अल्तमश को गद्दी पर बैठते ही मिली चुनौती

middle warप्रसिद्घ इतिहासकार एच. जी. वैल्स ने कहा है कि-‘‘शिक्षा समाज के हित का एक सामूहिक कार्य है, केवल एक व्यक्तिगत उपलब्धि नही है। मानव इतिहास शिक्षा और विनाश के बीच होने वाली दौड़ है।’’
इस इतिहासकार का यह कथन विचार करने योग्य है कि मानव इतिहास शिक्षा और विनाश के बीच होने वाली दौड़ है। भारत के संदर्भ में यदि इस बात को तर्क तुला पर कसकर देखें तो उपलब्ध इतिहास के प्रमाण यही बताते हैं कि एक सुसभ्य और सुसंस्कृत समाज को नष्ट करने के लिए मचाए गये रक्तिम ताण्डव ने इतिहास को कंपा कर रख दिया है। यद्यपि कार्लाइल जैसे विद्वानों का मानना है कि इतिहास-महान पुरूषों द्वारा ‘‘इतिहास रचने वालों की जीवन गाथा है।’’ परंतु भारत में तो इतिहास रचने वालों को मिटाने वालों की जीवन गाथा बना जान पड़ता है। शाहिद रहीम अपनी पुस्तक ‘‘संस्कृति और संक्रमण’’ में उल्लेख करते हैं कि-‘आज पूरे विश्व में इस्लाम की दो धाराएं सुसंस्कृत हैं। पहली ईश्वरीय आस्था में विश्वास रखने वाली आध्यात्मिक प्रभुता को स्वीकार करने वाली अवधारणा और दूसरी आस्था के नकाब में ईश्वरीय अनास्था की वह अवधारणा जो इस्लाम की मूल अवधारणा मानवता की रक्षा के प्रतिकूल भौतिकवादी अवधारणा है, जो सत्तात्मक प्रभुता के लिए मानवीय विनाश को उचित ठहराती है।…. कोई भी मानवाधिकारों का पक्षधर होगा, यही मानेगा।’’
शाहिद महोदय उसी पुस्तक में यह भी स्वीकार करते हैं-‘‘मुझे यह कहने में कोई संकोच नही कि भारत की वैदिक संस्कृति को यजीद की ईश्वरीय अनास्था वाली शासन प्रणाली ने ही (अर्थात सत्ता के लिए संप्रदाय-मजहब का आश्रय लेकर रक्तिम संघर्ष के माध्यम से लोगों का संहार करना) प्रदूषित करने का काम किया है।’
भारत की आत्मा ने जलाए रखी अपनी ज्योति
भारत की आत्मा ने इस रक्तिम संघर्ष के मध्य भी अपनी ज्योति को सदैव आलोकित रखा और सारा भारत उस ज्योति से ज्योतित होकर अपनी स्वतंत्रता का साधक बना रहा। इस बात को अपने शब्दों में शाहिद साहब ने इस प्रकार स्वीकार किया है-‘‘भारतीय संस्कृति में ईश्वरीय आस्था को पराजय का सामना नही करना पड़ा, उसकी प्रभुता अक्षुण्य रही। जबकि इस्लामी इतिहास में ईश्वरीय आस्था वाले आध्यात्मिक नेतृत्व को कर्बला (इराक) के मैदान में गंभीर भौतिक पराजय का सामना करना पड़ा। उमैया राजवंश की साम्राज्यवादी शासन प्रणाली जो इस्लाम के नाम पर लोकप्रिय हुई और अरब से निकलकर विश्व के कई महत्वपूर्ण महाद्वीपों में पहुंचकर स्थापित हुई और सीरिया से स्पेन तथा फिर हिंदुस्तान तक आयी उसमें सत्तात्मक प्रभुता के लिए मानवीय विनाश को उसी प्रकार उचित माना गया था जिस प्रकार यहूदी संस्कृति में आदेशित है। महमूद गजनवी……औरंगजेब इतिहास के अंधेरे में जब भी चमकते हैं, बका-ए-बशरीयत या मानवता की रक्षा के प्रति नकारात्मक चरित्र के रूप में नजर आते हैं, और ईश्वरीय आस्था का उपहास उड़ाते हुए नजर आते हैं।’’
बगावत के भय से गढ़े गये मिथक
शाहिद साहब अपनी उक्त पुस्तक में यह भी स्पष्ट करते हैं कि आर्यों का आदि देश भारत के बाहर खोजने जैसे मिथक भारत में केवल इसलिए गढ़े गये कि यदि भारतीयों को उनका शेरत्व बता दिया गया तो कहीं ऐसा न हो कि वे बगावत पर उतारू हो जाएं। वह भारत की गौरवमयी सांस्कृतिक विरासत को अपने शब्दों के मोतियों में यूं गूंथते हैं:-
