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संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा

ऐबक नही कर पाया था एक दिन भी निष्कंटक राज्य

संसार में दो प्रकार का ज्ञान मिलता है-एक है नैसर्गिक ज्ञान और दूसरा है नैमित्तिक ज्ञान। नैसर्गिक (निसर्ग अर्थात प्रकृति इसी शब्द से अंग्रेजी का ‘नेचर’ शब्द बना है) ज्ञानान्तर्गत आहार, निद्रा, भय और मैथुन आते हैं, जबकि नैमित्तिक ज्ञानान्तर्गत संसार के प्राणियों के संसर्ग और संपर्क में आने से मिलने वाला ज्ञान सम्मिलित है। नैसर्गिक ज्ञान संसार के हर प्राणी को जन्मजात मिलता है। यह ज्ञान संसार की भोग-योनियों के समस्त प्राणियों को तथा कर्मयोनि के मनुष्य नामक प्राणी को समान रूप से उपलब्ध होता है। एक सीधी सादी गाय भी किसी हिंसक प्राणी या मनुष्य को अपने नुकीले सीगों से उस समय मार डाल सकती है, जब मनुष्य उसके प्रति हिंसक हो उठा हो। इसका अभिप्राय है कि गाय को अपने प्राणों का भय है और प्राणसंकट में देख वह आत्मरक्षा के लिए दिये गये अपने नैसर्गिक अस्त्रों अर्थात सींगों का तुरंत प्रयोग कर डालती है।
प्राणियों के हथियार
संसार में जितने भी प्राणी हैं, वे सभी इसी प्रकार के किसी न किसी नैसर्गिक हथियार से सुसज्जित है, चींटी अपनी आत्मरक्षा में आप पर आक्रमण कर सकती है, तो हाथी भी आपातकाल में अपनी सूंड का प्रयोग कर सकता है। पर एक मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जिसे ईश्वर ने कोई नैसर्गिक हथियार देकर नही भेजा। उसके हाथ-पांव यद्यपि कई बार हथियार का काम तो करते हैं, परंतु ऐसा नही है कि वह उनके प्रयोग से ही अपना अस्तित्व बचाये रखने में सफल हो सके।
इसलिए मनुष्य को आत्मरक्षार्थ कृत्रिम हथियारों का आविष्कार करना ही होगा। आपातकाल में एवं प्राण रक्षार्थ इन हथियारों के प्रयोग की अनुमति भारत के सभी शास्त्र प्राचीन काल से ही देते आये हैं। यहां तक कि आपद्-धर्म में तो जैन और बौद्घ धर्म ने भी हिंसा को अहिंसा ही माना है।
विधि-क्षेत्र को भारत की देन
हां, इतना अवश्य है कि भारत ने शस्त्र प्रयोग में बड़ी सावधानी बरती और ऐसी ही सावधानी बरतने की अपेक्षा हर देश और जाति से की। अत: ‘एक दोषी को फांसी चढ़ाने के लिए चाहे सौ दोषी छूट जायें पर एक निर्दोष न मारा जाए’ वर्तमान विधि क्षेत्र की इस व्यवस्था का जनक पश्चिमी जगत न होकर भारत है।
खडग का साधक रहा है भारत
भारत खडग़ का उपासक नही, साधक देश रहा है। यह बात रहस्यपूर्ण है, पर भारत के विषय में है सौ प्रतिशत सत्य। उपासक से कोई त्रुटि होने की या शस्त्र प्रयोग में असावधानी बरतने की अपेक्षा की जा सकती है, परंतु एक साधक से ऐसी अपेक्षा नही की जा सकती। यही कारण है कि विश्व की अन्य जातियों ने खडग का दुरूपयोग किया, सभ्यताएं मिटाकर और वैश्विक संस्कृति का विनाश करके। जबकि भारत ने सभ्यता और संस्कृति का विस्तार किया। इसीलिए भारत का इतिहास साधना का इतिहास है, शांति का इतिहास है, संस्कृति का इतिहास है, विकास का इतिहास है। जबकि विश्व की अन्य जातियों या देशों का इतिहास सर्वथा रक्तरंजित विनाश का इतिहास है।
