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श्रद्धा की हत्या हिन्दू समाज की अकर्मण्यता का परिणाम

आफताब ने मात्र श्रद्धा की हत्या नहीं की है अपितु उन सभी लड़कियों के माता पिता की शिक्षा व् संस्कारो की है जो अपनी बच्चियों को एक बकरी की भाँती इस्लामिक कसाई के समक्ष सेक्युलरिसिम मित्रता के नाम पर हलाल होने के लिए छोड़ देते हैं। हिन्दू समाज की अकर्मण्यता व् कायरता सदैव इस बात की साक्षी रही है की जब भी इस प्रकार की निर्मम हत्या इस्लामिक जिहादियों द्वारा की जाती है तो हिन्दू समाज या तो लड़की को चरित्रहीन घोषित कर देता है या अपराधी के अपराध की मूल भावना इस्लामिक जिहाद से न जोड़कर उसको मानसिक रोगी होने का प्रमाण पत्र दे देता है। लिव इन रिलेशनशिप का चलन बहुत तीव्रता से बढ़ रहा है मकान मालिक को अपना किराया चाहिए, पडोसी को मानसिक शान्ति व् माता पिता को हाई क्लास सोसाइटी अतः इस स्तिथि में कोई लड़की बचे भी तो कैसे। क्यूंकि हिन्दू समाज अपनी बच्चियों के जन्म लेने पर सदैव यही कहता है की लक्ष्मी आयी है परन्तु यह कभी नहीं चाहता कि उनकी बिटिया माँ काली व दुर्गा रूप धारण कर जिहादी रुपी असुरों का संघार करने में भी सक्षम हो। जब बिटिया चौदह वर्ष की आयु से आगे निकल जाती है तो उसका पार्टियों में जाना , ब्रांडेड रेस्टोरेंट में जाना , सभी माता पिता का स्टेटस सिंबल बन जाता है परन्तु उन पार्टियों से बच्ची क्या सीख रही है, उसकी मित्र मंडली कैसी है, उन पार्टियों में किस तरह का सेवन होता है इससे माता पिता को कोई सरोकार नहीं है। इन परिस्थितियों में क्या मात्र अब्दुल दोषी है, क्यूंकि अब्दुल की तो प्राथमिक शिक्षा ही यही है की काफिरो की महिला तुम्हारी अब्द ( दासी ) है और माल ए गनीमत के मजहबी नियमानुसार अब्दुल जैसे सभी जिहादियों को काफिर महिला के साथ किसी भी सीमा तक कुकर्म करना जायज है। इसीलिए दोष अब्दुल में नहीं अपितु हिन्दू समाज को स्वम के अंदर खोजना होगा एवं अवलोकन करना होगा की इस दुर्दांत मजहबी मानसिकता से लड़ने के लिए हिन्दू समाज कितना सक्षम है । प्रत्येक घटना पर मुकदमा होता है, कैंडल मार्च होता है, तत्पश्चात अब्दुल जैसा जिहादी अपराधी इस्लामिक इकोसिस्टम के दम पर एक मजहबी हीरो की तरह घर वापसी करता है। जबकि इसके विपरीत यदि भूलवश अंकित ( दिल्ली का हिन्दू लड़का ) किसी मुस्लिम लड़की से मात्र दोस्ती भी कर लेता है तो इस्लाम के नियमानुसार उसका सर तन से जुदा कर दिया जाता है। जिसके पश्चात हिन्दू लड़के की बात तो बहुत दूर मुस्लिम लड़की भी किसी हिन्दू लड़के से सामान्य मित्रता तक करने की हिम्मत नहीं दिखा पाती है।अतः सोचना हिन्दू समाज को है इस्लाम को नहीं ।

दिव्य अग्रवाल

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