हिन्दू क्रांति के बन गये थे विभिन्न केन्द्र

hqdefault1857 ई. की क्रांति की बात तो हमने सुनी है कि उस समय किस प्रकार क्रांति के विभिन्न केन्द्र देश में बन गये थे? इस रोमांचकारी घटना से भी हम लोग परिचित ना होते, यदि उसके विषय में स्वातंत्रय वीर सावरकर जैसे लोग हमें ना बताते कि यह विद्रोह नही, अपितु भारतीयों का स्वातंत्रय समर था। पर जब हम अतीत के पृष्ठों को उघाड़ते हैं तो पता चलता है कि ऐसे अवसर भारत में पूर्व में भी कई बार आये हैं, जब भारत वासियों में क्रांति! क्रांति!! और क्रांति!!! की धूम मचाई। क्रांति सफल नही हुई यह अलग बात है पर व्यवस्था के विद्रूपित स्वरूप को शुद्घ करने के लिए और उसे पूर्णत: परिवर्तित करने के लिए ‘शांति: शांति: शांति:’ का जाप करने वाले ‘क्रांति क्रांति क्रांति’ का जाप करने लगे, यह क्या थोड़ी बात थी?

पराजित होकर भी करते रहे संघर्ष

तुगलक वंश के अंतिम दिनों का प्रसंग चल रहा था। जब हम इस काल पर दृष्टिपात करते हैं तो सर्वत्र क्रांति के केन्द्र उगते, उभरते दिखाई देते हैं। हमें हमारा प्रचलित इतिहास कुछ ऐसी अनुभूति कराता है कि जो हिंदू राजा या राजवंश एक बार मुस्लिमों ने परास्त या नष्ट कर दिया, उसने पुन:  कभी उठने का साहस नही किया। जबकि अब तक के वर्णन से यह कथन मिथ्या सिद्घ हो चुका है। ऐसे अनेकों प्रमाण हैं जब हमारे राजा या राजवंशों ने पराजित होने के दशकों पश्चात तक भी पुन: उठ खड़े होने के गंभीर प्रयास किये और मुस्लिम सुल्तानों को गंभीर चुनौती प्रस्तुत की।

तोमर नरेश वीर सिंह देव की सत्ता को मिली मान्यता

दिल्ली से उजडक़र इधर-उधर भटकते तोमरों ने अपने स्वतंत्रता संग्राम को जारी रखा। तोमरों के भीतर अपने राजवंश को पुन: स्थापित करने की तीव्र इच्छा थी। ‘ग्वालियर के तोमर’ नामक पुस्तक से हमें जानकारी मिलती है कि दिल्ली पर मुसलमानों की सत्ता स्थापित होने के उपरांत तोमर राजवंश का उत्तराधिकारी अचल ब्रह्म दिल्ली से हरिराज चौहान के पास अजमेर चला आया था, एवं सत्ता प्राप्ति के पुन:संघर्ष में पराजित होने पर चंबल क्षेत्र में स्थित ऐसाह नामक स्थान पर आकर निवास करने लगा।

इब्नबतूता की साक्षी है कि 1342 ई. के लगभग ग्वालियर पर तोमर शासक कमल सिंह या घाटम सिंह का शासन था। विभिन्न विद्वानों का निष्कर्ष है कि 1375 ई. के लगभग ग्वालियर पर वीर सिंह देव तोमर का शासन था। इस राजा को ही ग्वालियर का तोमर राजवंश का वास्तविक संस्थापक माना गया है।

तोमर शासक एक ओर दिल्ली से मुक्ति की योजनाएं बना रहे थे और दूसरी ओर दिल्ली के सुल्तानों की अधीनता स्वीकार कर रहे थे। (संदर्भ : ‘सलतनत काल में हिंदू प्रतिरोध’, पृष्ठ 331)

दिल्ली में चल रहे उत्तराधिकार के संघर्ष के काल में वीर सिंह देव तोमर ने भी अपनी शक्ति का विस्तार करना आरंभ कर दिया था। जब सुल्तान मुहम्मद शाह इटावा की ओर आया तो यहिया का कथन है कि यहां उससे वीरसिंह देव भी मिला था। सुल्तान ने उसे खिलअत (एक प्रकार का मान्यता प्रमाण पत्र) प्रदान किया और उसे लौटा दिया।