हमारा घोर अपराध
हमारे पूर्वजों ने इस रक्तरंजित विनाश के प्रवाह को रोकने के लिए अनथक प्रयास किया। इस अर्थ में उनके अनथक प्रयासों का लाभ केवल भारत को ही नही, अपितु संपूर्ण मानव जाति को मिला। इतिहास के इस अकाट्य सत्य की उपेक्षा करके हमने अपने वैश्विक स्वतंत्रता के अमर सैनानी पूर्वजों की उपेक्षा कर घोर अपराध किया है। क्या यह सत्य नही है कि अपने शस्त्र प्रयोग की मर्यादा की रक्षार्थ अवसर उपलब्ध होने पर भी किसी भारतीय रणबांकुरे ने मुस्लिम जनता का कहीं भी नरसंहार नही किया? एक भी प्रमाण नही मिलेगा।
पैर जमाते कुतुबुद्दीन को चुनौती दे रहा था भारत
कुतुबुद्दीन ऐबक अपने पांव जमा रहा था और भारतीय स्वाभिमान का आक्रोश उसके पैर उखाडऩे में लगा था। हम पूर्व में भी उल्लेख कर चुके हैं कि ऐबक ने अपने स्वामी मुहम्मद गौरी के जीवन काल में तो विजय अभियान चलाये पर उसकी मृत्यु के उपरांत एक भी विजय अभियान नही चला पाया, क्यों? क्या वह महात्मा हो गया था या भारत में उसे जितना भू-भाग राज्य करने के लिए मिला वह उसी से संतुष्ट हो गया था? इन दोनों प्रकार के भ्रमों को पालने में ही दोष हैं। भारत की खडग ऐबक की धमक से अप्रसन्न थी, असंतुष्ट थी और कहीं न कहीं आंदोलित भी थी, क्योंकि वह वैश्विक संस्कृति की रक्षार्थ शत्रुनाश को अपना अंतिम उद्देश्य मानती थी और स्वप्राण रक्षार्थ शत्रुहन्ता हो जाना उसका धर्म था।
भारत की खडग से भयग्रस्त रहा कुतुबुद्दीन ऐबक
अपने इस राष्ट्रधर्म के प्रति सचेत भारत की खडग़ को भी अपमानित और पराजित दिखाने का प्रयास विदेशी इतिहासकारों ने किया है। जबकि सिक्के का एक दूसरा पहलू ये है कि कुतुबुद्दीन ऐबक भारत के बहुत ही छोटे से भूभाग पर शासन करने में सफल रहा था (और वह भी निष्कंटक नही) उसे उस अपराजित 90 प्रतिशत भारत की लपलपाती खडग़ सपने में भी दीखती थी जिसका स्वाद वह कई बार युद्घों में चख चुका था। इसलिए उसने कोई अन्य सैन्य अभियान भारत को जीतने के लिए न चलाना ही उचित समझा। भारत की तेजस्विनी और प्रतापिनी खडग की इस उपलब्धि को उपेक्षित किया गया है, और एक झटके में ही ऐबक को संपूर्ण भारत का सुल्तान घोषित कर दिया गया है। निश्चित रूप से यह मान्यता भारत की खडग का अपमान है और भारत के प्रचलित इतिहास का एक सफेद झूठ भी है।
