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संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा

तब हम बुद्घ के नही युद्घ के उपासक बन इतिहास बना रहे थे

war not buddhजिस प्रकार कटेहर ने ताजुल मुल्क और उसके सुल्तान को आनंद की नींद नही सोने दिया और लगभग हर वर्ष कटेहर के स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए दिल्ली के सुल्तान को भारी सेना भेज-भेजकर अपनी विवशता का प्रदर्शन करना पड़ा। वही स्थिति दोआब ने भी सुल्तान के लिए बनाये रखी। पिछले पृष्ठों पर भी हमने उल्लेख किया है कि दोआब ने दिल्ली की सल्तनत के विरूद्घ सदा विद्रोही दृष्टिकोण अपनाये रखा। अत: अब भी दोआब ने अपने उसी दृष्टिकोण का और प्रतिरोधी स्वरूप का प्रदर्शन निरंतर जारी रखा।

जलेसर पहुंचा ताजुलमुल्क

1414 ई. में जब ताजुल मुल्क ने कटेहर पर आक्रमण किया था तो वह कटेहर से आजकल के फर्रूखाबाद जिले में प्रविष्ट हुआ। हमें समकालीन इतिहास लेखकों से ज्ञात होता है कि चंदवार के चौहानों ने मुसलमानों से जलेसर जैसा महत्वपूर्ण क्षेत्र प्राप्त कर उस पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। इस अपराध के लिए हिंदुओं को दंडित करना ताजुलमुल्क के लिए आवश्यक हो गया था। इसलिए भारी दलबल के साथ ताजुलमुल्क यहां पहुंचा और उसने यहां के हिंदुओं को दंडित किया। उसने अपने सैन्य अभियान के प्रबल प्रहार से चंदवार के चौहानों से जलेसर पुन: छीन लिया और उसे मुसलमानों को सौंप कर इटावा के मार्ग से दिल्ली लौट गया।

ताजुलमुल्क अपना काम कर गया, पर अभी हिंदुओं को अपना काम करना था। इन लोगों ने भी कटेहर के हिंदुओं का अनुकरण किया और दिल्ली पहुंचे ताजुल मुल्क को बहुत शीघ्र ही सूचना मिल गयी कि जलेसर पर पुन: हिंदुअेां का नियंत्रण हो गया। यही कारण था कि ताजुलमुल्क जब1416-17 ई. में ग्वालियर गया तो वहां से लौटते हुए उसे पुन: दोआब आना पड़ा। मुस्लिम लेखक निजामुद्दीन अहमद लिखता है कि ताजुलमुल्क ने इस बार कंपिल तथा पटियाला के जमींदार नरसिंह से कर वसूल किया। तत्पश्चात वह कटेहर की ओर चला गया।

कटेहर-दोआब में चलता रहा आंदोलन

हिंदुओं के आंदोलनों ने कोल (अलीगढ़) तथा संभल के हिंदुओं को भी प्रेरित किया और उन्होंने भी उसी प्रकार अपना स्वतंत्रता आंदोलन आरंभ कर दिया जिस प्रकार का आंदोलन कटेहर दोआब के हिंदुओं ने चलाया हुआ था। यद्यपि कोल और संभल के विद्रोही हिंदू थे या मुस्लिम यह स्पष्ट नही है पर हमारा मानना है कि जहां लोगों को शासन की ओर से दंडित करने की बात आती हो तो वहां अधिक संभावना उन विद्रोहियों के हिंदू होने की ही होती है। 1420 ई में ताजुल मुल्क को चंदवार जाने के लिए बाध्य होना पड़ा था, क्योंकि तब भी हिंदू विद्रोहियों ने उसके लिए एक चुनौती खड़ी कर दी थी।