सुल्तान ने तोमर को बनाया मित्र

वास्तव में यह काल ऐसा था जब सुल्तान को हिंदू शक्ति की आवश्यकता थी। इसलिए सुल्तान ने राजा वीर सिंह देव तोमर को रूष्ट करना उचित नही, इसलिए खिलअत प्रदान कर उसकी सहानुभूति अर्जित करने का प्रयास किया। इस बात को राजा भी समझ रहा था कि उचित समय यही है, जब तोमरों की खोयी हुई प्रतिष्ठा को प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए राजा ने भी गरम लोहे पर चोट मारी और उसका लाभ प्राप्त करने में सफल रहा।

चंबल और दोआब का संघर्ष

दोआब एक ऐसा प्रांत रहा है, जिसने भारी क्षति उठाकर भी स्वतंत्रता संग्राम का ध्वज उठाये रखने में कभी संकोच नही किया। यह  प्रांत कभी सोता नही था, अपितु झपकी लेता था और क्रांति की या विद्रोह की तनिक सी भी आहट सुनकर उठ खड़ा होता था। विद्रोह के किसी उचित अवसर का लाभ उठाये बिना किसी अवसर को दोआब ने अपने निकट से निकलने ही नही दिया।

तुगलक वंश जब धीरे-धीरे मूच्र्छावस्था में जा रहा था तो यह कैसे संभव था कि दोआब इस अवसर का लाभ न उठाता? दोआब जाग रहा था और जब समय बड़ी तीव्रता से भाग रहा था तो उस समय के काल प्रवाह को समझते हुए दोआब ने इस बार चंबल क्षेत्र को भी अपने साथ लगा लिया। यहिया हमें बताता है कि वीर सिंह देव सबीर राय, सुमेर अधरन, और मुकद्दम वीरभान ने एकजुट होकर दिल्ली की सल्तनत के विरूद्घ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। राय सुमेर और अधरन ने बलाराम कस्बे पर आक्रमण कर उसे नष्ट कर दिया और अनेक लोगों को मारा व बंदी बनाया।

ये मारना और बंदी बनाने का क्रम उन लोगों के  विरूद्घ चला था जो किसी भी प्रकार से हिंदू शक्ति के उत्थान और स्वराज्य प्राप्ति के स्वतंत्रता संघर्ष में राजा के या मुकद्दम राय सुमेर आदि के विरूद्घ थे। अभियान को क्रांति में परिवर्तित किया जा रहा था और देश में सर्वत्र अराजकता का सा परिवेश बन चुका था।

इतिहासकार बसु हमें बताते हैं कि सुल्तान ने हिंदू शक्ति के इस पुनरूत्थान का विनाश करने के लिए अपने सैन्य दल को दो अभियानों में विभक्त कर दिया। एक अभियान का नेतृत्व इस्लाम खां को सौंपा गया तो दूसरे का नेतृत्व सुल्तान ने स्वयं ने संभाला। इस्लाम खां वीरसिंह देव के विरूद्घ भेजा गया तो अन्य स्वतंत्रता प्रेमी हिंदुओं के दमन के लिए सुल्तान स्वयं चला गया। यहिया के द्वारा हमें जानकारी मिलती है कि वीरसिंह पराजित होकर इस्लाम खान के आगे से भाग गया। इस्लाम ने भागते हुए अनेकों हिंदुओं का वध कर डाला। उसने तोमर प्रदेश  को पूर्णत: नष्ट भ्रष्ट कर दिया। ‘गोपाचल आख्यान’ के अनुसार वीरसिंह देव ने इस्लाम खां के समक्ष क्षमायाचना की और उसे इस्लाम खां द्वारा दिल्ली ले जाया गया। क्रांति का एक नेता वीर सिंह देव शत्रु की पकड़ में आ चुका था।