‘‘मैं हिंदू संस्कृति को अविभाजित एशिया महादेश की प्राचीन संस्कृति के रूप में उत्पन्न होते हुए देख रहा हूं। जब हमारे संपूर्ण राष्ट्र महाराष्ट्र की भौगोलिक सीमा संगठित एशिया तक फैली हुई थी और महा-भारत नामक देश की पहचान सुमेर तथा असीरिया से आरंभ कर इराक, ईरान, फारस होते हुए कच्छ, सिंध, बेबीलोन, अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, पंजाब पहुंचकर हड़प्पा मोहनजोदड़ो से गुजरते हुए अगर हम अंडमान निकोबार, स्याम, बर्मा, जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया बेस्तिनिया और सीलोन तक पहुंचकर अखण्ड भारत की या आर्यावत्र्त की कल्पना करें तो स्पष्ट अनुभूति होती है कि यह द्वीप वही जम्बू द्वीप है जहां कश्यप के रूप में अदिति संतति विष्णु बैठे हुए हैं। यहीं कश्यप के कैस्यिपन सागर के जल में उनका सिंहासन है।….इसलिए आर्यों के कहीं बाहर से आने अथवा भारत पर आक्रमण करने का तो सवाल ही पैदा नही होता। आर्यों को भारत पर आक्रमण कारी के रूप में रेखांकित करने की यूरोपीय और पाश्चात्य मंशा के पीछे सदा एक ‘भय’ छिपा हुआ था कि कहीं यहूदी (पवन) आक्रमणों का हिसाब मांगने के लिए ‘हिन्ंदू संस्कृति’ के शांतिवादी लोग बगावत न कर दें।’
यह था वह षडयंत्र और यह थी वह आपराधिक मानसिकता जिसने हम भारतीयों को सामूहिक रूप से सतत स्वतंत्रता संघर्ष के अथक सैनानी न कहलाकर गुलाम कहलवाया। इस सत्य को बड़े सटीक शब्दों में सप्रमाण शाहिद साहब ने हमारे सामने रखा, इसके लिए उनके साहस को साधुवाद देना होगा। उनके लंबे उद्घरण से इस लेख को प्रामाणिकता मिली-इसलिए लेखक उनके प्रति आभारी है।
अब आया अल्तमश
भारत में सत्तावादी संघर्ष को मूत्र्तरूप देने के लिए कुतुबुद्दीन ऐबक ने यहां गुलाम वंश के प्रथम शासक के रूप में 1206 ई. से 1210 ई. तक शासन किया। जिस पर हम पूर्व में प्रकाश डाल चुके हैं। उसकी मृत्यु के उपरांत सत्तात्मक प्रभुता के लिए मानवीय विनाशों का खेल खेलने के लिए अल्तमश नामक व्यक्ति ने सत्ता संभाली। यह भी अपने पूर्ववर्ती कुतुबुुद्दीन ऐबक की भांति ही एक गुलाम रहा था, वैसे ही जैसे कुतुबुद्दीन अपने पूर्ववर्ती स्वामी गोरी का गुलाम था, वैसे ही ये अल्तमश भी ऐबक का गुलाम रहा था। यद्यपि अपने इस गुलाम पर विशेष कृपादृष्टि करते हुए ऐबक ने उसे अपना दामाद भी बना लिया था। 1210 ई में ऐबक की मृत्यु के उपरांत वह भारत के क्षेत्र का सुल्तान बना जो मौ. गोरी के शासन काल में विजित कर लिया गया था। उसने भारत पर पच्चीस वर्ष तक शासन किया।
सिर मुंड़ाते ही ओले पड़े
जैसे ही कुतुबुद्दीन ऐबक के पश्चात भारत के गोरी द्वारा विजित क्षेत्र का सुल्तान बनने की सूचना भारत का राजनीतिक नेतृत्व करने के लिए प्रसिद्घ रही दिल्ली और उसके आसपास के लोगों को (वर्तमान का एन.सी.आर.) हुई तो उन्होंने नये सुल्तान के विरूद्घ बगावत अर्थात सशस्त्र क्रांति का स्वतंत्रता आंदोलन आरंभ कर दिया। इस बात की सूचना हमें ‘तबकात-ए-नासिरी’ से मिलती है। जिसका लेखक स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि-‘दिल्ली और उसके आसपास के स्थानीय हिंदू सरदारों ने (सुल्तान की) राजभक्ति स्वीकार नही की ओर विद्रोह करने का निश्चय कर लिया। दिल्ली से बाहर आकर और गोलाकार रूप में एकत्रित होकर उन लोगों ने बगावत का झण्डा बुलंद कर दिया।’’