पी.एन. ओक महोदय लिखते हैं-‘‘भारत के इतिहास का वह दिन कलंक से नितांत काला है, जिस दिन प्राचीन हिंदू राजसिंहासन को, जिसे पाण्डव, भगवान कृष्ण और विक्रमादित्य जैसे नर रत्नों ने पवित्र और सुशोभित किया था, एक घृणित विदेशी मुस्लिम ने, जिसे कई बार पश्चिम एशिया के गुलामों के बाजारों में खरीदा और बेचा गया, अपवित्र और कलंकित कर दिया। ….नवंबर 1210 ई. के प्रारंभिक दिनों में लाहौर में चौगान (पोलो) खेलते समय कुतुबुद्दीन ऐबक घोड़े से गिर गया। घोड़े की जीन के पायदान का नुकीला भाग उसकी छाती में धंस गया और वह मर गया।’’
जिन्हें बगावत कहा गया वही तो स्वतंत्रता आंदोलन थे
कुतुबुद्दीन ने 26 जून 1206 ई. से नवंबर 1206 ई. तक शासन किया। इस अवधि में वह भारतवर्ष के देशभक्तों के स्वतंत्रता आंदोलनों को शांत करने में ही लगा रहा, यद्यपि इन स्वतंत्रता आंदोलनों को मुस्लिम लेखकों ने ‘बगावत’ या ‘विद्रोह’ का नाम दिया है जो कि वस्तुत: भारतीयों के आक्रोश को या उनकी देशभक्ति को कम करके आंकने का ही एक प्रयास है। यह ‘बगावत’ शब्द भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संघर्ष के काल में जहां-जहां प्रयोग किया गया है, वहां-वहां ही मान लीजिए कि ये भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की अदम्य ज्वाला के लिए प्रयोग किया गया है। इसी रास्ते पर चलते हुए 1857 की क्रांति को अंग्रेजों ने भी ‘बगावत’ कहकर शांत करने का पूरा प्रबंध कर लिया था, परंतु उसे ‘भारत का प्रथम स्वातंत्रय समर’ वीर सावरकर जैसे स्वतंत्रता प्रेमी इतिहास लेखकों ने सिद्घ कर दिया।
हिंदुओं के प्रति ऐबक की नीति
कुतुबुद्दीन ऐबक ने जब इस देश के कुछ भू-भाग पर मुस्लिम साम्प्रदायिक शासन स्थापित कर दिया तो उसके शासन काल में हिंदुओं के प्रति शासन की नीतियां साम्प्रदायिक रहीं। मुस्लिम राज्य के हिंदुओं की स्थिति कैसी होती थी इस पर प्रकाश डालते हुए रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक ‘‘संस्कृति के चार अध्याय’’ के पृष्ठ 239 पर लिखते हैं-‘‘मुस्लिम राज्य की गैर मुस्लिम प्रजा, इस्लाम के कानून की दृष्टि में जितनी हेय समझी जाती थी, इसका अनुमान नीचे लिखे कुछ प्रतिबंधों से किया जा सकता है-
1. मुस्लिम राज्य में कोई भी प्रतिमालय नही बनाया जा सकता।
2. जो प्रतिमालय तोड़ दिये गये हैं, उनका नवनिर्माण नही किया जा सकता।
3. कोई भी मुस्लिम यात्री प्रतिमालय में ठहरना चाहे तो बेरोकटोक ठहर सकता है।
4. सभी गैर मुस्लिम लोग मुसलमानों का सम्मान करेंगे।
5. गैर मुस्लिम प्रजा मुसलमानी पोशाक नही पहनेगी।
6. गैर मुसलमान मुसलमानों के सामने जीन और लगाम लगाकर घोड़ों पर नही चढ़ेंगे।
8. गैर मुस्लिमों के लिए तीर, धनुष और तलवार लेकर चलना मना है।
9. गैर मुस्लिम जनता मुसलमानों के मुहल्लों में न बसे।
10. गैर मुस्लिम प्रजा अपने मुर्दों को लेकर जोर से विलाप न करे।’’
