्तव्य धर्म माना जाता था। इस चिंतन को पश्चिम ने भारत से चुराया है और आज भारत के कई लोगों को ऐसा लगता है कि नागरिकों की सुरक्षा व्यवस्था करने के राज्य के प्रथम कर्तव्य धर्म को हमें पश्चिम के राजनीतिक विद्वानों ने सिखाया है। जबकि यह बात सिरे से ही निराधार है। 
इसी बात को स्वामी दयानंद जी आगे इस प्रकार स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि नगर के चारों ओर प्राकार अर्थात परकोटा बनाया जाए, क्योंकि उसमें स्थित हुआ एक वीर धनुर्धारी शस्त्रयुक्त पुरुष सौ लोगों के साथ और सौ दस हजार लोगों के साथ युद्ध कर सकते हैं, इसलिए अवश्य दुर्ग का बनाना उचित है। 

दुर्गों के बिना रहने से किसी भी आकस्मिकता के समय या किसी विदेशी हमला के समय अधिक प्राण हानि होने की संभावना रहती है । यदि दुर्ग बना लिए जाते हैं तो प्राण हानि की संभावना कम हो जाती है। राजनीति का उद्देश्य है कि निर्बल या निरपराध जन किसी भी स्थिति में मारे न जाएं। यही कारण है कि अपनी प्रजा की रक्षा करने के लिए राजा दुर्गों का निर्माण करे, ऐसी व्यवस्था हमारे राजनीतिक विद्वानों के द्वारा की गई है। राजा के सुंदर और भव्य राजभवनों की अनिवार्यता से भी महर्षि दयानंद पूर्णतया सहमत हैं। राजा यदि अपने आपको दीन- हीन और फटे हाल रखेगा तो उसका ऐसा स्वरूप उसकी प्रजा और अधिकारियों पर विपरीत प्रभाव डालेगा। अतः उसके रहन- सहन और पहनावे में कुछ विलक्षणता होनी आवश्यक है।
इसके लिए मनु महाराज ने व्यवस्था की है कि राजा दुर्ग शस्त्रास्त्र, धन-धान्य, वाहन ,ब्राह्मण पढ़ाने उपदेश करने वाले हों, ( शिल्पी ) कारीगर, यंत्र, नाना प्रकार की कला, चारा, घास, जल आदि से संपन्न अर्थात परिपूर्ण हो, उसके मध्य में जल वृक्ष पुष्पादिक सब प्रकार से रक्षित, सब ऋतुओं में सुखकारक श्वेत वर्ण अपने लिए घर जिसमें सब राज कार्य का निर्वाह हो सके, वैसा बनवावे।

राकेश कुमार आर्य

मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
प्रकाशक का दूरभाष नंबर : 011 – 407122000।

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