फर्रूखाबाद के राठौड़ और सुल्तान मुबारकशाह

फर्रूखाबाद के राठौड़ों के हृदय में भी देशभक्ति का लावा धधक रहा था, इसलिए जब देश के अन्य भागों से स्वतंत्रता की तेज हवाएं यहां पहुंचीं तो उन हवाओं ने यहां के हिंदू को भी जागृत कर दिया। हवा के इन झोकों को हिंदू ने जाना, पहचाना, समझा और लग गया मुस्लिम सल्तनत के विरूद्घ विद्रोह करने पर। तब सुल्तान मुबारकशाह (1421 ई. में सुल्तान बना था) को फर्रूखाबाद के हिंदू विद्रोह का दमन करने के लिए स्वयं यहां आना पड़ा।

हुआ भयंकर संघर्ष

फर्रूखाबाद में शाही सेना और राठौड़ों की देशभक्त हिंदू सेना के मध्य भयंकर संघर्ष हुआ। राठौड़ों ने बड़ी संख्या में आत्मबलिदान दिया और स्वतंत्रता की ज्योति को प्रज्ज्वलित रखने में महत्वपूर्ण और वीरोचित भूमिका निभाई। शाही सेना ने भी हिंदुओं के दमन में कोई कमी नही छोड़ी।

राय सुमेरू के पुत्र के भीतर जगा देशप्रेम का भाव

जब राठौड़ों के साथ शाही सेना भयंकर दमनात्मक  कार्यवाही कर रही थी, तभी इटावा के देशभक्त राय सुमेरू के पुत्र के हृदय में पिता की छाया ने मचलन उत्पन्न कर दी और वह मुस्लिम सेना की ओर से लडऩे में स्वयं को अपमानित अनुभव करने लगा। अत: वीर पिता के स्वाभिमान पुत्र देवाराय ने शाही सेना का साथ छोड़ दिया और युद्घभूमि से निकल गया। देवाराय के इस देशभक्ति के कार्य को मुबारकशाह ने राजद्रोह माना और वह उसे पकडक़र दंडित करने के लिए देवाराय के पीछे भाग लिया। हथकांत के हिंदू शासक ने भी किया विद्रोह

मुबारकशाह ने राठौड़ों के विरूद्घ युद्घ की बागडोर कंपिल में मलिक मुबारिक जीरक खां और कमाल खां को सौंप दी। इससे राठौड़ों के विरूद्घ युद्घ और अत्याचारों का क्रम अनवरत जारी रहा। मुबारकशाह को अपने शासनकाल में (1427-1428) हथकांत के हिंदू शासक के विद्रोह का भी सामना करना पड़ा। जिसे उसने एक बार शांत किया तो उसके लौटते ही वह शासक पुन: स्वतंत्र होकर शासन करने लगा था। इसलिए 1429-30 ई. में मुबारकशाह को पुन: इस हिंदू शासक के दमन हेतु आना पड़ा था। पुन: भयंकर संग्राम हुआ और कितने ही ंिहदू बलिदान देकर भारत माता की गोद में सो गये। ‘तारीखे मुबारकशाही’ से हमें ज्ञात होता है कि हथकान्त का हिंदू शासक इस युद्घ में अपनी सुरक्षार्थ जालहार की पहाडिय़ों की ओर चला गया था।

राठौड़ों ने जिस प्रकार अपना बलिदान देकर स्वतंत्रता की ज्योति को ज्योतित रखा उसे देखकर वीर सावरकर के शब्दों में यही कहा जा सकता है-‘‘अनेक पुष्प उत्पन्न होते हैं, और सूख जाते हैं, कोई उनकी गिनती नही करता। किंतु हाथी की सूंड द्वारा भगवान के श्री चरणों में समर्पित पुष्प अमर हो जाता है।’’ (सावरकर जी द्वारा अपनी भाभी के लिए जेल से लिखे गये एक पत्र से उद्घृत)

