बहुत कुछ सीखना होगा इजराइल से भारत को

भारतवर्ष में ऐसे बहुत लोग हैं जो इजराइल का उदाहरण देकर उसकी प्रगति और राष्ट्रभक्ति की प्रशंसा करते हुए अपने देशवासियों से भी अपेक्षा करते हैं कि वे भी वैसी ही राष्ट्रभक्ति को अपनाएं । इजराइल का उदाहरण देना और अपने देश की प्रगति की ऊंची सोच रखना बहुत अच्छी सोच कही जा सकती है, परंतु दु:ख उस समय होता है जब इजराइल की राष्ट्रभक्ति का उदाहरण देकर भी इजराइल जैसे पराक्रम को अपनाने से लोग पीछे हट जाते हैं । भारतवर्ष के संदर्भ में कई चीजें हैं जो उसे इजराइल का अनुकरण करने से रोकती हैं। सबसे बड़ी बात है कि राजनीतिक लोगों के द्वारा भारत में पहले दिन से ही मुस्लिम तुष्टिकरण का खेल आरंभ हो गया था। जिसके चलते इजराइल से भारत के तत्कालीन नेतृत्व ने वैसे संबंध स्थापित नहीं किए जैसे संबंधों की अपेक्षा की जा सकती थी।
हम सभी जानते हैं कि 1947 में भारत के स्वाधीन होने के एक वर्ष पश्चात 1948 में इजराइल को स्वतंत्रता प्राप्त हुई। इजराइल वह देश है जिसे संसार में यहूदियों का एक मात्र स्थान कहा जाता है। यहूदी लोग संसार में 1500 वर्ष से उजड़े हुए घूम रहे थे। जिन्हें अपना कोई ठिकाना अपने देश के रूप में प्राप्त नहीं हो रहा था। यद्यपि उनके भीतर इस बात की बहुत अधिक पीड़ा थी कि उन्हें अपना देश मिलना चाहिए। उसके लिए इन लोगों ने संसार के देशों में इधर-उधर बिखरे होकर भी अपना संघर्ष जारी रखा । यह बहुत बड़ी बात है कि अपनी मातृभूमि की प्राप्ति के लिए ये लोग चाहे जिस देश में जहां चले गए , पर उनका सांझा लक्ष्य एक ही रहा कि अपना देश प्राप्त किया जाएगा। उन्होंने सैकड़ों वर्ष तक भी अपने उस राष्ट्रीय संस्कार को मिटने नहीं दिया जो इन्हें निरंतर अपने देश की प्राप्ति के लिए संघर्ष करने का आवाहन कर रहा था। तनिक कल्पना कीजिए कि इन 1500 वर्षों में देश भक्त यहूदी लोगों की कितनी पीढ़ियां गुजर गई होंगी ? कितने तूफान और कितने कष्ट इन लोगों के सामने आए होंगे जो इन्हें अपने पथ से विचलित कर सकते थे, पर इन्होंने अपने देश की प्राप्ति के लिए उन सारे तूफानों को सहर्ष सहन किया। इसी को किसी जाति की जीवंत कथा कहा जाता है। उसकी जीवंतता कहा जाता है। अपने देश के शत्रुओं को यहूदी लोगों ने सदा शत्रु माना। उनके सामने झुके नहीं और अपने संघर्ष से थमे नहीं। उसी का परिणाम रहा कि उन्हें एक दिन अपना देश मिला। यहूदी लोगों की दिशा एक थी, सोच एक थी, चाल एक थी और मन भी एक ही राष्ट्रभाव से भरे हुए थे।
1948 में इजराइल नाम का राष्ट्र फिलिस्तीन में जन्म लेता है। सारे संसार में जहां-जहां भी यहूदी लोग रह रहे थे वे सब अपने देश इजराइल की ओर चल पड़े। अब उनका एक ही संकल्प था कि अपने राष्ट्र का निर्माण करेंगे और उसमें बढ़-चढ़कर भाग लेंगे। यहूदी लोगों की इस जीवंतता और राष्ट्र निर्माण के प्रति संकल्प शक्ति का यदि भारत के संदर्भ में समीक्षण किया जाए तो पता चलता है कि भारत के लोग आजादी के बाद भी भारत के प्रति बहुत अधिक समर्पित नहीं रहे। बहुत सी प्रतिभाएं भारतवर्ष को