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संपादकीय

हिजाब और देश का संविधान

हिजाब आंदोलन इस समय भारत में सुर्खियों में है । कुछ लोग हिजाब की ओट में देश में अफरा-तफरी फैलाकर सांप्रदायिकता फैलाना चाहते हैं । निश्चित रूप से ऐसे लोग वही हैं जो पिछले कई वर्षों में देश के किसी भाग में बड़े स्तर पर सांप्रदायिक हिंसा फैलाने में असमर्थ रहे हैं। स्पष्ट है कि इन लोगों की राजनीतिक दाल तभी गलती थी जब यह देश में कहीं ना कहीं सांप्रदायिक हिंसा फैलाने में सफल हो जाते थे। अब जबकि यह ऐसा नहीं कर पा रहे हैं तो इनका राजनीतिक व्यापार ठप हो गया है। बस अपने राजनीतिक व्यापार की उन्नति के लिए ही इनके द्वारा अब हिजाब को हवा दी गई है ।
  देश को अस्थिर करने के लिए हिजाब के समर्थक लोग कह रहे हैं कि मुस्लिम छात्राओं को हिजाब पहनने की अनुमति देना इसलिए आवश्यक है कि भारत का संविधान ही उन्हें ऐसी स्वतंत्रता देता है। ऐसा कहने वाले लोगों का संकेत भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 की ओर है, जो कि देश के लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है। यद्यपि भारत के संविधान प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता के इस अधिकार को असीमित नहीं माना जा सकता। देश की एकता और अखंडता को ध्यान में रखते हुए लोक व्यवस्था के दृष्टिगत इस स्वतंत्रता को सीमित करके अर्थात मर्यादित करके देखने की अनिवार्यता है। जिसके लिए संविधान भी व्यवस्था करता है। इस संदर्भ में हमें यह मानना चाहिए कि धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार सांप्रदायिकता को प्रोत्साहित करना नहीं है। ना ही सांप्रदायिक मान्यताओं को देश के कानून या देश की व्यवस्था या देश के संविधान से ऊपर स्थापित करना धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ है। प्रत्येक प्रकार की सांप्रदायिकता पर प्रतिबंध लगाना और जिन मूल्यों से देश में शांति व्यवस्था स्थापित हो सके, उन्हें मानवीय ह्रदय में स्थापित करना पंथनिरपेक्षता अर्थात सेकुलरिज्म का वास्तविक अर्थ है।
ऐसे में यदि कोई हिजाब जैसी व्यवस्था को सांप्रदायिक अधिकार मानकर धार्मिक अधिकार की संवैधानिक गारंटी के साथ स्थापित करके देखता है तो वह समाज, न्याय और संवैधानिक व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह करता है – ऐसा माना जाना चाहिए।  संवैधानिक व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह राष्ट्र के विरुद्ध विद्रोह के समान है।
   संविधान के किसी भी प्रावधान में ऐसा नहीं लिखा है कि राज्य अपने कानूनों या शैक्षणिक संस्थानों के नियमों को एक ओर रखकर लोगों के स्थानीय या सांप्रदायिक पहनावे को उनके ऊपर स्थान देगा। यदि ऐसी व्यवस्था कर दी जाएगी तो देश में सर्वत्र अस्त व्यस्तता या अराजकता फैल जाएगी। अराजकता के उस परिवेश को रोकने के लिए सभी पर एक समान व्यवस्था को स्थापित करने के उद्देश्य से भारत के संविधान ने देश के नागरिकों के धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को मर्यादित करते हुए यह स्थापित किया है कि लोक व्यवस्था को देखते हुए इस प्रकार की स्वतंत्रता को सीमित किया जा सकता है।
