नेहरू ,डालमिया और करपात्री जी महाराज

व्यक्तिगत आधार पर राजनीति में और विशेष रूप से लोकतंत्र में किसी से शत्रुता पालना बहुत ही गलत माना जाता है। वास्तव में लोकतंत्र विभिन्न विचारों का सम्मिश्रण करके और सबको अपनी बात को कहने का अधिकार देकर चलने वाली शासन प्रणाली है। इस शासन प्रणाली में आपके धुर विरोधी भी आपके समर्थक हो सकते हैं और आपके समर्थक भी आपके धुर विरोधी हो सकते हैं।
वास्तव में लोकतंत्र की इस खूबसूरती को यथार्थ के धरातल पर उतारना बड़ा कठिन कार्य है। बहुत ही धैर्यवान और संयमी पुरुष ही लोकतंत्र की इस खूबसूरती को सही स्वरूप दे सकता है। जहां तक कांग्रेस की बात है तो कांग्रेस ने अपने पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को लोकतंत्र की इस खूबसूरती का बेजोड़ उदाहरण माना है और उन्हें इतिहास में इसी रूप में स्थापित किया है। यह अलग बात है कि उन्होंने लोकतंत्र की इस खूबसूरती का एक बार नहीं, कितनी ही बार उपहास उड़ाया। उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को कभी पसंद नहीं किया। इसका कारण केवल एक था कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस लोकप्रियता में उनसे बहुत आगे निकल चुके थे। सुभाष की लोकप्रियता नेहरू को पसंद नहीं थी, इसलिए समय विशेष के आने पर उनकी राजनीतिक रूप से हत्या करने का नेहरू और उनके साथियों ने हर संभव प्रयास किया। यही स्थिति गांधी की भी थी। इन दोनों ने मिलकर देश के पहले उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल को भी कभी पसंद नहीं किया। इसके अतिरिक्त आजादी के पश्चात देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद बने तो उन्हें भी पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कभी वह सम्मान नहीं दिया, जिसके वह पात्र थे। यहां तक कि उनके अंतिम दिनों में उन्हें बहुत अधिक उपेक्षित और अपमानित करने में भी नेहरू ने किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी थी।
नेहरू को उनके शासनकाल में स्वामी करपात्री जी महाराज जैसे हिंदूवादी और राष्ट्रवादी नेता ने कड़ी टक्कर दी थी। स्वामी करपात्री जी महाराज हिंदू भावनाओं के प्रतीक के रूप में अपना स्थान बनाने में सफल हुए थे। उन्होंने अपनी राजनीतिक विचारधारा को यथार्थ के धरातल पर उतारने के उद्देश्य से प्रेरित होकर राम राज्य परिषद नामक राजनीतिक दल की स्थापना 1948 में की थी। जब नेहरू की तूती बोल रही थी, उस समय राम राज्य परिषद ने बड़ी तेजी से लोगों को अपनी ओर आकृष्ट किया। इसी का परिणाम था कि जब 1952 में देश में पहले आम चुनाव हुए तो लोकसभा में उनके 18 सांसद पहुंचने में सफल हो गए थे। उस समय 18 सांसदों की संख्या को प्राप्त करना बहुत बड़ी बात थी।
इस संख्या से पता चलता है कि नेहरू को चुनौती देने में स्वामी करपात्री जी महाराज कितनी अग्रणी भूमिका निभा रहे थे ? जब नेहरू ने अपनी हठधर्मिता का परिचय देते हुए हिंदू कोड बिल को लाने का प्रयास किया तो स्वामी करपात्री जी महाराज नेहरू के इस निर्णय के समक्ष चट्टान की तरह खड़े हो गए। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने भी राष्ट्रपति भवन में रहते हुए नेहरू की हिंदू कोड बिल लाने की नीति का विरोध किया। यद्यपि राष्ट्रपति की अपनी सीमाएं थीं, वह कुछ देर तक ही इसका विरोध कर सकते थे परंतु स्वामी करपात्री जी महाराज ने नेहरू का सड़क और संसद दोनों पर प्रबल विरोध किया। उनके विरोध के कारण नेहरू करपात्री जी महाराज के भी विरोधी हो गए थे। इतना ही नहीं, नेहरू के पश्चात उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने भी करपात्री जी महाराज का कभी हृदय से सम्मान नहीं किया।