तब ‘बुद्घ’ हमारे निकट दूर दूर तक भी नही था

जब इस देश में हिंदू आत्म बलिदानों का गौरवशाली इतिहास रच रहा था, तब ‘बुद्घ’ की छदम अहिंसावादी नीतियां जिन्हें आजकल इस देश का परंपरागत स्वरूप बना दिया गया है, और यह धारणा रूढ़ की गयी है कि यदि कोई ‘आपके एक गाल पर चपत लगाये, तो उसका प्रतिकार किये बिना दूसरा गाल भी उसके सामने कर दो।’ अब आप तनिक कल्पना करें कि यदि इस आदर्श को हमारा हिंदू समाज उस समय अपना लेता तो परिणाम क्या आता? निश्चित रूप से इस देश में आर्यत्व (हिन्दुत्व) नाम की कोई चिडिय़ा भी नही होती। जब नित्य प्रति संघर्ष हो रहा था और हर वर्ष हजारों लाखों लोग अपना बलिदान दे रहे थे-तब भी शत्रु का हृदय द्रवित नही हुआ और हम अफगानिस्तान पाकिस्तान आदि कई महत्वपूर्ण भारतीय भूभागों से हाथ धो बैठे। अत: संघर्षों और बलिदानों से ही स्वतंत्रता की रक्षा होती है-यह सत्य है।

हमारा युद्घवादी आदर्श दबा दिया गया

हमारे लिए सौभाग्य की बात थी कि हमारे आत्मबलिदानी हिंदुओं ने संघर्ष का रास्ता अपनाया और चारों ओर ‘बलिदान ही बलिदान और केवल बलिदान’ की ध्वनि गुंजित हो उठी। आज की ‘बुद्घवादी’ अहिंसा के नीचे हमारे महापुरूषों का युद्घवादी आदर्श यूं ही दबकर रह गया। जिस आदर्श को हमारे अस्तित्व को बचाये रखने के लिए सम्मानित किया जाना चाहिए था, उसे हमने अपमानित कर दिया और जो आदर्श उस समय हमारे लिए आत्महत्या का प्रेरक तत्व बन सकता था, उसे सम्मानित कर दिया।

वीर सावरकर ने कहा था…

10 मई 1957 को दिल्ली के रामलीला मैदान में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता समर के शताब्दी समारोह को संबोधित करते हुए वीर सावरकर ने कहा था-‘‘एक आदर्श है बुद्घ का, दूसरा है युद्घ का। हमें बुद्घ या युद्घ में से एक को अपनाना होगा। यह हमारी दूरदर्शिता पर निर्भर है कि हम बुद्घ की आत्मघाती नीति को अपनाएं या युद्घ की विजय प्रदायिनी वीर नीति को।’’

धर्म की सेवा उनका आदर्श था

जब देश में युद्घ का आदर्श कार्य कर रहा था तो देश के किसी भी बलिदानी को अपना नाम इतिहास के पृष्ठों पर अंकित कराने की चिंता नही थी। अधिकांश लोगों का ध्यान इस्लाम की लपलपाती तलवार पर रहता था या अपने हाथों अपनी पत्नी, बहन पुत्री या माता के लिए जौहर रचाने पर, या फिर मुस्लिम आक्रांताओं को समाप्त करने के लिए अपने वीरोचित स्वरूप का स्मरण रहता था। इतिहास बनाने के लिए यही एक स्वाभाविक प्रक्रिया है कि आपका ध्यान सलाखों पर रहे या सूली पर। अपने स्वरूप को निखारने वाली तूलिका या तेल इत्र आदि पर नही। जो जातियां इस आदर्श को लेकर आगे बढ़ती हैं, इतिहास उनका अभिनंदन करता है, और हमारे लिए सौभाग्य की बात है कि मध्यकाल में इतिहास हमारे पूर्वजों का अभिनंदन कर रहा था। स्वयं उनके द्वार तक चलकर इतिहास उनका यशोगान कर रहा था। इतना ही नही हमारे वीर हिंदू पूर्वजों ने जिस मार्ग का अनुगमन किया उस पर इतिहास उनका आज तक यशोगान कर रहा है, हमने ही ‘वंदेमातरम्’ का गला घोंटकर और ‘जनगण मन अधिनायक….’ के संगीत की आवाज बढ़ाकर ‘वंदेमातरम्’ को सुनने में प्रमाद का प्रदर्शन किया है।