   हमें ध्यान रखना चाहिए कि भारतवर्ष में विदेशी मजहब इस्लाम ने अपने पहनावे, वेशभूषा, धार्मिक व सामाजिक मान्यताओं आदि को स्थापित करने के लिए यहां के बहुसंख्यक समाज की फसल को धीरे-धीरे काटना आरंभ किया। फलस्वरूप उनके पहनावे, भाषा और विचारों में परिवर्तन करके अपने पक्ष में एक भीड़ खड़ी की। फिर धीरे-धीरे उस भीड़ को देश के किसी भूभाग में बहुसंख्यक बनाकर देश तोड़ने तक की सीमा तक ले जाया गया। इस संदर्भ में हमें सर वीएस नायपॉल की इन पंक्तियों को ध्यान रखना चाहिए कि – इस्लाम केवल एक अंतरात्मा की वस्तु या निजी विश्वास नहीं है। यह साम्राज्यवादी मांगों की पूर्ति चाहता है। एक धर्मांतरित व्यक्ति का संसार संबंधी दृष्टिकोण बदल जाता है। उसके पवित्र स्थान अरब देशों में हैं , उसकी धार्मिक भाषा अरबी है । उसका ऐतिहासिक दृष्टिकोण भी बदल जाता है। वह जो अपना था उसे नकार देता है। चाहे वह पसंद करे या न करे , वह अरबी संस्कृति का एक अंग हो जाता है। धर्म परिवर्तित व्यक्ति को हर उस हर वस्तु से जो उसकी अपनी थी – से मुंह मोड़ना पड़ता है। सामाजिक व्यवस्थाओं में अनेक अड़चन आ जाती हैं और हजारों सालों तक भी अनिर्णीत रहती हैं । उसे बार-बार बदलना पड़ता है,  लोग वे कौन हैं और क्या हैं?- के विषय में विभिन्न कल्पनाएं विकसित कर लेते हैं और धर्मान्तरित देशों के विषय में इस्लाम  मनस्ताप और नकारवाद का एक तत्व बना रहता है। इन देशों को आसानी से उत्तेजित किया सकता है। ( बियोंड बिलीफ, पृष्ठ 1, वाइकिंग, नई दिल्ली )
आजादी के बाद इस प्रकार की देशघाती सोच पर रोक लगनी चाहिए थी। अच्छा होता कि पूरे देश का पहनावा एक होता। वेशभूषा के साथ-साथ भाषा को भी एक रखा जाता और किसी को भी मजहबी मान्यताओं को देश के कानून व देश की सामाजिक व्यवस्था के ऊपर स्थापित करने की अनुमति नहीं दी जाती। यदि ऐसा किया जाता तो ही भारतवर्ष में वास्तविक पंथनिरपेक्षता की स्थापना संभव हो पाती। क्योंकि तब प्रत्येक व्यक्ति अपने मजहब को अपने घर की सीमाओं तक सीमित रखता। परंतु यहां पर उल्टा हुआ। जिसका परिणाम यह निकला है कि मजहब की मान्यताओं को देश के संविधान से भी ऊपर रखकर प्रस्तुत करने वाले लोगों की भीड़ या संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। उसी का परिणाम हिजाब का समर्थन है।
       देश को तोड़ने वाली शक्तियां न केवल देश के भीतर सक्रिय हो गई हैं बल्कि देश के बाहर बैठे देश के शत्रु भी हिजाब को समर्थन देकर इसे पूरे देश में एक आग की तरह फैला देना चाहते हैं। यह वही लोग हैं जो कभी किसान आंदोलन को समर्थन दे रहे थे या उससे पहले शाहीन बाग को समर्थन दे रहे थे या किसी प्रकार के अन्य हिंसक आंदोलनों को हवा देकर देश में अराजकता का परिवेश निर्मित करते दिखाई देते रहे हैं। निश्चित रूप से केंद्र की मोदी सरकार से कई लोगों को शिकायत हो सकती है, परंतु उसका अर्थ यह नहीं कि देश तोड़ने की शक्तियों को बढ़ावा दिया जाए या देश में अराजकता का परिवेश निर्मित किया जाए ।देश की लोकतांत्रिक सरकार से लड़ने के लिए लोकतांत्रिक अधिकार देश का संविधान देता है। उन्हीं को अपनाकर देश की सरकार का विरोध किया सकता है, इससे किसी को भी रोका नहीं जा सकता।