साही  सेना बढ़ी इटावा की ओर

दूसरी सेना इटावा की ओर बढ़ी। जब सुल्तान काली नदी के पास पहुंचा तो हिंदू लोग बलाराम से पीछे हटकर इटावा लौट गये। अंत में सुल्तान इटावा पहुंचा। यहिया का कथन है कि दोनों पक्षों में एक दिन के संघर्ष के उपरांत हिंदू लोग रात्रि में इटावा दुर्ग छोडक़र भाग गये। अगले दिन सुल्तान ने दुर्ग का विध्वंस कर डाला।

बसु महोदय का कथन है कि यहां से सुल्तान कन्नौज की ओर बढ़ा और दलमऊ के विद्रोही हिंदुओं को दंडित किया।

अतुलनीय देशभक्ति

हम देखते हैं कि इस क्रांति घोष का दमन करने में ऊपरी स्तर पर सुल्तान को सफलता मिलती दिखती है। परंतु सच ये था कि सुल्तान या सुल्तान का सेनापति जहां-जहां से हिंदू पर दमन चक्र चलाकर निकले, वहीं पीछे-पीछे क्रांतिकारियों ने पुन: अपने-अपने स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिये। क्या अद्भुत और अतुलनीय स्तर की वीरता है, देशभक्ति है। मर रहे हैं, पर स्वराज्य प्राप्ति के लिए अपने संघर्ष का साथ और हाथ नही छोड़ रहे हैं। लोगों का कहना रहता है कि हिंदुओं के पास आधुनिक हथियारों का अभाव होता था, इसलिए वह हारते थे। पर हारता तो वह है जो हार को स्वीकार कर लेता है। जहां हार को स्वीकार करने को कोई तैयार ही ना हो वहां पाला किसके हाथ में रहा? यह कहा ही नही जा सकता। सत्याग्रह चल रहा है और स्वतंत्रता की अखण्ड ज्योति जल रही है, स्वराज्य का अखण्ड पाठ हो रहा है, मां दुर्गा के मंदिर में (ईश्वर का गर्भ दुर्ग है) मां भारती का अखण्ड कीत्र्तन हो रहा है, तब आप ये कैसे कह सकते हैं कि सारा भारत सो गया था और कहीं भी आशा की कोई किरण दिखाई नही दे रही थी? चारों ओर वीरता का डंका बज रहा था और कहीं से भी कायरता का संकेत मात्र भी नही मिल रहा था, स्वतंत्रता के लिए संघर्ष भी था तो उसके लिए क्रूर दमनचक्र भी था, हमारे पूर्वज संघर्ष के पुजारी थे तो हमें भी संघर्ष की गौरवगाथा का संकीत्र्तन करने वाला पुजारी बन ही जाना चाहिए।

कन्नौज में हुआ भारी हत्याकांड

हर राष्ट्रभक्त भारतीय के हृदय में जब धर्म और संस्कृति की रक्षा का चिंतन चल रहा था तो उस चिंतन ने हमारे देशवासियों की मनोभूमि में राष्ट्रभक्ति का हल चलाकर सारे देश की भूमि को उर्वरा बनाये रखने में सहायता की। विदेशी शासकों के अत्याचारों से दुखी लोगों के संगठन बन रहे थे और अत्याचारी शासकों द्वारा ये संगठन विनष्ट किये जा रहे थे। परंतु एक संगठन के पश्चात दूसरा और दूसरे के पश्चात तीसरा रणभूमि में आ जाता था।

बनाया गया एक मोर्चा

दोआब और चम्बल क्षेत्र के मुकद्दमों और जमींदारों के संगठन को कुचलकर अभी सुल्तान को अधिक समय नही बीता था कि इटावा के राय सुमेर अधरन (जिसे सूर्योदय देव भी कहा गया है) और भोगांव के वीरभान, जीतसिंह राठौर और चंदबार के मुकद्दम अभयचंद्र ने सम्मिलित होकर एक मोर्चा सुल्तान के विरूद्घ पुन: स्थापित कर दिया। 1392-93 ई. में इस संगठन ने सुल्तान के विरूद्घ अपनी स्वतंत्रता का बिगुल  फूंक दिया। बसु महोदय हमें बताते हैं कि इस बार सुल्तान ने मुहम्मदाबाद  (जलेसर) के राज्यपाल मलिक मुकर्रबुल मुल्क को इन विद्रोहियों का सामना करने के लिए भेजा। सुल्तान ने हिंदू शक्ति की इस एकजुटता से दूर रहना ही उचित समझा था तो राज्यपाल मलिक ने भी हिन्दू शक्ति का सीधा प्रतिरोध करना उचित नही समझा। मलिक ने छल से काम लिया और हिंदू संगठन के सभी नायकों के पास अपना संधि प्रस्ताव पहुंचा दिया।