इटावा के स्वतंत्रता प्रेमी चौहान और सुल्तान मुबारकशाह

इटावा के राय सुमेरू की मृत्यु 1421 ई. में हो गयी। सचमुच राय सुमेरू की मृत्यु उस समय इटावा के लिए ही नही, अपितु हिंदू शक्ति के लिए भी एक अपूर्णनीय क्षति थी। राय बहुत ही स्वतंत्रता प्रेमी एवं एक संघर्ष शील योद्घा था। जिसका उल्लेख हम पूर्व में कर चुके हैं। राय सुमेरू  की मृत्यु के उपरांत उसका पुत्र देवराय इटावा का राजा बना। उसने अपने पिता के पदचिन्हों पर चलने का भरसक प्रयास किया, परंतु वह अपने पिता की मृत्यु से उत्पन्न हुए शून्य को भर न सका। उसने मुस्लिम सुल्तानों से इस प्रकार की संधियां कीं कि कई बार उसे अपने ही देशवासियों के विरूद्घ सुल्तान की सहायता करनी पड़ी। यद्यपि वह एक स्वाभिमानी शासक था और अपने पिता के सम्मान का भी उसे ध्यान था। इसलिए वह जब युद्घ से मुबारकशाह का साथ छोडक़र भागा तो मुबारकशाह ने उसे कैद करने के लिए स्वयं ने भी पीछा किया। देवाराय अपने इटावा स्थित दुर्ग तक पहुंचने में सफल हो गया। परंतु अप्रत्याशित रूप से मुबारकशाह के वहां पहुंच जाने पर उससे मुबारकशाह का अधिक प्रतिरोध नही हो सका और उसने सुल्तान को कर तथा उपहार देना स्वीकार कर लिया। याहिया जैसे लेखकों के प्रमाणों के आधार पर यही कहा जा सकता है कि इटावा अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ता रहा, यद्यपि कभी इस लड़ाई में सुल्तानी सेना का वर्चस्व स्थापित हुआ तो कभी उस वर्चस्व को समाप्त कर दिया गया।

शाही सेना कर दी गयी परास्त

देवाराय ने अपने पिता के पदचिन्हों का अनुकरण किया और यह सच है कि वह पिता सुमेरू की भांति तो नही पर फिर भी अपनी स्वतंत्रता को बचाये बनाये रखने के संघर्षों के चलते सफल रहा। 1432-33 ई. में मेवात अभियान के समय सुल्तान मुबारकशाह ने मलिक कमातुल मुल्क को इटावा के प्रदेश पर अपना अधिकार स्थापित करने के लिए सेना सहित भेजा था इससे आगे क्या हुआ? इस पर मुस्लिम इतिहासकार मौन हैं,जिसका अर्थ विद्वानों ने यही लगाया है कि शाही सेना या तो अपने उद्देश्य में असफल होकर लौटी थी या फिर चौहानों द्वारा परास्त कर दी गयी थी।

हमारे लिये मूल्य है देवाराय का भी

हम बार-बार अपने एक मत की पुनरावृत्ति कर रहे हैं, कि जब संघर्ष दीर्घकालीन चल रहा हो, तो उस समय हमें छोटे से छोटे संघर्ष और छोटे से छोटे प्रयास का भी सम्मान करना चाहिए। क्योंकि संघर्ष के समय हर व्यक्ति गाड़ी का एक पुर्जा या अंग बन जाता है। जिसका अपना ही महत्व होता है। महत्व को समग्रता में देखने से ही लाभ होता है, उसे खण्डों में तोडक़र देखना अपनी मानसिक संकीर्णताओं का परिचय देना होता है।

