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भारत को वैश्विक मंचों पर मजबूत बनाने में बहुत कारगर रही है हमारे प्रधानमंत्रियों की सूझबूझ

 कमलेश पांडे

भारत ने जहाँ रूस के साथ अपनी 74 वर्षों की भरोसेमंद मित्रता हर कसौटी पर कायम रखी, वहीं उसके सबसे प्रबल प्रतिस्पर्धी समझे गए अमेरिका से भी उसने ऐसे प्रगाढ़ सम्बन्ध बना लिए, जिसे निगलना या उगलना अब दोनों लोकतांत्रिक देशों के बस की बात भी नहीं रही।

साम्यवादी सोवियत संघ यानी यूएसएसआर के पतन के साथ ही शीत युद्ध की समाप्ति के बाद पूंजीवादी अमेरिका ने जिस भूमंडलीकरण यानी ग्लोबलाइजेशन और नई आर्थिक नीति यानी न्यू इकोनॉमिक पालिसी को बढ़ावा दिया, उसे तीसरी दुनिया के देशों में नवआर्थिक साम्राज्यवाद करार दिया गया। जिसके तहत दुनिया के थानेदार संयुक्त राज्य अमेरिका ने नाटो देशों के साथ मिलकर कहीं विकास की चकाचौंध दिखाकर तो कहीं बल प्रयोग आजमाकर मनमाफिक नीतियों को लागू करवाया।

हालांकि, समय के साथ ही नई आर्थिक नीतियों की सफलता का कारक समझी गईं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और उनकी छत्रछाया में विकसित हुईं राष्ट्रीय कम्पनियों की पोल खुलती गई। क्योंकि इनका मकसद सुशासन और जनसुविधाएं विकसित करवाना नहीं था, बल्कि इसी की आड़ लेकर लाभकारी सरकारी संस्थाओं का निजीकरण करवाना हो गया, ताकि सरकार और उसके चमचों की सभी अंगुलियां घी में डूबी रहें। 
लेकिन इन्हीं नीतियों का फायदा उठाकर विकसित हुए चीन ने जब अपने विस्तारवादी रवैये का इजहार किया और रूस ने वैश्विक दुनियादारी में अपनी पुरानी स्थिति यानी सोवियत संघ के जमाने वाले गौरव को पाने की लालसा दिखाई, तो अमेरिकी ‘चट्टे-बट्टों’ ने पहले तो उन्हें हल्के में लिया और फिर बाद में आक्रामक घेराबंदी शुरू कर दी। क्योंकि अमेरिका को पता था कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और आधुनिक तकनीकों की बदौलत उसने दुनिया अपनी मुट्ठी में कर ली है और जब एवं जहाँ चाहे, वह आर्थिक ब्रेक लगवाकर सम्बन्धित पक्ष को काबू में कर सकता है। 
वहीं, इन्हीं बीते 3 दशकों के बीच भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव, उनके वित्त मंत्री और बाद में प्रधानमंत्री बने डॉ मनमोहन सिंह, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नई आर्थिक नीतियों और भूमंडलीकरण की अवधारणा का फायदा उठाते हुए भारत को दुनिया के बेहद शक्तिशाली देशों की कतार में ला खड़ा किया। ऐसा करके भारत के दूरदर्शी नेताओं ने अमेरिका, रूस और चीन के बीच कीप एंड बैलेंस स्थापित करने का शानदार उदाहरण प्रस्तुत किया, जिससे भारत की तूती दुनिया में बोलने लगी। 
कहना न होगा कि एक ओर भारत ने जहाँ रूस के साथ अपनी 74 वर्षों की भरोसेमंद मित्रता हर कसौटी पर कायम रखी, वहीं उसके सबसे प्रबल प्रतिस्पर्धी समझे गए अमेरिका से भी उसने ऐसे प्रगाढ़ सम्बन्ध बना लिए, जिसे निगलना या उगलना अब दोनों लोकतांत्रिक देशों के बस की बात भी नहीं रही। वहीं, अपने खूंखार प्रतिद्वंद्वी देशों यानी चीन और पाकिस्तान की नकेल भी भारत ने ऐसे कसी कि अमेरिका, रूस, जापान, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, इजरायल, जर्मनी, इंग्लैंड, दक्षिण कोरिया, यूएई आदि भी नहीं समझ पाए कि आखिर भारत चाहता क्या है और रहेगा किस ओर! 
ऐसे हर मौके पर वो अपने नित्य नए कदमों से वह जाहिर करता गया कि वह गुटनिरपेक्ष देश तो है ही, अपने पुराने मित्रों के प्रति वफादार रहते हुए ही नये मित्रों के साथ दुनिया के समग्र विकास और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के खातिर अपनी रचनात्मक भूमिका अदा करना चाहता है। इसके लिए उसने आसियान देशों, अरब राष्ट्रों, अफ्रीकी देशों व यूरोपीय संघ के साथ अलग अलग रणनीति बनाई है जो वैश्विक कूटनीति का क़ाबिलतम उदाहरण समझा जा सकता है।