केवल इसलिए छोड़ कर चली गईं कि यहां या तो सुविधाएं नहीं मिलती हैं या फिर भारत उन्हें एक पिछड़ा हुआ देश लगता था। जिसके चलते वे मानते रहे कि यदि कहीं बाहरी देश में जाकर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया जाए तो कहीं अधिक अच्छा रहेगा। यही कारण रहा कि भारत के लोगों की प्रतिभा का आजादी के बाद भी दूसरे देशों ने लाभ उठाया । जहां तक राजनीतिक नेतृत्व की बात है तो राजनीतिज्ञों ने भी भारत, भारतीयता और भारतीय राष्ट्रीयता के प्रति कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया। मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति के चलते वे वोटों की राजनीति करते रहे और अपनी दोगली मानसिकता को दोगले राष्ट्रवाद के निर्माण में प्रकट करते रहे।
भारत के राजनीतिज्ञों को अपने आपको भारतीय कहलाने में लज्जा आती रही। भारतीय प्रतिभाएं भी अपने आपको भारतीय कहलाने पर संकोच करती रहीं। वे अपने आपको ‘ इंडियन’ कहलाने में कहीं अधिक गौरवान्वित समझते थे। यही कारण रहा कि स्वतंत्रता के पश्चात भारत निर्माण और राष्ट्र निर्माण की दिशा में ठोस कार्य नहीं हो पाया।
।बहुत कम लोग जानते हैं कि 1948 में जिस समय इजराइल नाम का देश अस्तित्व में आया, उस समय अमेरिका के विदेश मंत्री एक इजरायली ही थे । कहा तो यह भी जाता है कि वर्तमान समय में परमाणु शक्ति को प्रकट करने वाला व्यक्ति भी एक यहूदी वैज्ञानिक ही था। जो उस समय अमेरिका में रह रहा था। उसी के मार्गदर्शन में जापान के नागासाकी और हिरोशिमा पर परमाणु बम डाले गए थे। इजराइल के लोगों के पुरुषार्थ और उद्यमशीलता का भी संसार में कहीं कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। हम यह जानते हैं कि इजराइल नाम का देश जिस भूभाग पर अस्तित्व में आया था वहां रेगिस्तान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था। ऐसी मिट्टी वहां पर उपलब्ध नहीं थी जिस पर कोई फसल उगाई जा सके या हरियाली तैयार की जा सके। यह बहुत बड़ी बात है कि इसराइल के लोगों ने अपने राष्ट्र निर्माण के महाभियान में इस बात को प्राथमिकता दी कि सारे रेगिस्तान को उन्होंने उपजाऊ मिट्टी से ढक दिया और अपने देश में सर्वत्र हरियाली की क्रांति पैदा कर दी। रेगिस्तान के बीच हरियाली खड़ी करना किसी आश्चर्य से कम नहीं और इस आश्चर्य को केवल इजराइल के राष्ट्रभक्त लोग ही करके दिखा सकते थे।
इधर हम भारत के लोग हैं जिन्होंने ऑस्ट्रेलिया और दूसरे देशों से रासायनिक खादों को ला लाकर अपनी उपजाऊ भूमि को ही बंजर में बदल दिया है। कहने का अभिप्राय है कि जहां इजराइल के लोगों का राष्ट्रवाद सकारात्मक दिशा में ठोस उद्यमशीलता और राष्ट्रभक्ति के साथ आगे बढ़ रहा था वहीं भारत का राष्ट्रवाद धीमी और तुष्टीकरण की छद्म चाल के साथ नकारात्मक दिशा में खप रहा था। देश के राजनीतिज्ञों ने देश के लोगों के भीतर उद्यमशीलता और राष्ट्रभक्ति के उदात्त भाव को विकसित करने की दिशा में सोचा तक भी नहीं। पता नहीं , आधुनिक भारत के निर्माता नेहरू और उनके उत्तराधिकारी कौन सा भारत बना रहे थे ? जिस देश के पास जनशक्ति के नाम पर करोड़ों नहीं अरबों हाथ हों उसके हाथ यदि केवल राजस्थान की भूमि को ही हरी-भरी करने में जुट जाते तो सारे देश की खाद्यान्न की समस्या का समाधान अबसे बहुत पहले हो गया होता, पर ऐसा किया नहीं गया। क्योंकि आजाद भारत का पहला नेतृत्व महलों की रंगीनियों में खो गया था उसे राष्ट्र निर्माण के लिए समय नहीं था।