स्वामी करपात्री जी महाराज की राष्ट्रवादी सोच का समर्थन उस समय के सबसे बड़े उद्योगपति रामकृष्ण डालमिया भी कर रहे थे। डालमिया करपात्री जी महाराज के प्रति पूर्ण समर्पण व्यक्त करते हुए नेहरू के विरोध में आ डटे थे।
नेहरू को स्वामी करपात्री जी महाराज और डालमिया जी का यह गठबंधन कतई रास नहीं आ रहा था। यह वही नेहरू थे जिन्होंने कश्मीर में राष्ट्रवादी महाराजा हरिसिंह के सामने देश विरोधी और देश के प्रति गद्दारी का भाव रखने वाले शेख अब्दुल्ला को खड़ा कर दिया था। राष्ट्रवादी लोगों को निशाने पर लेना और उनका प्रत्येक प्रकार से उत्पीड़न करना कांग्रेस के संस्कारों में सम्मिलित है। नेहरू इन संस्कारों में बहुत अधिक कुशल थे। यही कारण था कि उन्होंने स्वामी करपात्री जी महाराज और डालमिया जी दोनों को ठिकाने लगाने का मन बना लिया। डालमिया जी उस समय एक लाख करोड़ की संपत्ति के मालिक थे। उस समय इतनी बड़ी संपत्ति का मालिक होना बहुत बड़ी बात थी। वह देश के सबसे धनी व्यक्ति थे। हिंदू कोड बिल को वह कतई पसंद नहीं करते थे। इसके अतिरिक्त गोवध पर प्रतिबंध के प्रति भी वह बहुत अधिक स्पष्ट थे। वह चाहते थे कि गौ हत्या निषेध जैसा कानून नेहरू सरकार लाए, जबकि नेहरु ऐसा नहीं चाहते थे। इन दोनों मुद्दों को लेकर डालमिया जी तत्कालीन तानाशाह नेहरू के सामने आ खड़े हुए। बस यही कारण था जिसके चलते तानाशाह नेहरू ने डालमिया जी जैसे राष्ट्रवादी उद्योगपति का सारा तंत्र नष्ट कर डाला था। कई मुकदमों में उन्हें फंसाया गया और अंत में जेल भेजकर उनके विशाल साम्राज्य को नष्ट करने में नेहरू ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया।
नेहरू ने स्वामी करपात्री जी महाराज और डालमिया के विरोध और तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद जी की पूर्ण असहमति के उपरांत भी हिंदू कोड बिल को लागू कराने में सफलता प्राप्त की। नेहरू को जिद हो गई थी कि वह जो कुछ सोच चुके हैं उसे पूरा करके ही हटेंगे। गोवध निषेध पर भी स्पष्ट कर दिया कि तक संबंधी कोई भी कानून वह अपने रहते हुए पारित नहीं कराएंगे। ऐसी स्थिति में उन्होंने प्रतिशोध स्वरूप हिंदूवादी सेठ डालमिया को जेल में भी डाल दिया तथा उनके उद्योग धंधों को नष्ट कर दिया।
अपनी ऐसी ही सोच का परिचय नेहरू ने अपने कई विरोधियों को ठिकाने लगाने में दिया था। उन्होंने कश्मीर के महाराजा हरीसिंह को सत्ता से हटाकर उन्हें भारत में ही निर्वासित जीवन जीने के लिए अभिशप्त कर दिया था। जबकि देश के गद्दार रहे निजाम हैदराबाद को बहुत मोटी पेंशन देकर उपकृत किया था। अपने विरोधियों को मिट्टी में मिलाने का तरीका यदि कोई सीख सकता है तो वह नेहरू और उनके बाद इंदिरा गांधी और वर्तमान में सोनिया गांधी से सीख सकता है। जी हां, सोनिया गांधी ने भी अपनी सास के पिता नेहरू की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अपने कई विरोधियों को ठिकाने लगाने में सफलता प्राप्त की है। उनके विरोधी राजेश पायलट, माधवराव सिंधिया, ज्ञानी जैल सिंह और इसी प्रकार के कई नेताओं के नाम गिनवाकर कहते रहे हैं कि इन सब की मृत्यु स्वाभाविक मृत्यु नहीं थी बल्कि उसमें कहीं ना कहीं कोई गहरा राज था।