मलिक के छलावे से छले गये हिंदू नेता

इस छलपूर्ण प्रस्ताव को राय सुमेर सिंह ने तो स्वीकार नही किया, परंतु अन्य सभी नायक मलिक के छलावे में आ गये। जब वात्र्ता के लिए हिन्दू नामक कन्नौज के किले में पहुंचे तो वहां पर मलिक ने उनकी हत्या करा दी।

कुछ लोगों ने इस हत्याकांड को राजनीति कहकर इस पर कुछ भी लिखना उचित नही माना है। परंतु हमारा मानना है कि यह ‘राजनीतिक हत्याकांड’ न होकर ‘काफिरों’ को समाप्त करने के इस्लाम के उस मौलिक चिंतन की परिणति थी, जिसके विरूद्घ इस देश में प्रारंभ से ही विद्रोह मचा हुआ था। ब्रिगेडियर मलिक लिखता है-‘‘शत्रुओं को आतंकित कर देना केवल साधन ही नही साध्य भी है। एक बार विपक्षी के मन में आतंक बैठ जाता है तो करने  को कुछ विशेष नही रह जाता है। परंतु किसी सेना को उसके रसद का मार्ग काटकर या उसके बच निकलने के मार्ग को बंद कर देने मात्र से आतंकित नही किया जा सकता। इसके लिए उसका विश्वास नष्ट करना आवश्यक है।’’

मानसिक टूटन स्थायी होती है। रणनीति चाहे जो उपयोग में लायी जाए वह शत्रु के हृदय में भय उत्पन्न करने में समर्थ होनी चाहिए।

स्वतंत्रता आंदोलन को लगा झटका

राजनीतिक हत्याओं में कई बार अपने विरोधी को लोग मार्ग से हटवाते हैं तो उस विरोधी के साथ उनकी कोई जातीय शत्रुता नही होती है, परंतु यहां नेता से ही नही उसकी जाति से भी शत्रुता थी, इसलिए इस हत्याकांड से हिंदुओं के स्वतंत्रता आंदोलन को झटका लगा। परंतु स्थायी रूप से पराधीनता स्वीकार करने का हिंदुओं की ओर से संकेत मात्र भी नही मिलता।

सुल्तान चल बसा

इसके पश्चात 20 जनवरी 1394 को सुल्तान मुहम्मद शाह का देहांत हो गया। 22 जनवरी को उसका एक लडक़ा अलाउद्दीन सिकंदरशाह के नाम से दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। किंतु वह भी लगभग डेढ़ माह पश्चात अर्थात 8 मार्च को संसार से चला गया। तब मुहम्मद शाह का एक अन्य लडक़ा सुल्तान महमूद 23 मार्च 1394 को सिंहासनारूढ़ हुआ।

ग्वालियर हो गया पूर्णत: स्वतंत्र

ग्वालियर का भारत के  मध्यकालीन इतिहास में विशेष और महत्वपूर्ण स्थान है। यहां का शासक वीर सिंह देव था, जिसके विषय में हमने पूर्व में उल्लेख किया है कि वह सुल्तान मुहम्मद शाह के साथ दिल्ली दरबार में रहने लगा था। सामान्यतया दिल्ली दरबार में रहना या रखा जाना सम्मान का नही, अपमान का प्रतीक होता था। यह एक प्रकार की दृष्टिबद्घता (नजरबंदी) होती थी जिससे वह व्यक्ति कोई विद्रोह आदि न कर सके।