मालवीय जी के जीवन का एक उदाहरण

इसे हम एक दृष्टांत से भी समझ सकते हैं। पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने जब काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी तो उन्हें उस समय न जाने कितने और किस-किस प्रकार के लोगों के घर-घर जाकर विश्वविद्यालय के लिए चंदा मांगना पड़ा था। इसी क्रम में वह एक बार कोलकाता के एक श्रेष्ठिजन (सेठ जी) के यहां पहुंच गये। श्रेष्ठिजन के पास बैठा हुआ उसका लडक़ा दियासलाई से खेल रहा था। उस बच्चे ने बाल सुलभ क्रिया करते हुए एक तिल्ली (सलाई) व्यर्थ में ही जला दी।

जब श्रेष्ठिजन ने अपने बच्चे का यह कृत्य देखा तो वह उस बच्चे पर बड़ा क्रोधित हुआ। इतना ही नही श्रेष्ठिजन ने अपने पुत्र को एक चपत भी जड़ दिया। उस धनिक का इस प्रकार का कृत्य मालवीयजी को बुरा लगा। अत: वह चुपचाप वहां से उठकर चल दिये। तब वह व्यक्ति उनके पीछे पीछे अपने द्वार तक आया और उनसे बड़ी विनम्रता से अपने यहां आने का प्रयोजन पूछा।

मालवीय जी ने भी बड़ी विनम्रता से अपने आने का प्रयोजन बता दिया, पर साथ ही अपने सामने ही बच्चे के साथ जो व्यवहार सेठ ने किया था उस पर अपनी अप्रसन्नता भी व्यक्त कर दी। सेठ ने तब मालवीय जी से कहा कि मालवीय जी यदि मैं बच्चे को छोटी-छोटी बचत के महत्व और मूल्य से परिचित नही कराऊंगा तो वह बड़ी बचत के महत्व और मूल्य को समझ नही सकेगा। उदारता प्रसंग आने पर ही शोभा देती है। जब मेरा लडक़ा दियासलाई की एक तीली का मूल्य नही समझ रहा है तो वह मेरी इतनी बड़ी संपत्ति का मूल्य क्या समझेगा?

हमें भी समझना चाहिए….

मालवीय को बात  समझ में आ गयी उन्हें सेठ ने 50 हजार रूपये दान देकर ससम्मान घर से विदा किया। सेठ का दृष्टांत हमें भी अपने स्वतंत्रता सैनानियों के संदर्भ में समझना चाहिए। 1235 वर्ष तक प्रत्येक दिन यदि स्वतंत्रता संघर्ष किसी न किसी प्रकार गतिशील रहा तो उसको गति देने वाले प्रत्येक प्रयास का महत्व हमें समझना ही पड़ेगा। इसलिए देवाराय के प्रयासों को भी हमें नमन करना चाहिए।

ग्वालियर के तोमरों से भी मिलती रही चुनौती

हरिहर निवास द्विवेदी ने सैय्यद सुल्तानों के समकालीन तोमर शासकों का काल निर्धारण करते हुए चार राजाओं का नामोल्लेख किया है। जिनके नाम बीरमदेव (1402-1423 ई.) और लक्ष्मीसेन (1423 ई.) गणपति देव (1423-1425 ई.) और डूंगरेन्द्र सिंह (1425-1459 ई.) हैं। इन तोमर शासकों ने समय-समय पर दिल्ली के सुल्तानों का तथा प्रांतीय मुस्लिम शासकों का प्रतिरोध किया था।

ग्वालियर में किया भारी विध्वंस

1414-15 ई. में जब ताजुलमुल्क यहां आया तो यहिया का कथन है कि यहां के हिंदू शासकों ने धन देकर उसकी आधीनता स्वीकार कर ली थी। परंतु ताजुलमुल्क को दो वर्ष पश्चात ही पुन: ग्वालियर पर 1416-17 ई. में आक्रमण करना पड़ा। तब उसने यहां भारी विध्वंस किया। यहां के हिंदू शासक ने पुन: ‘कर तथा उपहार’ देकर संधि कर ली।

