पुस्तक समीक्षा :   मैं कृष्ण सखी

‘मैं कृष्ण सखी’ नामक पुस्तक श्रीमती नीलिमा गुप्ता द्वारा लिखी गई है। इसमें महाभारत की एक प्रमुख पात्र रही द्रौपदी की व्यथा कथा को विदुषी लेखिका ने बहुत ही सहज – सरल भाषा के शब्दों की माला में गूँथने का सफल प्रयास किया है। कहानी और उपन्यासात्मक शैली में लिखी गई इस पुस्तक के संवादों में या द्रोपदी के हृदय के भावों में बहुत ही सजीवता के साथ विदुषी लेखिका ने अपनी प्रस्तुति दी है।
  यदि पुस्तक को गंभीरता से पढ़ा जाए तो द्रौपदी ने अपने भावों को व्यक्त करते हुए लगभग सारी महाभारत को ही इसमें दोहरा दिया है।  हम भीष्म पितामह, उनके पिता शांतनु , माता – सत्यवती से लेकर महाभारत युद्ध के सभी पात्रों, पांडवों और कौरवों के विषय में अपनी धारणाओं, मान्यताओं ,सोच और चिंतन को द्रौपदी के साथ-साथ स्पष्ट करते चले जाते हैं ।
  श्री कृष्ण जी के देहांत की घटना को लेखिका ने अपनी मुख्य पात्र द्रौपदी के इन शब्दों में व्यक्त किया है : – ‘कुछ ही दिन बाद खबर आ गई कि यादव आपस में लड़कर मर मिटे। भीषण नरसंहार में द्वारिका का पूरा यदुवंश ही समाप्त हो गया। बेहद व्याकुल चित्त हो केशव द्वारिका से पैदल चलकर वेरावल पहुंचे। चित्त को शांत करने के लिए एक पेड़ के नीचे लेटे हुए बांसुरी बजा रहे थे कि एक तीर उनके तलुए में आकर लगा, जो भीतर तक धंस गया था। तीर चलाने वाले ने पेड़ के नीचे आकर शिकार को देखना चाहा। वहां से पता लगा कि तीर केशव के पैर में लगा है। वह बेहद दुखी हुआ। रो-रोकर क्षमा मांगी । उसने बताया कि उसे लगा कि पेड़ के नीचे कोई पशु सोया हुआ है तो उसने शिकार करने के लिए तीर चला दिया। पर अब क्या हो सकता है ?  केशव ने व्याध को क्षमा कर दिया। कहा कि यह कृत्य उसने अनजाने में किया है, और देह त्याग दी।
  वास्तव में लेखिका ने द्रोपदी के माध्यम से भारत के उन सांस्कृतिक मूल्यों को अपनी इस पुस्तक में स्थान – स्थान पर प्रकट करने का सराहनीय प्रयास किया है जो आज भी मानवता का मार्गदर्शन कर सकते हैं । यदि कृष्णजी की देह – त्याग के इस प्रसंग को ही लिया जाए तो इसमें भी बहुत उत्कृष्टतम दर्जे की विशालहृदयता का प्रदर्शन श्री कृष्ण जी ने अपने हत्यारे को क्षमादान देकर किया। मृत्यु के क्षणों में भी वह विचलित नहीं हैं, बल्कि बहुत शांतमन से अपने वध करने वाले को क्षमादान दे रहे हैं। क्योंकि वह जानते हैं कि इससे जो कुछ भी हुआ है , वह अनजाने में हुआ है। इसलिए इसे किसी प्रकार के दंड या अभिशाप को देने की आवश्यकता नहीं है।
     श्री कृष्ण जी ने समझ लिया कि अब देह – त्याग करने का समय आ गया है। इसलिए अपने हत्यारे को सम्मानपूर्वक विदा कर उन्होंने देह त्याग दी। यदि उनके स्थान पर आज की परिस्थितियों में कोई व्यक्ति रहा होता तो स्थिति कुछ दूसरी हो सकती थी। अतः आज के समाज को श्री कृष्ण जी के हृदय की पवित्रता , न्यायप्रियता और विशालता को अंगीकार करने की आवश्यकता है। विदुषी लेखिका का यही मंतव्य है।
   हर प्रसंग में कोई ना कोई संदेश देकर आज के समाज को गंभीरता से सोचने, विचारने और चिंतन करने के लिए प्रेरित करती लेखिका अपनी पुस्तक की मुख्य पात्र द्रौपदी के माध्यम से बहुत हद तक सफल रही हैं।
   द्यूत-क्रीडा वाले दिन जब द्रोपदी को निर्वस्त्र करने की चेष्टा दुर्योधन पक्ष की ओर से की गई तो विदुषी लेखिका ने उसके मन की व्यथा को उसी के शब्दों में इस प्रकार प्रस्तुत किया है – ” हे केशव ! यदि उस द्यूत-क्रीडा वाले दिन दुर्योधन का मनचाहा हो जाता, वह भरी सभा में मुझे निर्वस्त्र करने में सफल हो जाता, तुम्हारा भय अथवा चमत्कार उसे शक्तिहीन न कर देता ,तब मैं तो उस घटना के बाद दुनिया को मुंह दिखाने योग्य नहीं रहती। जीवित रहकर क्या करती ? मुझे अपने प्राणों का स्वयं ही हरण करना पड़ता, परंतु यह धर्मराज जिनकी वजह से मैं उस आग में झोंकी गई थी, क्या उसी पल मेरा त्याग न कर देते। क्योंकि तब तक उनकी दृष्टि में मैं ग्रहण योग्य न रह जाती। ऐसी पतिता नारी हो जाती जो अपने सतीत्व की रक्षा में सफल ना हो सकी।’
  यह भी एक ऐसा सहज – सुलभ संदेश और संवाद है जिसे कोई भी नारी ऐसी स्थिति में अपने अंतर्मन में अपने आपसे ही बात करते-करते व्यक्त कर सकती है। इस प्रकार पुस्तक की भाषा बहुत ही सहज भावबोध और सौंदर्य बोध से भरी हुई है। जिससे विदुषी लेखिका का प्रयास प्रशंसनीय हो गया है।
       हमारा मानना है कि आज की परिस्थितियों में द्रौपदी का चित्रण पांच पतियों की नारी के रूप में ना करके इतिहास और महाभारत की अंतःसाक्षी के आधार पर उसे अपने एक पति अर्थात युधिष्ठिर की पत्नी दिखाकर प्रस्तुत किया जाना समय की आवश्यकता है। यदि इस ओर लेखिका और भी अध्ययन कर दूसरी पुस्तक लिखें तो वह द्रौपदी और भारतीय संस्कृति के साथ और भी अधिक न्याय करने में सफल हो सकती हैं।
  इस सबके उपरांत भी लेखिका का प्रयास बहुत ही सराहनीय कहा जाएगा। पुस्तक कुल 142 पृष्ठों में लिखी गई है । पुस्तक का मूल्य ₹250 है। जिसे साहित्त्यागार, धामाणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता जयपुर 302003, फोन 0141-2310785, 4022382 द्वारा प्रकाशित किया गया है।

— डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक :  उगता भारत

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