      इसके साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि देश का वर्तमान संविधान 14 सौ वर्ष पुरानी सामाजिक और सांप्रदायिक मान्यताओं को यथावत बनाए रखने का भी समर्थक नहीं है। प्रत्येक नागरिक को खुली हवाओं के खुले झोंके अनुभव हों, इसकी व्यवस्था करता हुआ हमारा संविधान किसी भी प्रकार के पाखंड या अंधविश्वास का भी विरोधी है। इसे एक प्रगतिशील संविधान कहा जाता है। संविधान का उद्देश्य देश के समाज को भी प्रगतिशीलता के ढांचे में ढालना होता है। ऐसे में हिजाब जैसी उत्पीड़नात्मक साम्प्रदायिक परंपरा को देश का कानून या देश का संविधान अपनी सहमति या स्वीकृति प्रदान नहीं कर सकता। संविधान समाज विरोधी सांप्रदायिक मान्यताओं को मान्यता नहीं देता । हां, ऐसी नैतिक मान्यताओं को यह अवश्य मान्यता देता है, जिससे समाज का भला हो सकता हो।
  हमारे देश के संविधान के बारे में यह भी स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि यह इस्लामिक कट्टरपंथियों को उकसाकर देश में अराजकता फैलाने के लिए भी मुल्ला मौलवियों या धार्मिक कट्टरवादियों को एक पल की भी छूट नहीं देता। किसी को भी अधिकार नहीं है कि वह अपनी कट्टरपंथी विचारधारा को थोपकर देश के संविधान की धज्जियां उड़ाये। यदि इसके उपरांत भी कोई वर्ग या उस वर्ग के कट्टरपंथी देश के संविधान का सहारा लेकर देश में अराजकता फैलाने का प्रयास करते हैं तो उनके विरुद्ध कठोरतम कार्यवाही करने की व्यवस्था भी देश का संविधान करता है। क्योंकि कट्टरपंथियों को बरगलाकर देश के संविधान और व्यवस्था के विरुद्ध उन्हें खड़ा करना देश की व्यवस्था को अराजकता में परिवर्तित करने का खुला प्रयास है। इस प्रकार के प्रयास को देश का संविधान धर्मनिरपेक्षता के अधिकार की चादर में लपेटकर नहीं देखता, बल्कि इसे खुले रुप में सांप्रदायिकता ही बताता है।
   जिन लोगों को दीवार पर लिखी इबारत दिखाई नहीं देती वह या तो अंधे हैं या फिर जानबूझकर अंधे होने का नाटक कर रहे हैं। पर इन अंधों को और उनके इरादों को जो लोग समझकर भी नहीं समझ रहे हैं वह तो महा-अंधे हैं और यदि वे राजनीति में रहकर महा-अंधे होने का अपना प्रमाण दे रहे हैं तो निश्चित रूप से हिजाब का समर्थन करने वालों से अधिक देश के लिए वे लोग अधिक खतरा हैं जो हाकिम होकर या हुकूमत में बैठकर देश के विरुद्ध ऐसा परिवेश निर्मित होने में किसी न किसी प्रकार से अपना समर्थन दे रहे हैं। हमारे इस संकेत की परिधि में वर्तमान राजनीति , राजनीतिक दल और राजनीतिज्ञ सभी आते हैं।
    हमारी यह स्पष्ट मान्यता रही है कि राजनीति को देश के लिए ‘खाजनीति’ बनाने की अपेक्षा राष्ट्र नीति बनाना अधिक उत्तम होगा। देश की राजनीति को इस समय ‘खाजनायकों’ की नहीं अपितु राजनायकों और राष्ट्रनायकों की आवश्यकता है। खाजनायकों ने खाज बढ़ाते बढ़ाते देश की व्यवस्था को कोढ़ी बना दिया है। इस समय देश की राजनीतिक स्थिति देश के कोढ़ और कोढ़ को बढ़ावा देने वाले ‘खाजनायकों’ का उपचार मांग रही है।
