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संपादकीय

हिंदू शब्द की प्राचीनता और वर्तमान समय में इसका महत्व

एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के 15 वें संस्करण में हिंदुत्व का अर्थ करते हुए स्पष्ट किया गया है कि :- ‘हिंदुओं की सभ्यता जो लगभग 2000 वर्षों में वेदों से विकसित हुई , इसमें परस्पर विपरीत मत तथा तत्व निहित है। यह एक विराट अविच्छिन्न समग्र का अत्यंत जटिल संपुंजन है।…. हिंदुत्व में समस्त जीवन का समावेश होता है, इसीलिए उसके धार्मिक ,सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक तथा कलात्मक पक्ष हैं।’
हिंदू शब्द की उत्पत्ति को लेकर अक्सर चर्चा होती है । कई लोगों का कहना है कि यह शब्द वेदों में आया है और वहीं से लिया गया है । इस प्रकार हमारी मूल पहचान हिंदू के साथ जुड़ी हुई है। परंतु सच यह है कि वेदों में कहीं पर भी हिंदू शब्द नहीं आया है। यद्यपि इस शब्द का भारतीयकरण इस प्रकार हो गया है कि यह हमारे प्राचीन साहित्य में मुसलमानों और अंग्रेजों के आने से पहले ही घुल मिल गया। हिंदू शब्द व्याकरण का शब्द नहीं है।
ऋग्वेद में सप्त सिन्धु शब्द मिलता है। आर्य भाषाओं की ‘स्’ ध्वनि (संस्कृत का व्यंजन ‘स्’) ईरानी भाषाओं की ‘ह्’ ध्वनि में बदल जाती है। विशेषज्ञों का मानना है कि सप्त सिन्धु अवेस्तन भाषा (पारसियों की धर्मभाषा) में जाकर हफ्त हिन्दू में परिवर्तित हो गया। (अवेस्ता : वेंदीदाद, फर्गर्द 1.18)। इसी प्रकार सप्ताह का हफ्ता और केसरी शब्द का केहरी वहां पर हो गया है। इसी प्रकार संकट का हंकट ,संकल्प का हंकल्प, संकीर्ण का हंकीर्ण, संकोच का हंकोच, संक्षेप का हंखेप, संख्या का हंख्या, संगम का हंगम, संगति का हंगति, संचार का हंचार, संतान का हंतान, संतोष का हंतोष, संदेश का हंदेश , संध्या का हंध्या, संपादक का हंपादक शब्द हो गया है। इन सब से स्पष्ट होता है कि सिंधु शब्द भी शब्द के उच्चारण में आए दोष के कारण रूढ़ हुआ है।
स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है कि :- ‘हिंदू एक संप्रदाय का प्रतीक नहीं वरन उदार व्यापक शब्द है। हिंदू शब्द के अंतर्गत भारत के समस्त संस्कृति, सभ्यता, मानव विकास, इतिहास एवं भारतीय पंथों एवं मत मतांतरों का समावेश हो जाता है। हिंदू शब्द ओर छोर हीन सागर तुल्य है, जिसमें समस्त नदियां विभिन्न नामों के साथ जल लाती हैं और उसमें मिलकर एकाकार हो जाती हैं।’
