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भारतीय संस्कृति

“वेदों का यथार्थ ज्ञान वेदांगों के अध्ययन से ही सम्भव”

ओ३म्

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वेद ईश्वरीय ज्ञान है और सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। सभी विद्याओं का विस्तार वेदों के आधार व ज्ञान से ही सम्भव हो सका है। वेद सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा से उत्पन्न हुए। परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि की थी। इस अमैथुनी सृष्टि में सभी स्त्री व पुरुष युवावस्था में उत्पन्न हुए थे। इन युवाओं में चार ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को ईश्वर ने चार वेदों का ज्ञान दिया था। वेदों का ज्ञान संस्कृत भाषा में है जो मनुष्यों की बनाई हुई भाषा नहीं अपितु ईश्वर की अपनी भाषा है। संसार की यह पहली व अन्तिम भाषा है जो मनुष्यकृत नहीं है जबकि अन्य सभी भाषायें मनुष्यकृत हैं। मनुष्यकृत भाषा न होने के कारण ही वेदों की संस्कृत भाषा अनेक दृष्टियों से सर्वोत्कृष्ट भाषा है। चारों वेद मन्त्र-संिहताओं में हैं जो ़ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद कहलाते हैं। उपर्युक्त चार ऋषियों को परमात्मा ने एक एक वेद का ज्ञान दिया था। इन ऋषियों ने ईश्वर की प्रेरणा से वह ज्ञान जो उनको प्राप्त हुआ था, ब्रह्मा जी नाम के अन्य ऋषि को कराया। यह भी जान लें कि परमात्मा ने चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान अर्थ सहित दिया था और इन ऋषियों ने भी ब्रह्मा जी को चारों वेदों का ज्ञान अर्थ सहित ही कराया था। यदि वेदों का ज्ञान अर्थ सहित न दिया जाता तो फिर इन ऋषियों को वेद ज्ञान प्राप्त होने का कोई महत्व ही न होता। यह ऐसा ही होता कि हम किसी भाषा को बोलना तो जानते हैं, सुन तो सकते हैं परन्तु उसके अर्थ नहीं जानते। ऐसे विशेष ज्ञान वेदों का अर्थ न जानने से वेदों का कोई महत्व ही न होता। इसलिए यह स्वीकार करना पड़ता है कि ईश्वर ने वेदों का ज्ञान अर्थ सहित ही दिया था। इस प्रकार सृष्टि के आरम्भ में पांच शिक्षक, ब्रह्मा, अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा तैयार हुए जिन्होंने इतर सभी मनुष्यों अर्थात् स्त्री-पुरुषों को वेदों व वेदों की मुख्य मुख्य शिक्षाओं का ज्ञान कराया और बाद में कुछ लोगों को चारों वेद स्मरण कराने सहित उनका अर्थ ज्ञान भी कराया। यह ज्ञात करना कि ब्रह्मा जी को कितने समय में वेदों का अर्थ सहित ज्ञान हुआ होगा, बता पाना सम्भव नहीं है। परन्तु अनुमान किया जा सकता है कि इस कार्य में महीनों लगे होंगे।