इस साक्षी से स्पष्ट होता है कि अल्तमस के लिए हिंदूवीरों का यह स्वतंत्रता प्रेम सिर मुंडाते ही ओले पडऩे वाली स्थिति को बताता है।
हिंदुओं ने जो किया सोच समझकर किया
हिंदुओं ने अपने स्वतंत्रता संघर्ष को बड़ी गंभीरता से सही समय पर प्रबलता से लडऩा आरंभ किया। क्योंकि वह जानते थे कि नये तुर्क शासक को राजसिंहासन पर यदि बैठते-बैठते ही लपेट दिया तो वह अपनी शक्ति का संचय नही कर पाएगा और भारतवर्ष में अपने साम्राज्य विस्तार के विषय में भी एक बार नही अपितु सौ बार सोचेगा। इसलिए उन लोगों ने नये सुल्तान को गद्दी पर बैठते ही अपनी स्वतंत्रता प्रेमी भावना से अवगत करा दिया, और विद्रोह की राह पकड़ ली। ‘तबकात-ए-नासिरी’ के लेखक से हमें पता चलता है कि हिंदुस्तान के विभिन्न भागों के नायकों और तुर्कों के साथ अल्तमश का बराबर युद्घ चलता रहा।’’
विद्रोह की जन्मस्थली दिल्ली
अल्तमश के विरूद्घ दिल्ली ने ही विद्रोह की पताका क्यों उठाई? जब हम इस प्रश्न पर चिंतन करते हैं तो दिल्ली का सदियों का ही नही अपितु बीती हन्ुई सहस्राब्दियों का वो गौरवमयी इतिहास हमारे सामने आ उपस्थित होता है जिसमें यह भारत के लिए राजनीतिक और राष्ट्रीय चेतना के केन्द्र के रूप में खड़ी दीखती है। इसने इतिहास को रचनात्मक रूप से गढऩा और आगे बढ़ाना सीख लिया था। अत: जब इसकी उस रचनात्मकता को विध्वंस में परिवर्तित करने वालों का समय आया तो अपने अतीत पर इतराती दिल्ली उसे भला सहजता से क्यों स्वीकार करती? दिल्ली में भारत झलकता है-यह कहावत यूं ही आत्मा की आवाज को पहचानती है, और ये वो पावन भूमि है जो आज भी देश की केन्द्र की सत्ताधारी पार्टी के विरोध या समर्थन का आंकलन अपने निवासियों के मतों से करा देती हैं। बस, देश के उस समय के परिवेश में भी विदेशियों के विरूद्घ जो कुछ व्याप्त था, उसे दिल्ली (एनसीआर) के लोगों के विद्रोही तेवरों ने स्पष्ट कर दिया कि अल्तमश को भारत का सुल्तान नही माना जा सकता। उसके लिए सत्ता सस्ता सौदा नही है, अपितु एक कटु अनुभव होगी और कांटों का ताज ही सिद्घ होगी। दिल्ली के विद्रोह ने बता दिया कि अल्तमश दिल्ली का हृदय सम्राट नही हो सकता। हां, वह बलात शासन करने वाला ‘दर्द सम्राट’ अवश्य हो सकता है।
देश के तत्कालीन राष्ट्रीय राजधानी निवासियों ने दिल्ली के बाहर यमुना तट पर अल्तमश को टक्कर दी थी, जिसमें वे लोग यद्यपि पूर्णत: सफल नही रहे, परंतु अल्तमश भी उनकी शक्ति को पूर्णत: कुचलने में सफल नही हो सका था, इसलिए ‘सांप, छछूंदर का संघर्ष उसके पूरे शासनकाल में निरंतर बना रहा और वह दिल्ली और उसके आसपास के लोगों से निष्कंटक नही रह पाया।
अपनों से भी मिली चुनौती
अल्तमश नामक इस सुल्तान को केवल भारतीयों से ही चुनौती नही मिली अपितु उसे अपने लोगों से भी चुनौती मिली। जो हमें बताती हैं कि मुस्लिम भाईचारा एक मति भ्रम है। क्योंकि यदि वास्तव में मुस्लिम भाईचारे का उद्देश्य इस्लामिक राज्य या शासन की स्थापना करना है तो किसी भी मुस्लिम शासक सुल्तान या बादशाह को कम से कम अपने मुस्लिम साथियों से तो निष्कंटक हो ही जाना चाहिए।