देखा जाए तो अमेरिका-इराक युद्ध, अमेरिका-तालिबान युद्ध, अमेरिका-अलकायदा संघर्ष, अमेरिका-ईरान मतभेद, चीन-दक्षिण-पूर्वी चीन सागर विवाद और अब रूस-यूक्रेन युद्ध समेत विभिन्न वैश्विक टकरावों में यूएनओ, जी-7, जी-20, ब्रिक्स, शंघाई सहयोग संगठन, सार्क देशों के साथ भारत ने भी मिलकर वही किया, जो एक सेहतमंद विश्व के लिए बेहद जरूरी समझा। 
लेकिन इस 30 वर्षों के दौरान अपने पौने 8 साल के कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वह कर दिखाया, जैसी कि उम्मीद किसी दूरदर्शी नेता से की जाती है। उन्होंने न केवल वर्षों से लम्बित जटिल समस्याओं को समुचित समाधान दिया, बल्कि मेक इन इंडिया और आत्मनिर्भर भारत के सहारे कोविड 19 जैसी वैश्विक महामारी को भी जबर्दस्त मात दी। 
खास बात यह कि उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था और सैन्य व्यवस्था में इतने व्यवहारिक बदलाव किए, जिसकी जरूरत शेष दुनिया को तब समझ में आई जब रूस ने अपने महत्वाकांक्षी पड़ोसी देश यूक्रेन की ऐसी की तैसी कर दी और अमेरिका व नाटो देश देखते रह गए। इससे पहले अफगानिस्तान में अमेरिका के घुटने टेक देने से ही यह स्पष्ट हो गया था कि चीन-रूस में जो समझदारी विकसित हो चुकी है और जिस तरह से वो अरब देशों व इस्लामिक देशों के साथ डील कर रहे हैं, उससे अमेरिका की चुनौती निकट भविष्य में बढ़ेगी ही। 
सच कहा जाए तो यदि चीन लद्दाख में भारत के साथ नहीं उलझता और ताइवान पर अपनी दादागिरी नहीं दिखाता, और दक्षिण-पूर्वी चीन सागर के देशों के साथ अपनी हेकड़ी नहीं दिखाता और रूस इन मुद्दों पर कभी खामोशी या कभी चीन परस्ती नहीं दिखाता, जो कि उसकी भौगोलिक व रणनीतिक मजबूरी है, तो आज जितनी पूछ अमेरिका की बची हुई है, वह भी लगभग समाप्त हो जाती।
इस बात में कोई दो राय नहीं कि रूस द्वारा यूक्रेन को सबक सिखाये जाने से बौखलाए अमेरिका और नाटो देशों की अगुवाई में अमेरिका द्वारा व उसके समर्थक देशों द्वारा रूस पर लगाए जा रहे वैश्विक प्रतिबंधों के चलते ही आज रूस में एप्पल व गूगल पेमेंट सिस्टम काम नहीं कर पा रहा है, जिसके कारण रूस में लोगों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। वहीं, भारत परोक्ष रूप से रूस के साथ खड़ा रहते हुए भी किसी तरह के वैश्विक प्रतिबंधों की आशंकाओं से मुक्त है, क्योंकि उसने अपनी पूरी तैयारी कर रखी है।
हालांकि, ताजा वैश्विक स्थितियों से यह साफ पता चलता है कि अब युद्ध सिर्फ जंग के मैदान में या हथियारों तक ही सीमित नहीं रह गए हैं। बल्कि रूस पर लग रहे विभिन्न प्रतिबंधों को देखते हुए अब सबको समझ में आ रहा है कि भारत के अग्रसोची सदा सुखी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो वर्ष पहले आत्मनिर्भर भारत अभियान का राग क्यों अलापा था और इतनी कम अवधि में कितनी बड़ी तैयारी कर ली है, जिसपर आज देशवासियों को भी नाज है।

दरअसल, विश्व व्यापार संगठन का सदस्य रहते हुए भी बड़े देश जिस तरह से नए नए कानूनों द्वारा अपने कारोबार को संरक्षण दे रहे हैं, उसके काउंटर के रूप में पीएम मोदी का मेक इन इंडिया अभियान और आत्मनिर्भर भारत अभियान उनकी दूरदर्शी सोच का ही हिस्सा है। क्योंकि आज नहीं तो कल भारत को दो दो युद्ध लड़ना है- एक पाकिस्तान से और दूसरा चाइना से। इसके अलावा, नेपाल, बंगलादेश, म्यांमार, श्रीलंका व मालदीव आदि को काबू में रखने के लिए भी छोटे-मोटे युद्ध करने पड़ सकते हैं। 
हालांकि आधुनिक युद्ध होगा तो तमाम मोर्चों पर युद्ध होगा। जिसमें से आर्थिक और साइबर मोर्चा काफी अहम होगा। शायद इसलिए मोदी सरकार भारत को हर मोर्चे पर तेजी से आत्मनिर्भर बनाते हुए शक्तिशाली बना रही है। वैश्विक रूप से भारत कितना मजबूत हो चुका है, इसकी झलक कश्मीर, गलवान, अफगानिस्तान और यूक्रेन में भारतीय हितों के समर्थन में प्राप्त सहयोग से समझा जा सकता है। 
ऐसा इसलिए कि आज भारत के पास अपना जीपीएस सिस्टम है, अपना रूपे कार्ड है, अपना यूपीआई सिस्टम है, अपनी डिजिटल कर्रेंसी है, अपना सोशल मीडिया प्लेटफार्म है, अपना सर्च इंजन है, अपना ‘₹’ आईएनआर पर एक्सचेंज है, अपना सेटेलाइट नेटवर्क है, अपने डिफेंस इक्विपमेंट्स है, अपनी लोकल डाटा स्टोरेज पालिसी है, अपना मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर है, अपना स्ट्रेटेजिक क्रूड ऑइल रिज़र्व है। और मजे की बात तो यह कि अब भारत अपने ऑपरेटिंग सिस्टम (ओएस) पर भी तेजी से काम कर रहा है।
लिहाजा, अब आपको समझ आ जाना चाहिए कि आपातकाल में ये “भारत” के लिए कितने ज़रूरी हैं। वाकई पीएम मोदी एक बहुत बड़े दूरदर्शी लक्ष्य पर काम कर रहे हैं जो किसी भी आपातकालीन परिस्थिति में विभिन्न मोर्चों पर भारत की सुरक्षा करेंगे।

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