ईरानियों ने सिन्धु नदी के पूर्व में रहने वालों को ‘हिन्दू’ नाम दिया। जो लोग यह मानते हैं कि अरब के आक्रमणकारियों ने हिंदुओं को कमतर आंकने के उद्देश्य प्रेरित होकर हिंदू शब्द दिया, वह भी गलत मानते हैं। अरब के सुप्रसिद्ध कवि लबि ने ईसा से भी सत्रह सौ साल पहले भारत की पवित्र भूमि को हिंद की पवित्र भूमि कहकर संबोधित किया है। उस समय इस्लाम या मुसलमान नाम की चीज़ दुनिया में नहीं थी। उस कविता के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि हिंदुस्तान या हिंद की पवित्र भूमि को उस समय बहुत सम्मान के साथ अरब के लोग देखा करते थे। क्योंकि उस समय वेदों की इस पवित्र भूमि पर जन्म लेना या कुछ समय यहां गुजारना भी बहुत महत्वपूर्ण माना जाता था।
कवि लवी कहता है कि हे हिंद की पुण्य भूमि तू धन्य है , क्योंकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझको चुना।
वह ईश्वर का ज्ञान प्रकाश जो चार प्रकाश स्तंभ के सदृश संपूर्ण जगत को प्रकाशित करता है ,हिंदू के ऋषियों द्वारा चार वेदों के रूप में प्रकट हुआ और परमात्मा समस्त संसार के मनुष्यों को आज्ञा देता है कि वेद जो मेरे ज्ञान हैं इसके अनुसार आचरण करो।
वह ज्ञान के भंडार साम और यजु हैं जो ईश्वर के प्रदान किए हुए हैं। इसलिए हे मेरे भाइयों इनको मानो, क्योंकि यह हमें मोक्ष का मार्ग बताते हैं।
और दो उनमें से ऋग्वेद और अथर्ववेद हैं, जो हमको भ्रातृत्व की शिक्षा देते हैं। जो इनके प्रकाश में आ गया, वह कभी अंधकार को प्राप्त नहीं होता।
रामधारी सिंह दिनकर ने अपने ग्रंथ ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में हिंदू शब्द के विषय में लिखा है कि :- ‘भारत से बाहर के लोग भारत अथवा भारतीयों को ‘हिंदू’ या ‘इंडो’ कहा करते थे। … ईरानियों द्वारा दिया हिंदू नाम संस्कृत भाषियों के द्वारा संपूर्ण भारत व भारतवासी जनता के समुच्चय नाम के रूप में स्वीकृत हो गया।’
संस्कृत में इंदु चंद्रमा को कहते हैं। ह्वेंनसांग नामक चीनी यात्री ने भारत के लोगों को हिंदू के नाम से पुकारा है। ऐसा उसने इसलिए किया है कि जब वह जम्मू-कश्मीर और पंजाब के लोगों के संपर्क में आया तो उसने उनकी सुंदर मुखाकृति को चंद्रमा के समान देखा और इसी से प्रेरित होकर उसने यहां के लोगों को इंदु के नाम से पुकारा। चीन में चंद्रमा को इंतु कहा जाता है। अत: चीन के लोग भारतीयों को ‘इंतु’ या ‘हिन्दू’ कहने लगे। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत के लोगों को हिंदू शब्द मुसलमानों की देन नहीं है।