अल्तमश को 1215 ई. में गजनी की गद्दी के उत्तराधिकारी ताजुउ्दीन ने नारायण मैदान में चुनौती दी। जिसमें ताजुउद्दीन की पराजय हुई। सुल्तान ने ताजुउद्दीन और उसके सहयोगी यल्दौज को गिरफ्तार कर बदायूं के किले में बंद कर दिया। कहते हैं कि अल्तमश ने इन दोनों को वहीं चुपके से मारकर दफन कर दिया था। तदुपरांत नासिरूद्दीन कबाचा जो कि पंजाब का शासक था और अल्तमश का पुराना शत्रु था, से अल्तमश का संघर्ष हुआ। उसने 1216 ई में कबाचा को परास्त कर दिया।
देश की पश्चिमोत्तर सीमा से उसे चंगेज खां ने ललकारा, तभी ख्वारिज्म के शासक जलालुद्दीन ने भी अल्तमश को चुनौती दे डाली। इतना ही नही इसी समय अल्तमश के लिए बंगाल के खिल्जियों ने दी विद्रोह के स्वर निकालने आरंभ कर दिये।
राजपूतों ने भरी हुंकार
जब अल्तमश अपने लोगों के विद्रोह से निपटने के लिए चारों ओर आग बुझाता भाग रहा था और उसे अपने सिंहासन की सुरक्षा का उसे कोई उपाय नही सूझ रहा था, तभी देश में अपनी वीरता और साहस के लिए प्रसिद्घ रहे राजपूतों ने हिंदू शक्ति को अपनी खोयी प्रतिष्ठा और स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए ‘हिंदू शक्ति’ की ध्वजा के नीचे एकत्र करना आरंभ कर दिया। यह तैयारी बड़ी तत्परता और प्रबलता से की गयी। इसकी तत्परता और प्रबलता का अनुमान आप इसी बात से लगा सकते हैं कि जब राजपूतों के इस संगठित प्रयास की सूचना अल्तमश को मिली तो बताते हैं कि वह घबरा उठा था। वह अपने जिन मुस्लिम खिल्जी शासकों के साथ युद्घरत था, उनसे शीघ्रता में संधि कर दिल्ली की ओर लपका, क्योंकि उसे भय था कि बड़े यत्न से दिल्ली के जिस सिंहासन पर नियंत्रण किया है, यदि वह एक बार निकल गया तो पुन: उस पर नियंत्रण करना लगभग असंभव हो जाएगा। दूसरे वह राजपूतों की वीरता से भी परिचित था, और दिल्ली खो जाने से उत्पन्न हुई भारतीयों के भीतर की ग्लानि की प्रतिक्रिया को भी बह जानता था, कि यह उसके और उसके साम्राज्य के लिए कितनी घातक सिद्घ हो सकती है। हम जब इतिहास का अध्ययन करते हैं तो कई घटनाओं को सहज समझकर उनके परिणामों पर कोई विचार नही करते कि यदि ये घटना हुई तो इसके परिणाम क्या हुए और यदि ना होती तो क्या परिणाम होते?
बात उन मुस्लिम विद्रोही खिल्जियों की करें कि जिनसे अल्तमश को उस समय जूझना पड़ रहा था, और उनसे उसे कुछ संधि समझौते करके दिल्ली की राजपूत शक्ति के पराभव के लिए प्रस्थान करना पड़ा, तो विचारणीय बात ये है कि इन संधि समझौतों से उस पर क्या प्रभाव पड़ा? सामान्यत: हमें ये अनुभूति करायी जाती है कि इन संधि समझौतों से उस पर कोई प्रभाव नही पड़ा।
परंतु सच यह नही था। सामान्य परिस्थितियों में अल्तमश खिल्जियों को कुछ भी देने वाला नही था, परंतु राजपूतों की चुनौती का समाचार मिलते ही उन्हें ‘कुछ देकर’ दिल्ली की ओर चला। यह ‘कुछ देकर’ चलना भी उसकी शक्ति को दुर्बल कर गया। यदि उसे चुनौतियां न मिलतीं और वह निरंतर इस्लाम के लिए काम करता तो उसे भारत में इतनी सफलता मिल सकती थी, कि जिसे भारत के लिए दुखद ही कहा जा सकता था।

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