रामकृष्ण डालमिया राजस्थान के चिड़ावा नामक कस्बे में एक गरीब अग्रवाल घर में पैदा हुए थे । वह गुदड़ी के लाल थे, और भारत की जड़ों से जुड़े हुए थे। उन्होंने अत्यंत अभावों के बीच रहकर जीवन यापन किया था। शून्य से अपनी यात्रा का आरंभ करने वाले डालमिया जी अपने परिश्रम और पुरुषार्थ के बल पर एक दिन देश के सबसे बड़े उद्योगपति बने। उन्होंने बहुत कम शिक्षा प्राप्त की थी और वह शिक्षा भी कोलकाता में उन्हें अपने मामा के यहां रह कर मिलनी संभव हो पाई थी।
कोलकाता में रहते हुए डालमिया जी ने एक सेल्समैन के रूप में अपने व्यापारिक जीवन का शुभारंभ किया था। अपने परिश्रम के सामने उन्होंने भाग्य को नतमस्तक करने में सफलता प्राप्त की। फलस्वरूप उनका शानदार व्यापारिक जीवन आरंभ हुआ।
उनका औद्योगिक साम्राज्य देशभर में फैला हुआ था। जिसमें समाचारपत्र, बैंक, बीमा कम्पनियां, विमान सेवाएं, सीमेंट, वस्त्र उद्योग, खाद्य पदार्थ आदि सैकड़ों उद्योग शामिल थे। अपने राष्ट्रवादी चिंतन और सोच के चलते वह देश के राष्ट्रवादी नेताओं के भी संपर्क में रहते थे और उन्हें खुलकर अपना नैतिक और आर्थिक समर्थन किया करते थे ।इसे नेहरू अच्छा नहीं मानते थे।
स्वामी करपात्री जी महाराज ने देश जागरण का बहुत महत्वपूर्ण कार्य करते हुए गौ हत्या पर प्रतिबंध लगाने के लिए देशव्यापी आंदोलन चलाया था। स्वामी करपात्री जी महाराज को उनके इस आंदोलन को सफल बनाने में लोगों ने बढ़ चढ़कर अपना सहयोग और समर्थन दिया था। नेहरू स्वामी करपात्री जी की लोकप्रियता और उनके आंदोलन की सफलता को देखकर बहुत अधिक ईर्ष्यालु हो चुके थे। इसी समय डालमिया जी स्वामी करपात्री जी महाराज के साथ आकर जुड़ गए। उन्होंने भी स्वामी करपात्री जी महाराज का समर्थन करते हुए नेहरू पर गौ हत्या निषेध संबंधी कानून बनाने का दबाव डालना आरंभ किया। डालमिया जी और करपात्री जी महाराज की जोड़ी लोगों को पसंद आ रही थी। उधर नेहरू थे जो इस जोड़ी को समाप्त करने की योजना बना रहे थे। डालमिया जी करपात्री जी महाराज के आंदोलन को सफल बनाने में उनकी भरपूर आर्थिक सहायता कर रहे थे। नेहरू यह भली प्रकार भांप चुके थे कि स्वामी करपात्री जी महाराज का आंदोलन किसकी आर्थिक सहायता से गति पकड़ रहा है।
पंडित जवाहरलाल नेहरु अपनी जिद को पूरा करने में सफल हुए और उन्होंने हिंदू कोड बिल को अपनी इच्छा के अनुसार लागू करा दिया। इससे हिंदू समाज में प्रचलित विवाह की अवधारणा खंडित हुई। इस कोड बिल के लागू होने के उपरांत हिंदू महिला को भी अपने पति से मुस्लिम और ईसाई समाज की तरह तलाक लेने का अधिकार मिला। इस प्रकार हमारे विवाह की पवित्र परंपरा को ग्रहण लगा। क्योंकि हम प्राचीन काल से हिंदू विवाह को एक पवित्र संस्कार के रूप में मानते चले आ रहे थे । अब उसे इस्लाम और ईसाई समाज की सोच के अनुसार एक संविदा बना दिया गया। इस बात को लेकर करपात्री जी महाराज, डालमिया जी और कांग्रेस के बड़े नेता सरदार वल्लभ भाई पटेल सहित कितने ही चेहरे ऐसे थे जो नेहरू की हठधर्मिता का विरोध कर रहे थे। कहते हैं कि नेहरू ने एक बार हिंदू कोड बिल को सरदार वल्लभभाई पटेल जी के जीवित रहते ही लाने का प्रयास किया था, परंतु उनकी कठोर भाषा के कारण नेहरू उनके रहते हुए इस बिल्कुल लाने से पीछे हट गए थे। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने इस कोड बिल पर हस्ताक्षर करने से एक बार इंकार कर दिया था, परंतु जिद्दी नेहरू ने इसे संसद से दोबारा पास करवा कर फिर उनके पास भेज दिया, तब उनकी यह संवैधानिक बाध्यता थी कि वे इस पर हस्ताक्षर करते और उन्होंने ऐसा ही किया भी।