दिनकर जी ने जिन उपरोक्त बिंदुओं को इंगित किया है, ये वास्तव में वो अपमानजनक शर्तें हैं, जिन्हें कोई भी स्वाभिमानी जाति अपने ऊपर आरोपित होने देना नही चाहेगी। क्योंकि ये शर्तें किसी एक समुदाय को शासक तो दूसरों को शासित अथवा एक को शोषक तो दूसरे को शोषित सिद्घ करती हैं। ‘इस्लाम का भाईचारा’ भी इस समस्या का कोई निदान नही कर पाया, क्योंकि वह भाईचारा समग्र मानव समाज के लिए नही था। इसलिए शोषक और शोषित के मध्य संघर्ष होना अनिवार्य था। पिछले पांच सौ वर्षों से भारत की वीर जनता ने अपनी स्वतंत्रता की रक्षार्थ लाखों बलिदान दिये थे, लाखों ने अपना घर बार छोड़ा, परिवार छोड़ा और बस, सबको एक ही जिद थी कि साम्प्रदायिक विदेशी शासन को न तो मानेंगे और न ही स्थापित होने देंगे। कदाचित यही कारण था जिसने भारतीयों को प्राण ऊर्जा प्रदान की और वे विदेशियों के विरूद्घ सदियों तक संघर्ष करने के लिए चेतनित हुए रहे।
डा. शाहिद क्या कहते हैं
इसलिए डा. शाहिद अहमद अपनी पुस्तक ‘‘भारत में तुर्क एवं गुलाम वंश का इतिहास’’ में लिखते हैं-‘कुतुबुद्दीन ऐबक की दूसरी कठिनाई यह थी कि प्रमुख हिन्दू सरदार जिन्हें गोरी ने परास्त किया था, अपनी खोई हुई स्वतंत्रता को उसकी मृत्यु के बाद पुन: प्राप्त करने के लिए उत्सुक हो रहे थे। 1206 ई. में चंदेल राजपूतों ने हरीशचंद्र के नेतृत्व में फर्रूखाबाद तथा बदायूं में अपनी सत्ता फिर से प्राप्त कर ली थी। ग्वालियर प्रतिहार राजपूतों के हाथ में चला गया था। अंतर्वेद में भी कई छोटे राज्यों ने कर देना बंद कर दिया था और तुर्कों को निकाल बाहर किया। केन वंशी शासक पूर्वी बंगाल से पश्चिम की ओर चले गये थे परंतु अपने राज्य को पुन: प्राप्त करने के लिए वे भी सचेष्ट थे। बंगाल तथा बिहार में भी इख्तियारूद्दीन के मर जाने के बाद विद्रोह (स्वतंत्रता संघर्ष) आरंभ हो गया।’’
डा. हुसैन का यह वर्णन हमें बताता है कि गोरी की मृत्यु के पश्चात 1206 ई. से ही भारत के वे क्षेत्र अपनी स्वतंत्रता के लिए किस प्रकार सक्रिय हो उठे थे? जिनमें किसी भी प्रकार से तुर्क साम्राज्य स्थापित करने का तानाबाना बुन लिया गया था। इन प्रमाणों के रहते भी हसन निजामी जैसे लेखकों ने यह भ्रांति फेलाई कि-‘‘उसकी (कुतुबुद्दीन की) आज्ञा से इस्लाम के सिद्घांतों का बड़ा प्रचार किया गया और पवित्रता के सूर्य का प्रकाश सारे हिंद में फेेल गया।’’ हसन निजामी जैसे मुस्लिम लेखकों की इस भ्रांतिपूर्ण अवधारणा को पंख लगाये डा. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव जैसे भारतीय लेखकों ने जिन्होंने लिख दिया कि-‘‘ऐबक भारत में तुर्की राज्य का वास्तविक संस्थापक था और लगभग संपूर्ण हिन्ंदुस्तान का वास्तविक सुल्तान था।’’
वास्तव में डा. श्रीवास्तव जैसे लोगों के विषय में यही कहा जा सकता है-
‘‘खुदा के बंदो को देखकर ही
खुदा से मुनकिर हुई है दुनिया।
कि ऐसे बंदे हैं जिस खुदा के वो कोई अच्छा खुदा नही है।’’
प्रमाणों के रहते भी आत्म प्रवंचना में जीना ही राष्ट्र के साथ छल कहा जाता है।

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