वेद संस्कृत भाषा में हैं और सभी वेद मन्त्र स्वर व छन्दों में बद्ध हैं। वर्तमान में वेदों के ज्ञान के लिए जिन अंगों का अध्ययन अनिवार्य रूप से करना होता है उनमें प्रथम तीन पाणीनीय शिक्षा, व्याकरण ग्रन्थ एवं निरुक्त-निघण्टु का ज्ञान आवश्यक है। बिना इन तीन अंगों के कोई मनुष्य वेदों के मन्त्रों के अर्थ को नहीं जान सकता। शिक्षा ग्रन्थों से हमें वर्णमाला, अक्षरों व मात्राओं आदि सहित अक्षरों व शब्दों के उच्चारण का ज्ञान प्राप्त होता है। किसी भी भाषा को जानने के लिए उस भाषा की वर्णमाला, उनके अक्षरों का उच्चारण, शब्दों के उच्चारण व उनके अर्थों का ज्ञान होना आवश्यक है। शिक्षा ग्रन्थ संस्कृत की वर्णमाला का ज्ञान कर लेने के बाद संस्कृत की व्याकरण का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। वेदों के शब्द अर्थ व सम्बन्ध का ज्ञान प्राप्त करने के लिए संस्कृत की जिस व्याकरण का अध्ययन सर्वाधिक लाभप्रद होता है उसे अष्टाध्यायी-महाभाष्य पद्धति कहा जाता है। निरुक्त ग्रन्थ महर्षि यास्क का लिखा हुआ है। इस ग्रन्थ में वेदों के पदों अर्थात् शब्दों के अर्थों की व्याख्या व निर्वचन दिये गये हैं। कुछ मन्त्रों के भाष्य भी निरुक्त ग्रन्थ में उपलब्ध होते हैं। निरुक्त से पूर्व वर्णोच्चारण शिक्षा और व्याकरण के सभी ग्रन्थों का ज्ञान व उनके प्रयोग की विधि ज्ञात हो जाने पर निरुक्त की सहायता से वेदों के मन्त्रों के अर्थ करने की कुछ कुछ योग्यता अध्येता को प्राप्त हो जाती है। महर्षि दयानन्द जी ने इन ग्रन्थों का अध्ययन ही अपने विद्यागुरु प्रज्ञा चक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से मथुरा में किया था। स्वामी दयानन्द स्वामी विरजानन्द जी के अन्तेवासी शिष्य थे। वह स्वामी विरजानन्द जी की सभी प्रकार से सेवा शुश्रुषा करते थे। ऐसा करते हुए स्वामी जी अपनी शंकाओं का समाधान कर लिया करते थे और गुरु जी कुछ रहस्य व गूढ़ सिद्धान्तों आदि की बातें अपने योग्यतम शिष्य दयानन्द को बताया करते थे। ऐसा करते हुए लगभग ढाई वर्षो (1860-1863) में स्वामी दयानन्द जी की शिक्षा पूर्ण हुई थी। गुरु विरजानन्द जी से ही सम्भवतः स्वामी जी ने ज्योतिष, कल्प ग्रन्थों व छन्द शास्त्र का कुछ व पूर्ण अध्ययन भी किया था।

वेद ईश्वरीय ज्ञान और सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। अतः वेदों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए केवल उच्चारण, शब्दार्थ व व्याकरण का ही ज्ञान पर्याप्त नहीं है अपितु छन्द, ज्योतिष व कल्प ग्रन्थों का ज्ञान भी आवश्यक एवं लाभप्रद है अन्यथा वैदिक विद्वान, वेदभाष्यकार व वेद प्रचारकों द्वारा वेदों के मन्त्रों के यथार्थ अर्थ करने में न्यूनता रह सकी है। आर्यसमाज में यह अनुभव होता है कि हमारे पास व्याकरणाचार्य और निरुक्ताचार्य विद्वान तो अनेक हैं परन्तु छन्द शास्त्र, ज्योतिष व कल्प ग्रन्थों के विद्वान कम है। ऐसी स्थिति में ऋषि दयानन्द एवं अन्य आर्य विद्वानों के वेदों पर भाष्य से ही हमारे विद्वान व पाठक वेदार्थ का निर्धारण करते हैं। हमारा सौभाग्य है कि वर्तमान में हमारे पास ऋषि दयानन्द जी ने जितना वेद भाष्य किया है, वह समस्त भाष्य अनेक आर्य विद्वानोें के भाष्यों सहित उपलब्ध है। वेदों के भाष्य, वेदांगों व उपांगों का अध्ययन कर वेदार्थ को जानने में सरलता होती है। ऋषि दयानन्द ने संसार के लोगों पर महती कृपा कर वेदों का अन्वय, पदार्थ व भावार्थ सहित वेदभाष्य प्रदान किया है जिससे हिन्दी का ज्ञान रखने वाला साधारण व्यक्ति भी वेदों का अध्ययन कर वेदों का ज्ञान ग्रहण कर सकता है। उनके द्वारा लिखी गई चारों वेदों की भूमिका का ग्रन्थ ‘ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका’ वेदों पर सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। एक प्रकार से यह चारों वेदों का संक्षिप्त व सार रूप में भाष्य ही है। इसमें वेदों के अधिकांश विषयों को विषयानुसार वेद मन्त्रों के भाष्यों सहित प्रस्तुत किया गया है। इस ग्रन्थ को पढ़ लेने मात्र से ही चारों वेदों का संक्षिप्त ज्ञान हो जाता है। इसके बाद ऋषि दयानन्द के वेदभाष्य व शेष भाष्य के लिए अन्य आर्य वेदभाष्यकारों के भाष्यों का अध्ययन किया जा सकता है।

