माँ के चरणों में झुके, जितना नर का माथ।

माँ की महिमा :-

माँ के चरणों में झुके,
जितना नर का माथ।
उतना ही ऊँचा उठे,
ईश्वर पकड़े हाथ॥1821॥

जन्नत माँ की गोद है,
जीते जी मिल जाय।
माँ का नहीं मुकाबला,
सब बौने पड़ जाएं॥1822॥

माँ का दिल ममता भरा,
वात्सल्य का कोष।
कोमल है नवनीत सा,
स्वर्ग सी है आगोश॥1823॥

माँ होती है प्यार की बदली,
निशदिन पड़ें फुहार।
माँ की ताड़ना में भी हित है,
जीवन देय सुधार॥1824॥

माँ ईश्वर का रूप है,
सौम्यता की तस्वीर।
माँ के आशीर्वाद से,
घटती जावै पीर॥1825॥

अपमान उपेक्षा अभाव में,
माँ देती है प्यार।
तन,मन,धन की कुर्बानी को,
हर – दम रहती त्यार॥1826॥

उत्पत्ति की क्षमता के केवल,
पृथ्वी तत्त्व में पाय।
इसीलिए संसार में,
धरती माँ कहलाय॥1827॥

सब देवों में श्रेष्ठ है,
माता का स्थान।
इसलिये तो वेद ने,
काह है मातृमान॥1828॥

अश्रु ढलकें आँख से,
देख दुःखी संतान।
फिर भी साथ नहीं छोड़ती,
मैया मेरी महान् ॥1829॥

माँ का ऋण उतरे नहीं,
कोटी जनम के बाद।
माता का करो मान तुम,
मत भूलो मर्याद॥1830॥

पय – पान करावै शिशु को,
गर्भ में देती खून।
लेखनी भी ना लिख सके,
माँ – महिमा मजबून॥1831॥

पन्ना – सी इतिहास में,
मिलती नहीं मिसाल।
मेवाड़ – दीप बचाने को,
दिया कोख का लाल॥1832॥

मां भावनाओं का पुँज है,
साहसी और गम्भीर।
होंसला देती दु:ख में,
सदा बंधावै धीर॥1833॥

माँ हिमालय सा पाशवाँ,
उर में दया की गंग।
माँ के बेटों ने रखा,
उँचा सदा तिरंग॥1834॥

माँ साहस में शेरनी,
और दया में नीर।
रत्नगर्भा कोख से ,
दिए अनेको वीर॥1835॥

आकाश – मुखी क्षमाशील है,
मैया तेरा स्वभाव।
तेरे दर्शन मात्र से,
जगता भगवद् – भाव॥1836॥

आकाशमुखी से अभिप्राय :-

संसार में दो प्रकार के व्यक्तित्व होते हैं :- पाषाण – मुखी वे लोग होते हैं, जो दूसरों को पत्थर की तरह दबा कर रखते हैं, जैसे – पत्थर के नीचे उगने वाला पौधा। आकाश – मुखी जो लोग होते हैं, जो आकाश की तरह सब को विकसित अथवा फलने – फूलने का अवसर देते हैं। माँ का व्यक्तित्व इसी प्रकार का होता है इसलिए माँ को आकाश – मुखी कहा गया है।
क्रमशः

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