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संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा

गुर्जर प्रतीहारों ने रखा था 300 वर्ष तक देश सुरक्षित

Gurjar2सम्मान, संपत्ति, सत्ता और शक्ति के लिए विश्व के पिछले दो हजार वर्ष के युद्घ हुए हैं। इन युद्घों को लड़ते-लड़ते एक धारणा रूढ़ हो गयी, या स्थापित कर दी गयी कि जर, जोरू और जमीन के लिए तो सभी लड़ते हैं। जबकि ऐसा कहना समस्या का समाधान नही है, अपितु समस्या को और भी अधिक उलझा देना है। वास्तव में सच तो यह है कि हर युद्घ होता तो है, किसी समाधान की प्राप्ति के लिए पर वह वास्तव में आगे आने वाले एक और युद्घ की नींव डाल जाता है। वह समाधान नही खोजता, बल्कि स्वयं एक अनसुलझी गुत्थी बनकर रह जाता है। सारा संसार सदियों से इस अनसुलझी गुत्थी का ओर-छोर पाने का प्रयास कर रहा है, इसकी तपिश से झुलस रहा है, पर उसे मनोवांछित सफलता नही मिल रही है। इसका अभिप्राय है कि युद्घ शांति का नही, अपितु क्रुद्घ मानसिकता का प्रतीक है। जिसमें मानवता खदकती रहती है।


भारतीय ऋषियों ने दिया था समाधान

भारत के ऋषियों ने युगों पूर्व इस समस्या का मूल खोजा था। उन्होंने मनुष्य के भीतरी जगत की उथल-पुथल को, चित्त की चंचलता को समझा, और वहीं से उपचार आरंभ किया। उन्होंने देखा कि यदि मनुष्य के चित्त की चंचलता को समाप्त कर दिया जाए, तो बाहरी जगत की सारी उथल-पुथल और हिंसा-तांडव, तो सारा स्वयं ही समाप्त हो जाएगा। इसलिए हमारे ऋषि पूर्वजों ने विश्व में वासना और व्यभिचार को समाप्त करने हेतु ब्रह्मचर्य की खोज की और समाज में एक मर्यादा स्थापित की कि पर स्त्री माता के समान होती है, बहन के समान होती है।

दूसरों की सम्मति के लिए उन्होंने आदर्श दिया-अपरिग्रह का अर्थात आवश्यकता से अधिक धनसंचय करना अधर्म को निमंत्रण देना है। फलस्वरूप भारतीय समाज में प्राचीन काल में चिरकाल तक शांति रही, कहीं कोई रोग नही था, कोई शोक नही था। इसके विपरीत व्यवस्था यह थी कि जो कोई व्यक्ति किसी के साथ जर, जोरू, जमीन को लेकर संघर्ष करता था, तो उसे ही लोग पापी, अत्याचारी, राक्षस, अधम और नीच की संज्ञा से पुकारा करते थे। ऐसे लोग संस्कृति द्रोही या धर्मद्रोही कहे जाते थे।

विदेशी आक्रांताओं का धर्म था….

जब इस्लाम के नाम पर कुछ आक्रांता भारत में प्रविष्टहुए तो उनका धर्म जर, जोरू व जमीन के लिए संघर्ष करना था। जिसे भारतीय अपने लिए सर्वथा निषिद्घ मानते थे, या कहिए कि पाप कार्य मानते थे। यही कारण था कि भारतीयों ने संस्कृतिद्रोही इन विदेशी आक्रांताओं को पहले दिन से ही अपने धर्म और संस्कृति को नष्टकरने वाला मानकर अपने लिए अछूत माना।

अत: जिस-जिस शासक से या समाज के प्रमुख व्यक्तियों से, या जागरूक देशभक्तों से जितना बन पड़ा, उसने उतना ही प्रयास देश की स्वतंत्रता पर आयी आपदा को रोकने में अपनी ओर से तन, मन और धन से सहयोग किया।

बात यदि गुर्जर प्रतीहार वंश की जाए तो इस वंश ने सबसे अधिक देर तक विदेशी आक्रांताओं को सफलतापूर्वक देश की सीमाओं मेें प्रवेश करने से रोकने में सफलता प्राप्त की।