वीरसिंह देव के विषय में जो तथ्य हमें मिलते हैं, उनके अनुसार मुहम्मदशाह की मृत्यु के उपरांत जैसे ही तुगलक वंश और अधिक दुर्बल हुआ वैसे ही वीर सिंह देव ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया और अपने गृहराज्य ऐसाह में जाकर रहने लगा।

परंतु ‘गोपाचल आख्यान’ से हमें जानकारी मिलती है कि सुल्तान ने वीरसिंह देव को अपने विश्वसनीय नुसरत खां के माध्यम से पुन: दिल्ली बुला लिया।

वीर सिंह देव की चतुराई

सुल्तान ने एक दिन उसे किसी बात से प्रसन्न होकर खिलअत और पुरस्कार के साथ ग्वालियर दुर्ग का परवाना देकर भेज दिया। परंतु ग्वालियर दुर्ग के मुस्लिम अधिपति ने परवाना प्राप्त करके भी वीरसिंह देव को ग्वालियर दुर्ग देने से इनकार कर दिया। तब वीरसिंह देव ने चतुराई का प्रयोग करते हुए उस मुस्लिम अधिपति से मित्रता कर ली, और स्वयं दुर्ग की तलहटी में नीचे रहने लगा।

एक दिन वीरसिंह देव ने अपने मित्र दुर्गाधिपति को भोजन पर आमंत्रित किया और वहीं उसकी हत्या कर दी। इसके पश्चात ग्वालियर की स्वतंत्रता बहुत देर तक बनी रही। तैमूर लंग के आक्रमण के आसपास 1398-99 ई. में ग्वालियर स्वतंत्र हो गया।

ग्वालियर गढ़ से मिले शिलालेख के अनुसार अनुमान है कि ग्वालियर की स्वतंत्रता नये सुल्तान को भी रूचिकर नही लगी थी और इसे रोकने के लिए गयी मुस्लिम सेना से वीरसिंह देव को संघर्ष भी करना पड़ा था। यह घटना तैमूर लंग के आक्रमण से पूर्व की है।

कहां-कहां पड़ी विद्रोह की बिजली?

‘तारीखे मुबारकशाही’ पृष्ठ 156 का प्रमाण है कि तुगलक सुल्तानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाकर पूर्वी प्रांत के हिंदुओं ने भी विद्रोह का मार्ग अपना लिया। (स्थान-स्थान पर होने वाले इन विद्रोहों के कारण) उस क्षेत्र में मुसलमानों का शासन करना कठिन हो गया।

विद्रोह की व्यापकता

इस साक्षी से स्पष्ट है कि विद्रोह किसी क्षेत्र विशेष में नही हो रहा था, अपितु एक स्थान का विद्रोह दूरस्थ रहने वाले लोगों को भी स्वतंत्रता आंदोलन चलाने के लिए प्रेरित कर रहा था। हर क्षेत्र अपने पुराने वैभव और सुख-शांति के काल में लौटना चाहता था, जिसके लिए आवश्यक था कि विदेशी शासन के जुए को यथाशीघ्र उतार कर फेंका जाये। इस कार्य के लिए देश में जहां-जहां स्वतंत्रता आंदोलनों का प्रभाव बढ़ गया था, उनके विषय में देखने से स्पष्ट होता है कि विद्रोह कितना व्यापक था?

इस समय विद्रोह के मार्ग पर चलने वाले क्षेत्रों के नामों में इटावा, कोल, खेर, कम्पिल, कन्नौज, कड़ा अवध, संदीला, दलमऊ, बहराइच, जौनपुर, बिहार तिरहुत आदि का नाम उल्लेखनीय है।

विज्ञान का नियम है…..

विज्ञान का नियम है कि गेंद का आप जितने बल के साथ धरती पर मारते हैं, वह उतने ही बल के साथ धरती में लगकर ऊपर को उछाल मारती है। यही स्थिति भारतीय समाज और आततायी शासक वर्ग जितनी निर्ममता से भारतीय समाज को पीसना चाहता था, वह उतना ही अपने शासक वर्ग के विरूद्घ विद्रोही होता जाता था। सल्तनत की दुर्बलता का आरंभ होते ही दिल्ली के सुल्तानों का साम्राज्य ताश के पत्तों की भांति बिखरने लगा।

अपने क्रांतिकारी सैनानियों का सम्मान क्यों?