अपने चारों ओर से शत्रुओं से घिरा मात्र एक करोड़ की आबादी वाला इजराइल देश इस बात को पहले दिन से भली प्रकार जानता रहा है कि शत्रुओं के विनाश के लिए जब तक हाथ में विनाशकारी हथियार नहीं होंगे तब तक उनके बीच अपना अस्तित्व सुरक्षित रखना संभव नहीं है । उसने भारत के नेतृत्व की भांति अंतरराष्ट्रीय शांति के पुरस्कार लेने की दिशा में सोचा तक भी नहीं। अंतर्राष्ट्रीय शांति के कबूतर उड़ाने की भारतीय नेताओं की थोथी राजनीति में इजराइल का कोई विश्वास नहीं था। वह जानता था कि अंतरराष्ट्रीय शांति सफेद कबूतर उड़ाने से नहीं बल्कि शत्रु के होश उड़ाने से स्थापित होती है।
इजराइल ने इस बात को भली प्रकार जाना और समझा कि सबसे पहले अपना अस्तित्व सुरक्षित रखना है। शत्रु यदि टेढ़ी आंख से देखने का भी दुस्साहस करेगा तो उसकी आंख तुरंत निकाल ली जाए । जबकि भारत का नेतृत्व पाकिस्तान और चीन जैसे बड़े शत्रुओं के साथ रहकर भी जिन फैक्ट्रियों में हथियार बनते आ रहे थे उनमें भी कनस्तर बनाने लगा। फलस्वरूप मूर्खों की दुनिया में रहने वाले भारतीय नेतृत्व की गलत नीतियों के चलते 1962 में चीन ने भारत की पिटाई की। तब भारत की आंखें खुली। भारत की पिटाई से प्रोत्साहित होकर पाकिस्तान ने 1965 में भारत पर आक्रमण कर दिया था। ऐसी भी चर्चाएं रही हैं कि भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी को तत्कालीन इजराइल के नेतृत्व ने तब पाकिस्तान के विरुद्ध अपनी गुपचुप सहायता प्रदान की थी । जिससे भारत पाकिस्तान को पराजित करने में सफल हुआ था। लाल बहादुर शास्त्री जी के प्रति इजराइल के नेतृत्व का आकर्षण इसलिए बढ़ा था कि उनसे पहले के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू जहां मुसलमानों की वोटों को पाने के लालच के चलते इजराइल की उपेक्षा करते थे, वहीं लाल बहादुर शास्त्री जी ने इजराइल को सम्मान पूर्ण दृष्टि से देखना आरंभ किया था।
यह भी कहा जाता है कि जब 1977 के आम चुनावों के पश्चात पहली बार देश के लोगों ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर किया और केंद्र में एक गैर कांग्रेसी सरकार मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी तो उस समय भी इजरायल के विदेश मंत्री ने पाकिस्तान को परमाणु बम से उड़ाने का प्रस्ताव उनके समक्ष रखा था । जिसे मोरारजी देसाई ने स्वीकार करने से इंकार कर दिया था । अपने प्रति मोरारजी देसाई के इस उदार दृष्टिकोण की जानकारी जब पाकिस्तान को हुई तो उसने भारत के प्रधानमंत्री को अपने सर्वोच्च नागरिक अलंकरण निशाने पाकिस्तान से सम्मानित किया था।