ऋषि दयानन्द ने इतना ही नहीं अपितु सत्यार्थप्रकाश और संस्कारविधि सहित आर्याभिविनय आदि ग्रन्थ लिखकर भी वेदार्थ की बहुत बड़ी सेवा की है। इन सबके अध्ययन से एक प्रकार से मनुष्य वेदार्थ का बोध ही तो प्राप्त करता है। ऋषि दयानन्द के इन ग्रन्थों की विशेषता यह है कि उन्होंने संस्कृत में वेद भाष्य करने के साथ अपने वेदभाष्य में मन्त्रों के हिन्दी पदार्थ व भावार्थ भी दिये हैं। उनका यह कार्य क्रान्तिकारी कार्य है। अविद्या से ग्रस्त संसार ने उनके वेदभाष्य एवं वैदिक ग्रन्थों के महत्व को नहीं जाना और उनकी उपेक्षा ही की। इससे ऋषि दयानन्द की अपनी तो कोई हानि नहीं हुई अपितु इससे देश देशान्तर के लोगों की ही हानि हुई है। वह ईश्वर के ज्ञान व शिक्षाओं से वंचित होकर ईश्वर की अवज्ञा व वेदविरुद्ध आचरण करके अपने जीवन का बहुमूल्य समय वृथा गंवा रहे हैं। इसके परिणाम उनके लिए इस जन्म व परजन्म में दुःखदायक होंगे, ऐसा ज्ञान, अनुभव व अनुमान से कहा जा सकता है।

पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जी ने अपने समय में वेदों के प्रचार प्रसार के लिए लोगों को अष्टाध्यायी आदि व्याकरण ग्रन्थों का अध्ययन कराने का कार्य किया था। इसी कार्य को बाद में पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं. युधिष्ठिर मीमांसक, आचार्य भद्रसेन, आचार्या प्रज्ञादेवी जी, स्वामी ओमानन्द सरस्वती, स्वामी प्रणवानन्द आदि अनेक ऋषि भक्तों ने पूरी श्रद्धा से किया। लोगों को व्याकरणाचार्य बनाने के लिए आज गुरुकुल झज्जर, पौधा, रेवली, कालवां, मेरठ आदि में अनेक गुरुकुल चल रहे हैं। हमें लगता है कि जब तक हमारे पास गुरुकुल और व्याकरणाचार्य हैं, वेदों का ज्ञान सुरक्षित है। आवश्यकता समर्पित व त्याग भाव से कार्य करने वाले व्याकरणाचार्य तैयार करने की है जो सभी प्रलोभनों से दूर रहकर ऋषि दयानन्द के मिशन को आगे बढ़ायें। संसार में सभी मत-मतान्तरों के प्रमुख आचार्यों तक वेद ज्ञान को सरल व सुबोध रूप में पहुंचाना व उनसे वेदों को स्वीकार कराना आर्यसमाज का मुख्य कार्य है। इसमें हम अब तक प्रायः असफल हैं। दिन प्रतिदिन वेदों के स्वाध्याय के प्रति घट रही प्रवृत्ति को देखकर चिन्ता होती है। आर्यसमाज को चाहिये कि वह सभी वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों के लघु ग्रन्थ वा लेख आदि तैयार कराकर उनका पठित व प्रबुद्ध जनता में प्रभावशाली प्रचार करे। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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