जो 300 साल पहले हो रहा था ,वही आज भी हो रहा है


धर्म और संस्कृति पर जब-जब भी आपदा आई है तब तब मां भारती ने अनेक ऐसे शूरवीर धर्मवीर पैदा किए हैं जिनके कारण जनेऊ और चोटी की वैदिक संस्कृति की रक्षा हो सकी है। ऐसा ही एक धर्मवीर बालक 1719 में पैदा हुआ था । उस समय दिल्ली पर मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला का शासन था। उसी के समय में दिल्ली पर ईरान का बादशाह नादिर शाह 1739 ई0 चढ़कर आया था।
यह बालक बाल्यकाल से ही कुशाग्र बुद्धि था । भारतीय धर्म और संस्कृति के प्रति रुचि रखने वाले इस बालक ने संस्कृत व संस्कृति काअध्ययन कर लिया था।
उस समय मुगल वंश के शासकों का शासन था, इसलिए भारत के संस्कृत प्रेमी बच्चों को भी फारसी पढ़ना अनिवार्य था। माता पिता ने देश, काल, परिस्थिति की अनिवार्यता को देखते हुए अपने इस धर्मवीर बच्चे को भी फारसी पढ़ने के लिए एक मौलवी के पास भेज दिया। उस समय इस बच्चे की अवस्था मात्र 10 वर्ष की थी। जहां इस बच्चे को फारसी पढ़ने के लिए भेजा था वहां मुस्लिम विद्यार्थी हिंदू देवी- देवताओं का अपमान अपशब्द कहकर किया करते थे ।
उन बहुत से मुस्लिम विद्यार्थियों के बीच भी वह अपने धर्म संस्कृति संबंधी वाद विवाद में हमेशा सफलता प्राप्त करता था।जो भी मुस्लिम बच्चा उसे किसी भी प्रकार से भारतीय धर्म व संस्कृति को तुच्छ समझकर घेरने का प्रयास करता था उसे वह अपने तर्क बाणों से शांत कर देता था ।
एक दिन मौलवी की अनुपस्थिति में मुस्लिम विद्यार्थियों ने उस हिंदू बालक को बहुत मारा पीटा ।जब मौलवी साहब आए तो मुस्लिम छात्रों ने उल्टी शिकायत मौलवी से की कि यह बीवी फातमा को गालियां दे रहा था। आशा के अनुरूप बिना किसी पूछताछ और जांच पड़ताल के कठमुल्ले मौलवी का भीतर का शैतान जाग गया । मौलवी ने उस हिंदू बालक को शहर काजी के समक्ष पेश किया । यद्यपि वह मौलवी स्वयं भी जानता था कि वह हिंदू वीर बालक पूर्णतया निरपराध है और उसका कोई इसी प्रकार का दोष भी नहीं है। परंतु जब सांप्रदायिकता सिर चढ़कर बोलने लगती है तो उसमें इस्लाम को मानने वाला प्रत्येक मुसलमान पगला जाता है। विवेक और न्याय की बातें मर जाती हैं और केवल सांप्रदायिक उन्माद हावी हो जाता है। बस इसी सांप्रदायिक उन्माद के वशीभूत होकर उस कठमुल्ले ने हमारे उस वीर बालक को काजी के पास दंड पाने के लिए भेज दिया था।
निरापराध बालक को माफ करने जैसे शब्द शायद इन कठमुल्लों के शब्दकोश में नहीं है। बालक के परिजन माता पिता भी आ गए। बच्चे को माफ करने के लिए बहुत ही अनुनय विनय की, परंतु माता पिता की किसी भी प्रकार की प्रार्थना या विनय को मानने ने से साफ इनकार कर दिया। हर एक कठमुल्ले की जुबान पर एक ही बात थी कि फातिमा बीबी का गालियां देकर इस काफिर ने अपमान किया है।
अन्त में शरीयत के अनुसार सजा-ए-मौत का पैगाम सुना दिया गया। इस सजा-ए-मौत को माफ करने के लिए एक शर्त रखी गई कि माफी मिल सकती है यदि यह बालक मुसलमान बन जाए । तब उस बच्चे को परिजनों माता-पिता पत्नी द्वारा भी समझाया गया कि यदि मुसलमान बन जाओगे तो जिंदा रहोगे हम कम से कम देखते तो रहेंगे।
यहां यह भी लिखना आवश्यक एवं प्रासंगिक है कि तत्समय भारतवर्ष में हिंदू लोग भी अपने बच्चों की कम उम्र में शादी इसलिए कर दिया करते थे कि शादीशुदा लड़की जानकर मुसलमान उस लड़की को छेड़ेंगे नहीं, छोड़ देंगे। इस प्रकार बाल विवाह जैसी कुप्रथा भारत में मुसलमानों के अत्याचारों से बचने के लिए लागू की गई थी। मुस्लिम जमाने से ही कम उम्र के बच्चों की शादी करने का प्रचलन चला था जो हिंदुओं को अपनी मान्यताओं के विपरीत कार्य करना पड़ा था। उससे पहले हमारे यहां बच्चों की शादी नहीं की जाती थी।
धर्म वीर बालक को भी यह जिद हो गई थी कि वह मुसलमानों की किसी भी प्रकार की हठधर्मिता या धार्मिक उन्माद से भरी भावना के सामने सिर नहीं झुकायेगा। उसने पक्का संकल्प ले लिया था कि वह प्राण दे सकता है लेकिन चोटी और जनेऊ नहीं उतार सकता। उसने कहा कि मुझे बिना गुनाह सजा दी जा रही है ,मैंने कोई अपराध नहीं किया है, तो मैं मुस्लिम क्यों हो जाऊं?
जिस दिन सारा भारतवर्ष बसंत पंचमी की खुशियां मना रहा था सन 1734 में जल्लादों ने उसी दिन उस बच्चे को फांसी दे दी थी।
भारत की आजादी के पहले 1947 तक बसंत पंचमी का उत्सव लाहौर में स्थित उस शहीद की समाधि पर एकत्रित होकर लोग श्रद्धांजलि देकर मनाते थे। 1947 के विभाजन में लाहौर शहर जब पाकिस्तान में चला गया तो उनकी एक और समाधि होशियारपुर के” ब्योली के बाबा भंडारी” में इकट्ठे होकर लोग श्रद्धांजलि देने लगे ।गुरदासपुर में एक मंदिर बटाला में स्थित है। इसी में उस बालक की पत्नी लक्ष्मी की समाधि भी बनी हुई है। दिल्ली में जहां आकर शरणार्थी बसे उस नगर का नाम भी उस शहीद तरुण के नाम पर है।
सन 1782 में अग्र सिंह नामक कवि ने पंजाबी लोकगीत इस बालक के लिए लिखा था। महाराजा रणजीत सिंह के हृदय में शहीद के बारे में अगाध श्रद्धा थी। 1905 – 1910 में 3 बंगाली लेखकों ने निबंध के द्वारा शहादत की कथा को जनता के समक्ष पेश किया ।आर्य समाज ने “धर्म वीर” नाटक प्रस्तुत किया। जो बहुत लोकप्रिय हुआ। आर्य भजनोपदेशकों ने अनेक गीत उस धर्मवीर बच्चे के लिए बनाकर भारत की जनता के समक्ष प्रस्तुत किए।
यथा :-