 बृहस्पति संहिता में लिखा है:-

ॐकार मूलमंत्राढ्य: पुनर्जन्म दृढ़ाशय:
गोभक्तो भारतगुरु: हिन्दुर्हिंसनदूषक:।
हिंसया दूयते चित्तं तेन हिन्दुरितीरित:।

‘ॐकार’ जिसका मूल मंत्र है और पुनर्जन्म को जो बड़ी दृढ़ता से मानता है, भारत ने जिसका प्रवर्तन किया है तथा हिंसा की जो निंदा करता है, वह हिन्दू है।

भारत के दूसरे राष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन ने 24 जनवरी 1965 को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में इस श्लोक का उल्लेख किया था:-
‘हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥’- (बृहस्पति आगम)
अर्थात : हिमालय से प्रारंभ होकर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक यह देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है।

 इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि हिमालय का आरंभिक अक्षर अर्थात हि और तमिलनाडु की ओर स्थित इंदु सागर का अंतिम अक्षर मिलकर हिंदू शब्द का निर्माण करते हैं। इस विशाल भूखंड पर जो लोग रहते हैं वह हिंदू कहलाते हैं और इतने बड़े क्षेत्र को हिंदुस्तान कहते हैं। स्पष्ट है कि यह ग्रंथ भी मुसलमानों के ग्रंथों से पहले लिखा गया था। किस प्रकार हिंदू और हिंदुस्तान भारत की राष्ट्रीयता के प्रतीक शब्द बन गए। इसके साथ ही जब हिंदी का विकास हुआ तो हिंदी भारत की आत्मा का प्रतिनिधित्व करने लगी। इस प्रकार सावरकर जी जैसे विद्वानों ने हिंदी हिंदू हिंदुस्तान को इस देश का प्राण तत्व स्वीकार किया। इसी को कभी भारतवर्ष में आर्य ,आर्य भाषा, और आर्यावर्त के नाम से जाना जाता था।
मक्का मदीना में हज के लिए जाने वाले भारत के मुसलमानों को आज भी हिंदी मुसलमान कहा जाता है। जैसे अमेरिका के लोगों को अमेरिकन और चीन के लोगों को चीनी और रूस के लोगों को रूसी कहा जाता है वैसे ही भारत के लोगों को हिंदी या हिंदू कहा जाता है। इससे स्पष्ट है कि यह शब्द हमारी राष्ट्रीयता से जोड़कर देखा जाता है।
  शोध करके विद्वानों ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जब प्राकृत एवं अपभ्रंश शब्दों का प्रयोग साहित्यिक भाषा के रूप में होने लगा, इसके बाद ही संस्कृत सहित अन्य भाषाओं में हिंदू शब्द का प्रयोग आरंभ हुआ। ब्राहिस्पत्य, कालिका पुराण, कवि कोश, राम कोश, कोश, मेदिनी कोश, शब्द कल्पद्रुम, मेरूतंत्र, पारिजात हरण नाटक, भविष्य पुराण, अग्निपुराण और वायु पुराणादि संस्कृत ग्रंथों में ‘हिन्दू’ शब्द जाति अर्थ में सुस्पष्ट मिलता है।
क्रांतिवीर दामोदर सावरकर ने ‘हिंदुत्व’ नामक अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में लिखा है कि :- ‘वह हिंदू नाम जो हमारी जाति तथा देश को हमारे महान पूर्वजों ने प्रदान किया है, जिसका उल्लेख विश्व के सबसे अधिक प्राचीन और पूज्य ग्रंथ वेदों में भी प्राप्य है, जिस नाम से कश्मीर से कन्याकुमारी तक अटक से कटक पर्यंत हमारे समग्र देश की अभिव्यक्ति होती है, जो नाम एक ही शब्द में हमारी जाति और देश की भौगोलिक स्थिति को स्पष्ट कर देता है, जो नाम हमारी विशिष्टता और श्रेष्ठता का परिचायक राष्ट्रमार्यस्य चोत्तमम का दिग्दर्शक माना गया, उस नाम का कोई कैसे परित्याग कर सकता है।’