गुर्जर प्रतीहार शासकों ने अरब आक्रांताओं को माना सदा अपना शत्रु

इलियट और डाउसन अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ इण्डिया’ के पृष्ठ 4, 23-24 पर गुर्जर प्रतीहार शासकों की देशभक्ति और वीरता के विषय में लिखते हैं-कि इस वंश के शासकों ने अरब के आक्रमणकारियों को सदा अपना शत्रु माना और उन्हें सीमा से पीछे ढकेलने का कार्य किया। इन देशभक्त प्रतीहार शासकों की प्रशंसा अरब इतिहास कार सुलेमान, अबूजैद, अलमसूदी और अलगर्मीजी जैसे मुस्लिम लेखकों ने भी की है। जिनके संस्मरणों या इतिहासलेखों से विदित होता है कि भारत का तत्कालीन ये प्रतापी प्रतीहार वंश देश-धर्म की स्वाधीनता के लिए कितना संघर्ष  कर रहा था और देश-धर्म की स्वाधीनता को इसने किस प्रकार अपना सर्वप्रमुख धर्म ही बना लिया था। इन मुस्लिम लेखकों के लेखों का अनुसंधानात्मक परीक्षण कर यदि इतिहास को समीक्षित किया जाएगा तो भारत का पढ़ाया जाने वाला प्रचलित इतिहास कहीं ढूंढऩे से भी नही मिलेगा।

के.एम. मुंशी कहते हैं…..

कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी भी अपनी पुस्तक ‘एज ऑफ इंपीरियल कन्नौज’ में कहते हैं कि शत्रु पक्ष के इन लेखकों की प्रशंसा गलत हो ही नही सकती। अरब सुल्तान मुल्तान और मंसूर तक सीमित रहने बाध्य हो गये और उन्होंने स्वयं को बचाने के लिए अलमहफूज (शत्रु के आक्रमण से पूर्णत: सुरक्षित) नामक नगर बसा लिया। इस बात की साक्षी हमें मुस्लिम अलविलादुरी से मिलती है। जिसे श्री कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी ने अपनी पुस्तक में उद्घृत किया है।

अलविलादुरी कहता है-‘‘अलइकीम-इबन-अवान्ह के साथ कसह के लोगों को छोडक़र सारे अलहिन्द के लोग धर्म परिवर्तन स्वीकार करते थे। मुसलमानों के सामने ऐसा कोई स्थान नही था, जहां वे शरण ले सकें। अत: उसने हिंद की सीमा पर स्थित झील के किनारे अल-महफूज (शत्रुओं से पूर्णत: सुरक्षित) नगर बसाया। जहां वे अपनी रक्षा के लिए बसे तथा उसे अपनी राजधानी बनाया।’’

अत: स्पष्टहै कि यह अलमहफूज नामक नगर गुर्जर प्रतीहार शासकों की वीरता से आतंकित होकर तो बसाया ही गया था, साथ ही उन बसाने वालों ने यह भी अनुभव कर लिया था कि शत्रु अपने देश-धर्म की स्वतंत्रता के लिए कितना समर्पित है और उसे जीतना कितना असंभव है?

गुरूजी गोलवलकर ने एक बार कहा था कि-‘‘किसी भी देश के इतिहास के काल वहां के राष्ट्र पुरूषों के नाम से जाने जाते हैं। राजाओं के वंश में बैठे अपहरण कर्ताओं और तानाशाहों के नाम से नही।’’

गुरूजी का यह कथन यदि प्रतीहार वंश के शासकों पर लागू करके देखा जाए तो सहज रूप में ही स्पष्टहो जाता है कि ये काल स्पष्टत: उन्हीं के नाम का काल है। क्योंकि इस काल में उन्हीं के वीरतापूर्ण कृत्यों के कारण देश अपनी स्वाधीनता को बचाये रखने में सफल रहा था। यह कम गौरव की बात नही है कि जब मुस्लिम तलवार संसार के अन्य देशों की संस्कृतियों को मिटाने का अनवरत कार्य कर रही थी, तब उसे भारत से बाहर रहकर प्रतीहार वंश के पराभव की प्रतीक्षा करनी पड़ी और तब तक उसका भारत में घुसने का साहस नही हुआ, जब तक कि उसे यह पूर्ण विश्वास नही हो पाया किइस सनातन राष्ट्र की सनातन संस्कृति का ये साहसी योद्घा राजवंश अब ‘पूर्णत: शांत’ हो गया है।

कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया जिल्द 3 पृष्ठ दस की यह साक्षी भी मननीय है कि एलफिंग्सटन के समय से ही भारत के कुछ योरोपीय इतिहासकार इस बात पर आश्चर्य प्रकट करते रहे हैं कि क्या कारण है कि जिन मुसलमानों ने अपने आक्रमणों को प्रथम आवेश में ही प्राय: संपूर्ण मध्य और पश्चिमी एशिया, उत्तरी अफ्रीका और दक्षिणी यूरोप को भयाक्रांत कर डाला तथा उन सभी भूखण्डों की अधिकांश जनता को इस्लाम मानने को विवश कर दिया। वे ही आठवीं शताब्दी के प्रारंभ में भारत के सिंध तथा मुल्तान में स्थापित हो जाने पर भी उससे आगे बढऩे में लगभग तीन सौ वर्षों तक कोई उल्लेखनीय सफलता प्राप्त नही कर सके।

दशरथ शर्मा अपनी पुस्तक ‘अर्ली चौहान डाइनेस्टीज’ की भूमिका में कहते हैं कि इस गुत्थी के समाधान हेतु गुर्जर प्रतीहार शासकों के विशाल शक्तिशाली और सुशासित साम्राज्य की उस जागरूकता का उल्लेख किया जा सकता है, जिसके नेतृत्व में राजपूताना और गुजरात की अनेक छोटी-छोटी सत्ताएं भी अरबों की चुनौतियां स्वीकार करने में पीछे नही रहीं।

देश-धर्म का अभिमान

ऐसी वीरता का प्रदर्शन वही जाति कर सकती है, जिसे अपने देश-धर्म का अभिमान हो और जिसकी रग-रग में उसका सांस्कृतिक गौरव रचा बसा हो। निस्संदेह ऐसी वीर जाति संसार में केवल आर्य (हिंदू) जाति ही है जो ये जानती है-

शीश जिनके धर्म पै चढ़े हैं, झण्डे दुनिया में उनके गढ़े हैं।

आदर्श देश-भक्ति

विदेशी इतिहासकारों की यह बात बहुत ही मननीय और चिंतनीय है कि तीन सौ वर्षों तक निरंतर प्रतीहार वंश को स्वतंत्रता प्रेमी भावना के कारण विदेशी इधर को पैर करके सोने से भी डरते रहे। किसी देश को इतने समय तक विदेशी गिद्घों के पंजों में जाने से रोकना बहुत बड़े पुरूषार्थ का कार्य है और साथ ही एक आदर्श देशभक्ति का भी परिचायक है। एक ऐसी देशभक्ति जो हर युग के लिए अनुकरणीय बन जाती है।

जितनी उपेक्षा में ये गुर्जर प्रतीहार वंश डाल दिया गया है उससे भी अधिक इस महानवंश के उन नाम अनाम शासकों, उपशासकों, वीर सामंतों, वीर सेनानायकों, वीर सैनिकों और क्रांतिकारी स्वतंत्रता प्रेमी स्वाधीनता के लिए अपना सर्वोत्कृष्टबलिदान देने वाले लोगों को भी भुला दिया गया है। बहुत बड़ा छल हमारे सामने हुआ पड़ा है कि एक ऐसे वीर प्रतापी शासक वंश को ही इतिहास से उठाकर फेंक दिया गया, जिसने इस देश के 1235 वर्षीय स्वाधीनता संग्राम के प्रारम्भिक  300 वर्षों में ऐसी महान भूमिका निभाई है कि उन्ही की रखी नींव पर भारत के स्वाधीनता के गौरवशाली संघर्ष ने एक भव्य भवन का स्वरूप लिया।

हमने अपनी भव्यता को खो दिया, अपनी दिव्यता को खो दिया, अपनी आभा को खो दिया, अपनी प्रतिभा को खो दिया-केवल अपनी मेधाशक्ति को विदेशी मनीषा और विदेशी बुद्घिवाद के सामने गिरवी रखकर। जबकि तथ्य बोलते हैं कि हम चोटी वाले अर्थात शीर्षतम बिन्दुओं पर बैठने वाले (पर्वत के उच्चतम शिखर को चोटी कहते हैं) थे। हर क्षेत्र में हमारे बुद्घि कौशल और अदम्य साहस का कोई सानी नही था। हमें अपने उन ‘चोटी वालों’ पर नाज है, जिनके चोटी के कृत्यों के फलस्वरूप हम आज चोटी वाले (हिंदू, जो सिर पर चोटी रखते हैं) हैं। इस चोटी के लिए जिन ‘चोटी वालों’ ने एड़ी चोटी का बल लगाकर चोटी के बलिदान दिये, उन्हें सच्ची श्रद्घांजलि यही होगी कि हम चोटी की रक्षा के लिए पुन: चोटी वाले बनें, अर्थात अपने बौद्घिक कौशल से पुन: विश्व का नेतृत्व करें।

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