।हमें यह जानकारी होनी चाहिए कि इजराइल की अपनी जनसंख्या जहां लगभग एक करोड़ है वहीं उसके चारों ओर बसने वाले शत्रु देशों की कुल जनसंख्या 12 – 13 करोड़ है। 1967 में इजराइल देश के शत्रुओं ने मिलकर कर्नल कासिम के नेतृत्व में इजराइल को समाप्त करने के लिए सबसे बड़ा आक्रमण किया था और यह भी स्पष्ट कर दिया था कि हमने अपनी यह कार्यवाही इजराइल का अस्तित्व मिटाने के लिए जिहाद के रूप में आरंभ की है। इजराइल के लोगों ने अपना साहस भंग नहीं किया और उन्होंने अपने सभी शत्रुओं के विरुद्ध एकजुट होकर भयंकर युद्ध आरंभ कर दिया। मात्र 8 दिन के युद्ध के पश्चात ही जितने इस्लामी जिहादी इजराइल का अस्तित्व मिटाने का संकल्प लेकर युद्ध में कूदे थे उन सबके होश ठिकाने आ गए । उन्हें पता चल गया कि इजराइल जैसे जीवंत राष्ट्र का विनाश करना उनके लिए संभव नहीं है। इतना ही नहीं, यहूदी लोगों ने इस्लाम को मानने वाले देशों से गाजी पट्टी जैसे क्षेत्रों को छीन लिया और उस पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। इस क्षेत्र को आजाद कराने के लिए इजराइल के पड़ोसी इस्लामी देश आज तक उसके विरुद्ध कोई बड़ी कार्यवाही करने का साहस नहीं कर पाए हैं। हां, इतना अवश्य है कि संयुक्त राष्ट्र में प्रार्थना पत्र दे देकर अपने इस भूभाग को वापस लेने की मांग अवश्य कर रहे हैं।
इधर भारत के राजनीतिक नेतृत्व ने इजराइल के साहस और शौर्य के विपरीत जाकर नपुंसकता के एक से एक बढ़कर कीर्तिमान स्थापित किए हैं। युद्ध के क्षेत्र में जहां हमारी सेनाएं पाकिस्तान के विरुद्ध जीतती रही हैं, वहीं हम वार्ता की मेज पर हारते रहे हैं। पाकिस्तान और चीन जैसे देशों ने यदि हमारे भूभाग पर एक बार अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया तो उसे फिर हम वापस नहीं ले पाए। हमने कश्मीर में नियंत्रण रेखा को लगभग अंतरराष्ट्रीय रेखा के रूप में मान्यता सी दे दी थी और अभी भी हम इस मान्यता पर लगभग मौन हैं। 1967 में जब इजराइल का अपने पड़ोसी देशों से युद्ध चल रहा था तो उसने हवाई हमलों के द्वारा कासिम को हथियार फेंकने और अपना देश छोड़कर भाग जाने पर विवश कर दिया था । एक आक्रमण के माध्यम से ही अरब देशों की सारी हवाई शक्ति का उसने विध्वंस कर दिया था। इस युद्ध के पश्चात इजराइल के सभी पड़ोसी देशों को अपनी शक्ति का आभास हो गया । उन्हें पता चल गया कि इजराइल की आत्मशक्ति के समक्ष उनकी शक्ति कितनी तुच्छ और निर्बल है ? यही कारण है कि उसके पश्चात इजराइल के शत्रु देशों ने इजराइल से आंखें तक मिलाना बंद कर दिया। अब यह शत्रु देश इजराइल की ओर देखना तक उचित नहीं मानते। उनके आचरण, उनकी भाषा और उनकी कार्यशैली ने इजराइल को एक देश के रूप में मान्यता प्रदान कर दी है। इतना ही नहीं, सारा संसार इजराइल के राष्ट्रीय संस्कार और स्वाभिमान के सामने नतमस्तक है।
निश्चय ही इजराइल से भारत के लोगों को बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है।

राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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