हिंदू और हिंदुत्व किस प्रकार भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रतीक बन गए हैं और किस प्रकार इसे न्यायिक बुद्धि के माध्यम से भी इसी रूप में सर्व स्वीकृति प्रदान की गई है, इसको स्पष्ट करने के लिए 1976 में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा हिंदू शब्द की जिस प्रकार व्याख्या की गई है उसे बताया जाना आवश्यक है। तब उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि यह बात सर्व सामान्य जानकारी में है कि हिन्दुत्व में विभिन्न प्रकार के इतने मत विश्वास, प्रथाएं और उपासना पद्धतियां सम्मिलित हैं कि हिन्दुत्व शब्द की ठीक-ठीक परिभाषा करना कठिन काम है ।
1995 में उच्चतम न्यायालय ने फिर से हिंदुत्व को परिभाषित करते हुए स्पष्ट किया कि हिंदुत्व शब्द का कोई संकीर्ण अर्थ समझना आवश्यक नहीं है। उसे केवल हिंदू धार्मिक अनुष्ठानों या नीतियों तथा व्यवहारों तक सीमित करके संस्कृति से असंबद्ध रूप से देखना आवश्यक नहीं है। वह तो भारतीय जन की जीवन शैली है और संस्कृति से संबंधित है। जब तक हिंदुत्व शब्द का किसी भाषा में इससे विपरीत अर्थ में प्रयोग न किया गया हो तब तक हिंदुत्व का प्रमुख अर्थ है भारतीय लोगों की जीवनशैली, न कि किसी हिंदू पंथ के लोगों के रीति रिवाज मात्र।
वास्तव में हिंदू हिंदुस्थान के रूप में जबसे भारतीय संस्कृति के साथ रचा बसा है, तब से वह हमारी सांस्कृतिक व राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक बन गया है। मूल रूप में हम आर्य होते हुए भी हिंदू के रूप में जाने जाते हैं। मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि हम अपनी मूल पहचान आर्य के साथ अपने आपको जोड़ने का सार्थक और गंभीर प्रयास करें, परंतु हिंदू शब्द से भी किसी प्रकार से दूरी ना बनाएं। यह आज के संदर्भ और परिस्थितियों में हम सबके लिए वह सर्वमान्य छतरी बन गई है जिसके नीचे हम सब बिना किसी भेदभाव के खड़े हो सकते हैं। देश, काल, परिस्थिति के अनुसार हिंदू को अपनी सांस्कृतिक पहचान के रूप में स्वीकृति प्रदान करने में हमें किसी प्रकार की हिचक नहीं होनी चाहिए।
सावरकर जी ने ठीक ही लिखा है कि :- ‘हिंदुत्व के लक्षण हैं एक राष्ट्र, एक जाति तथा एक संस्कृति। इन सब लक्षणों को संक्षेप में इस भांति प्रस्तुत किया जा सकता है कि वही व्यक्ति हिंदू है जो सिंधुस्थान ( हिंदुस्थान ) को केवल पितृभूमि ही नहीं अपितु पुण्य भूमि भी स्वीकार करता है। हिंदुत्व के प्रथम दो लक्षणों राष्ट्र तथा जाति का समावेश पितृ भूमि शब्द में हो जाता है और तृतीय लक्षण संस्कृति की अभिव्यक्ति पुण्यभूमि शब्द से होती है। क्योंकि संस्कृति में ही सब संस्कार समाविष्ट हैं और वही किसी भूमि को पुण्य भूमि का रूप प्रदान करती है।’
जिस देश को हम कभी आर्यावर्त कहा करते थे वह आज भारतवर्ष के साथ-साथ हिंदुस्थान के नाम से भी जाना जाता है। हमें अपने इस देश के विषय में स्वामी विवेकानंद के शब्दों में यह संकल्प लेना चाहिए कि :- ‘आगामी 50 वर्ष के लिए यह जननी जन्मभूमि भारत माता ही हमारी आराध्य देवी बन जाए। तब तक के लिए हमारे मस्तिष्क से व्यर्थ के देवी देवताओं के हट जाने में कुछ भी हानि नहीं है। अपना सारा ध्यान इसी एक ही ईश्वर पर लगाओ। हमारा देश हमारा जागृत देवता है। सर्वत्र उसके हाथ हैं, सर्वत्र उसके पैर हैं और सर्वत्र उसके कान है। समझ लो कि दूसरे देवी देवता सो रहे हैं। जिन व्यर्थ के देवी देवताओं को हम देख नहीं पाते ,उनके पीछे तो हम बेकार पड़े हैं और जिसे विराट देवता के रूप में चारों ओर देख रहे हैं ,उसकी पूजा ही न करें? जब हम इस प्रत्यक्ष देवता की पूजा कर लेंगे तभी हम दूसरे देवी देवताओं की पूजा करने योग्य होंगे, अन्यथा नहीं।’

डॉ राकेश कुमार आर्य

 

 

 

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