तजूं नहीं चोटी को मैं
तजूं नहीं चोटी को।
चाहे काट देओ बोटी बोटी को।

उस बालक का नाम था वीर हकीकत राय।

पिता का नाम था भाग मल।
माता का नाम था कंवर देई।
जन्म स्थान पर सियालकोट।
( जो राजा शालिवाहन द्वारा बसाया गया शालीवाहन कोट नगर था) शहीद होने के समय तरुण की अवस्था 15 वर्ष मात्र थी। (1719 – 1734)
अब मैं आपसे कुछ प्रश्न कर रहा हूं।
क्या भारत अब स्वतंत्र है या गुलाम है?
क्या भारत में संविधान के अनुसार शासन चलता है यह शरियत का कानून चलता है?
क्या भारत में 300 वर्ष पूर्व जो परिस्थितियां थीं आज भी वही परिस्थितियां हैं?

क्या भारत में 300 वर्ष पहले भी निरीह, निरपराध, मासूमों की जान ली जाती थी, वैसा ही आज भी वही होता है ?
क्या इसमें नैसर्गिक न्याय का पालन कहीं दृष्टिगोचर होता है ? अर्थात जहां साक्ष्य व सुनवाई का अवसर नहीं देकर बस सिर् तन से जुदा 300 वर्ष पहले हकीकत राय के संबंध में भी था और आज कन्हैया लाल टेलर तथा अमरावती में दवा विक्रेता उमेश कोल्हे तथा अन्य घटनाओं के संबंध में भी है।
300 वर्ष पहले भी अपने कथन के अनुसार निकाले गए मतलब को बिना किसी आधार ,तर्क और शर्त के मनवाने का व्यवहार था और आज भी है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को हठधर्मिता का बंधक बनाने का प्रयास 300 वर्ष पहले भी था और आज भी है। यह देश और दुनिया को आतंकित करके चुप कराने की चेष्टा जैसी अब से 300 वर्ष पूर्व होती थी वैसे ही आज भी हो रही है।
जो यह कहते हों कि भारत स्वतंत्र है और संविधान के अनुसार कार्य चलता है तो उन बुद्धिजीवियों, विचारको, लेखकों, पत्रकारों, विद्वानों ,समाजसेवियों से( परंतु विशेष रूप से राजनीतिक लोगों से नहीं जो अपनी राजनीतिक रोटी सेकने में लगे हुए हैं, उनके लिए पहले सत्ता है ,कुर्सी है, देश बाद में है) मेरा प्रति प्रश्न होगा कि फिर अमरावती महाराष्ट्र, पालघर महाराष्ट्र, उदयपुर राजस्थान, कमलेश तिवारी हत्याकांड ,उत्तर प्रदेश, कश्मीरी पंडितों का सामूहिक पलायन वाली घटनाओं का इस देश में क्या अर्थ है?
समय आ गया है जब हमको दुष्टता पूर्ण कार्य करने वाले लोगों का उनकी भाषा में ही जवाब देना होगा अर्थात जो लोग देश में शरीयत कानून को लागू कराने की मांग कर रहे हैं उन्हें उन्हीं के कठोर कानून अर्थात शरीयत के अनुसार दंड देने की व्यवस्था करनी होगी। सरकार को इस दिशा में गंभीरता से सोचना चाहिए कि जो लोग अमानवीय अत्याचारों और अपराधों में लगे हुए हैं उन्हें उनके पर्सनल लॉ से सजा देने की व्यवस्था की जाए। आतंकवाद को रोकने के लिए यह एक अच्छा उपाय हो सकता है।

देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन: उगता भारत समाचार पत्र

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