सुबुद्घ पाठक वृन्द! एक बार राजपुरोहित देवमित्र ने अपने विषय में ही सोचा कि राजा ब्रह्मदत्त और उनके दरबार के लोग मेरा बहुत सम्मान करते हैं, पर यह पता नही कि ये सम्मान मेरे ज्ञान का है या मेरे सदाचार का है। इसलिए क्यों न इस बात की परीक्षा की जाए? परीक्षा का ढंग भी राजपुरोहित ने स्वयं ही निश्चित कर लिया।

एक दिन देवमित्र राजसभा से लौटते हुए कोषागार के सामने से निकल रहा था। देवमित्र ने कोषागार में से एक सिक्का उठाकर अपनी जेब में रख लिया। कोषाध्यक्ष ने जब यह दृश्य देखा तो उसे घोर आश्चर्य हुआ, राजपुरोहित और ऐसा कार्य! पर वह शांत रहा। उसने सोचा कि देवमित्र जैसे महापुरूष ने यदि सिक्का उठाया है तो निश्चय ही कोई विशेष प्रयोजन रहा होगा। आज किसी कारण से नही बताया है, पर कल बता देंगे। पर देवदत्त को तो परीक्षा लेनी थी अत: अगले दिन भी वही किया। कोषाध्यक्ष आज भी अपने आपको संभाल गया।

पर जब तीसरे दिन देवदत्त ने मुट्ठी भर स्वर्ण मुद्राओं की चोरी की तो आज कोषाध्यक्ष से रहा नही गया। उसने सुरक्षा कर्मियों को संकेत किया और देवमित्र को कारागार में डलवा दिया।

अगले दिन राजपुरोहित को राजसभा में एक अपराधी के  रूप में उपस्थित किया गया। राजा ने देवमित्र से कहा-आपने इतना बड़ा विद्वान होकर यह क्षुद्र कार्य करके हमारे हृदय को असीम कष्ट दिया है, और हमारी आस्था को चोट पहुंचाई है। राजा ने राजाज्ञा जारी की कि राजपुरोहित देवमित्र के हाथ की चार अंगुलियां काट ली जायें।

देवमित्र ने राजा का न्याय सुनकर मुस्कुराते हुए कहा-‘‘राजन! मैंने धनी होने के उद्देश्य से चोरी नही की। मैं तो ये देखना चाहता था कि आपके राजदरबार में मेरी विद्घत्ता का सम्मान होता है, या मेरे सदाचार का। मैंने इसकी परीक्षा कर ली है। मेरा सम्मान इस दरबार में ज्ञान के कारण नही, अपितु सदाचार के कारण है। ज्ञान तो जितना कल था उतना ही आज भी है। केवल दो दिन में अंतर इतना आया है कि मेरा सदाचार खंडित हो गया है, जिसके कारण आज मुझे दंडित होना पड़ा है।

राजा ब्रह्मदत्त को सारा प्रसंग समझ में आ गया। वस्तुस्थिति से अवगत होकर राजा ने राजपुरोहित देव मित्र को स्वतंत्र कर दिया और उन्हें सम्मानित किया।

सल्तनत काल में हमारा सदाचार

सल्तनत काल में हमारा सदाचार हमारी बलिदानी भावना बन चुकी थी क्योंकि सदाचार वह होता है जो आपकी अपनी तो रक्षा करता ही है साथ ही समाज की रक्षा भी करता है। इस सदाचार पर चलने वाले लोग हमारी श्रद्घा के पात्र होने चाहिए। हम पतितों के नही ‘पथिकों’ के पुजारी हैं, ऐसे पथिक जो महाजन कहलाते हैं और आने वाली पीढिय़ों को अपने सत्कर्मों से एक अच्छा मार्ग बनाकर दे जाते हैं। हमारे मध्य कालीन इतिहास के बलिदानी लोग ऐसे ही महाजन थे। जिनका अभिनंदन गं्रथ हम इस लेखमाला के माध्यम से पढ़ रहे हैं।

क्रमश:

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