अपनी मनमानी करने में सफल होकर नेहरू और दंभी हो गए। अब उन्होंने डालमिया और उनके उद्योग जगत को नष्ट करने का निर्णय लिया। इस पर उन्होंने अपनी योजना भी बना ली। नेहरू के संकेत पर डालमिया के विरुद्ध कंपनियों में घोटाले के आरोपों को लोकसभा में जोरदार ढंग से उछाला गया। अपनी राजनीतिक शक्ति और सत्ता का दुरुपयोग करते हुए नेहरू ने इन आरोपों की जांच के लिए एक विविन आयोग बना। बाद में यह मामला स्पेशल पुलिस इस्टैब्लिसमेंट (जिसे आज सी बी आई कहा जाता है) को जांच के लिए सौंप दिया गया। यह विभाग उस समय नेहरू के संकेत पर नाचता था। वह जो चाहते थे यह वही करता था, क्योंकि उस समय इसके अंग्रेजी संस्कार समाप्त नहीं हुए थे। नेहरू ने अपनी पूरी सरकार को डालमिया के उद्योग जगत को नष्ट करने में लगा दिया । उन्हें हर सरकारी विभाग में प्रधानमंत्री के संकेत पर उत्पीड़ित और प्रताड़ित करना आरम्भ किया गया। अपनी योजना को सिरे चढ़ाने के लिए नेहरू ने अपने मुंह लगे सांसदों व अधिकारियों के माध्यम से डालमिया जी को कई केसों में फंसाया। जिससे वह अपमानित ,उत्पीड़ित और प्रताड़ित हो सकें।
नेहरू का दमन चक्र अपनी अति पर पहुंच गया था । उनके चाटुकार सांसद और अधिकारियों ने मिलकर डालमिया जी को घेरने में सफलता प्राप्त की । फलस्वरूप एक राष्ट्रवादी व्यक्तित्व इस सारी चांडाल चौकड़ी का शिकार बनकर रह गया। उनका सारा व्यापार चौपट हो गया। एक लाख करोड़ के मालिक डालमिया को दिवालिया बनाने में नेहरू सफल हो गए। इसके पीछे कारण केवल यह था कि डालमिया जी लोकतंत्र में अपने विचारों को अभिव्यक्ति दे रहे थे और वह सरकार की नीतियों का विरोध कर रहे थे । लोकतंत्र की खूबसूरती को तथाकथित रूप से सही समझ ढंग से समझने की क्षमता रखने वाले नेहरू को उनका यह विरोध रास नहीं आया। आर्थिक रूप से पूरी तरह टूट गए डालमिया जी को टाइम्स ऑफ़ इंडिया, हिन्दुस्तान लिवर और अनेक उद्योगों को उस समय औने-पौने दामों पर बेचना पड़ा। नेहरू और उनकी चांडाल चौकड़ी के संकेत पर देश के इस राष्ट्रवादी उद्योगपति पर पर मुकदमा चला और उन्हें तीन वर्ष कैद की सज़ा सुनाई गई। जीवन में सफलता के चरम पर पहुंचने वाले डालमिया जी को देशभक्ति का यह पुरस्कार मिला कि उन्हें अपने अंतिम दिन बहुत ही पीड़ादायक स्थिति में व्यतीत करने पड़े। साथी भी साथ छोड़ गए और सत्ता तो उनके प्रति क्रूर हो ही चुकी थी। यह और भी दुर्भाग्यपूर्ण था कि तत्कालीन न्याय व्यवस्था ने भी उन्हें न्याय नहीं दिया। जब किसी स्वतंत्र देश की सत्ता की क्रूरता इतने चरम पर पहुंच जाए कि न्याय के दरवाजे भी किसी राष्ट्रवादी व्यक्ति के लिए बंद हो जाएं तो उसे आप क्या कहेंगे ?
— सत्ता की क्रूरता या न्याय की बेबसी ?
– लोकतंत्र का अपमान या भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने की शासक दल की हठधर्मिता ?
हमारा मानना है कि जब तक देश में राष्ट्रवादी चिंतन धारा के व्यक्तियों संस्थाओं और संगठनों का अपमान यत्र शिकार होता रहेगा तब तक आजादी अधूरी है और अधूरी आजादी पर कभी संतोष करके नहीं बैठना चाहिए बल्कि पूर्ण आजादी की प्राप्ति के लिए संघर्ष करना चाहिए। नेहरू के शासनकाल में देश के शासक वर्ग की उल्टी नीतियों के कारण जिन उल्टी नीतियों को अपनाया गया उनके उल्टे परिणाम आ जा चुके हैं। जिससे नेहरु के द्वारा बोये गए बबूल आज चारों ओर कांटे बिछा चुके हैं। इन कांटों के बीच से निकलना हमको और आपको है । सचमुच चुनौती बहुत बड़ी है। बहुत सावधानी के साथ एकता का परिचय देते हुए कांटों को चुनना भी है और फिर साथ के साथ जलाना भी है।
डॉक्टर राकेश कुमार आर्य

लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है