बीरमदेव ने किया भारी प्रतिरोध

इसी वर्ष यहां खिज्र खां भी पहुंचा। तब यहां का शासक बीरमदेव था। बीरमदेव ने अपने दुर्ग के द्वार नही खोले। दुर्ग के अत्यंत शक्ति शाली होने के कारण खिज्र खां यहां विजयी नही हो सका, और असफल रहकर ही दिल्ली लौट आया। मुस्लिम लेखकों के विवरण संदेहास्पद होते हुए भी बार-बार ग्वालियर के अभियानों का उल्लेख करके इतना तो स्पष्ट कर ही देते हैं कि यहां भी हिंदुओं का स्वतंत्रता प्रेमी स्वभाव विद्रोही बना रहा।

हरिहर निवास द्विवेदी लिखते हैं-‘‘खिज्र खां तथा ताजुलमुल्क ग्वालियर में पूर्णत: पराजित हुए तथा इस युद्घ में ताजुलमुल्क मारा गया, और खिज्र खां अपने वजीर को खोकर लौटने के लिए विवश हो गया। उपहार तथा कर वसूल करने की बात तो सुल्तानों के इन इतिहास लेखकों को गीत के धु्रवक के समान प्रत्येक युद्घ के परिणाम के साथ जोड़ देने की रूचि थी। वास्तव में बीरम देव की यह अत्यंत गौरवशाली विजय थी। इस महान विजय को दृष्टि में रखकर ही मित्रसेन के शिलालेख में लिखा गया है-‘‘श्रुत्वायदवीर भावं सुरपतिरधिकं कम्पवान स्तम्भितो भूत।’’

ग्वालियर बना रहा स्वतंत्र

इसके पश्चात भी दिल्ली के सुल्तानों ने 1427 ई, 1429-30 ई. और (1432-33 ई.) में ग्वालियर की ओर प्रस्थान किया। ग्वालियर ने इस प्रकार हर वर्ष मुस्लिम सल्तनत को गंभीर चुनौती दी। इतिहासकारों का मानना है कि कई बार के अभियानों के उपरांत भी दिल्ली सल्तनत ग्वालियर पर अपना आधिपत्य स्थापित करने में निष्फल रही। यहिया जैसे लेखक इस बात पर चुप्पी साध जाते हैं कि बार-बार के इन अभियानों का अंतिम परिणाम क्या निकला? अब यदि ग्वालियर पर मुस्लिम आधिपत्य पहले अभियान में ही हो गया था तो उसके पश्चात लगभग हर वर्ष सैन्य अभियान ग्वालियर की ओर करने का क्या औचित्य था?

सल्तनत सिमट गयी थी दिल्ली से पालम तक

ऐसी परिस्थितियों में यही निष्कर्ष निकालना उचित प्रतीत होता है कि ग्वालियर भी दिल्ली सल्तनत को चुनौती  देता रहा और सल्तनत बार-बार झक मारती रही। कदाचित हिंदुओं की ओर से मिलने वाली इन्हीं चुनौतियों का ही परिणाम था कि दिल्ली सल्तनत निरंतर सिमटती जा रही थी और वह सिमटते सिमटते दिल्ली से पालम तक रह गयी थी। सल्तनत के विशाल साम्राज्य को इतने तक सीमित कर देना हिंदू शक्ति का ही काम था। हिंदुओं की उस स्वतंत्रता प्रेमी भावना को हमारा कोटिश: नमन जिसके कारण यह सब संभव हो पाया था। इतनी बड़ी सल्तनत को दिल्ली से पालम तक सिमेट देना इतिहास का एक बहुत बड़ा चमत्कार था, पर इस चमत्कार को नमस्कार नही किया गया। चलिए पाठकवृंद! हम और आप मिलकर इस चमत्कार को नमस्कार करते हैं।

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