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कविता

गीता मेरे गीतों में , गीत 57 ( गीता के मूल ७० श्लोकों का काव्यानुवाद)


समझ बिना अस्थि वाले को

ब्रह्मामृत का सेवन करते, हम उसको ही ध्याते भजते रहें।
मिलेगा निश्चय वह हमें ऐसा जान निरंतर आगे बढ़ते रहें।।

स्थित समस्त धामों में , हमारे विचार भाव में रमा हुआ।
जानता भाव-भुवन को भी,ना कोई उससे बचा हुआ।।

प्रभु के ऊंचे खेलों को ना हर कोई समझ पाता जग में।
जो भी समझ लेता उसके ,ना संशय शेष रहे मन में।।

हृदय की गुहा में मिलता है वहीं बैठा खेल रचा करता।
कठपुतलियों को संकेत करे ,अपने आप छुपा रहता।।

यंत्रवत सारा संसार चले एक संकेत पर सारा जग नाचे।
जितने भर भी प्राणी जग में , उतने ही बनाए हैं सांचे।।

अनमोल सभी का जीवन है , अनमोल बनाने वाला है।
अनमोल को अल्पज्ञ कभी – ना सही समझने वाला है।।

समाधान बनो – व्यवधान नहीं , उत्तर बनो – प्रश्न नहीं।
सच्चे सीधे साधक बन सोचो संसार क्या है – क्या नहीं।।

सौंदर्य में मैं ही चमकता अर्जुन!जल में भी मेरी शक्ति है।
यदि तूने ऐसा समझा नहीं तो निष्फल तेरी भक्ति है।।

सब प्राणियों का बनकर साथी मैं श्वास संभाले रखता हूँ।
हरियाली में भी है वास मेरा, आकाश संभाले रखता हूँ।।

प्रकृति- पाश में बांधे रखते , यह नेत्र हमारे जो दीख रहे।
प्रकृति से परे जो कुछ भी है , इनसे कभी ना दीख सके।।

दिव्य चक्षु से हम देख सकें जो सूत्र सभी को बांध रहा।
मैं समझ सकता तेरा संशय जो हृदय में तेरे कौंध रहा ।।

अस्थि वाले को चला रहा, बिन अस्थि वाला भीतर बैठा।
समझ बिना अस्थि वाले को , क्यों रथ में पीछे तू बैठा ?

पीछे हटना कभी उचित नहीं, आगे बढ़ना अनुकूल तेरे।
यदि निर्णय उचित लिया नहीं तो व्यर्थ रहेंगे अस्त्र तेरे।।

जीवन सार्थक तब ही होता, जब भक्ति भी सोपान चढ़े।
जीवन को निरर्थक समझो उसको जो भक्ति से दूर हटे।।

यह गीत मेरी पुस्तक “गीता मेरे गीतों में” से लिया गया है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है । पुस्तक का मूल्य ₹250 है। पुस्तक प्राप्ति के लिए मुक्त प्रकाशन से संपर्क किया जा सकता है। संपर्क सूत्र है – 98 1000 8004

डॉ राकेश कुमार आर्य

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