   इस समय आवश्यकता है कि देश के हिजाब समर्थकों पर नकेल डालने के लिए देश की सरकार सांप्रदायिक मान्यताओं को देश के कानून से ऊपर स्थापित करने वाले राजनीतिक लोगों और राजनीतिक दलों पर भी अंकुश लगाने का काम करे। ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि प्रत्येक राजनीतिक दल देश के बारे में बोलने के लिए बाध्य हो जाए। ऐसी व्यवस्था को लागू करने के लिए आवश्यक है कि देश का प्रत्येक राजनीतिक दल सांप्रदायिकता और पंथनिरपेक्षता में अंतर करना सीखे। उसे बताया जाए कि संविधान की इस व्यवस्था का अर्थ देश का विरोध करना नहीं है और ना ही किसी संप्रदाय को बढ़ावा देना है अपितु इसका अर्थ देश के मूल विचार या देश की मुख्यधारा के साथ जुड़कर काम करना है। इसके लिए राजनीति और राजनीति में बैठे लोग भी यदि आड़े आते हैं तो उनका भी उपचार करना चाहिए।
   धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म से दूर होना नहीं है। इसका अर्थ लोक कल्याण और विश्व कल्याण के दृष्टिगत धर्म की नैतिक मान्यताओं को मानने के लिए सबको प्रेरित और बाध्य करना है।
सेकुलरिज्म का अर्थ धर्म से द्रोह करना नहीं है । सेकुलरिज्म का अर्थ तो धर्म द्रोहियों को राज धर्म और समाज धर्म का निर्वाह करने के लिए प्रेरित करना है। देश का संविधान हमें राजधर्म की शिक्षा देता है। यह कैसे हो सकता है कि देश का संविधान जहां हमें राजधर्म और समाज धर्म का निर्वाह करने की शिक्षा देता हो, वहीं वह हमसे कह दे कि सब के सब धर्म से दूर हो जाओ। यदि ऐसा होता तो अटल बिहारी वाजपेयी कभी भी गोधरा कांड के बाद गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को राजधर्म के निर्वाह की शिक्षा नहीं देते।
   आज समय आ गया है जब इस्लाम को मानने वाले लोग अपने गिरेबान में झांकने का साहस करें और सांप्रदायिकता के नाम पर जिन मान्यताओं को ढोने के लिए मुस्लिम महिलाओं को बाध्य किया जाता है उन्हें उनके मौलिक संविधानिक अधिकार प्रदान किये जायें। यदि मुस्लिम समाज की बहनें अपने ऊपर लगी बंदिशों को तोड़ने के लिए सक्रिय होती हैं तो देश के शासक वर्ग को उनके इस प्रकार के प्रयास को अपना समर्थन देना चाहिए। इसके लिए चाहे जिस प्रकार के कानून बनाए जाएं, पर अब प्रत्येक प्रकार के कसम कठमुल्लावाद से मुस्लिम समाज की महिलाओं को बाहर लाने की आवश्यकता है।
   जहां तक नारी अधिकारों की बात है तो इस पर हमें यह समझ लेना चाहिए कि भारतीय वैदिक संस्कृति में लज्जा को नारी का भूषण बताया गया है। जहां नारी लज्जाशील होती है अर्थात अपनी लज्जा का अपने आप ध्यान रखती है वहां उसके अधिकार सुरक्षित रहते हैं। इसका अभिप्राय है कि वह अपनी लज्जा के प्रति स्वयं कर्तव्यशील बने। जब नारी अपनी लज्जित को स्वयं नीलाम करने पर उतर आती है अर्धनग्न या कम से कम कपड़े पहनकर मंच पर आती है या सार्वजनिक समारोह में पहुंचती है तो समझिए कि वह पुरुष समाज को अपने आप आमंत्रण देती है कि वह मेरी ओर देखे। कामुक अर्थात सेक्सी ड्रेस पहनकर पुरुष को अपनी ओर आकर्षित करने का अभिप्राय समाज की व्यवस्था को तोड़ने जैसा माना जाना चाहिए। यदि आज की कोई नारी अपनी लज्जा को आधुनिकता के नाम पर स्वयं नीलाम करती देखी जाती है तो यह भी उचित नहीं है और यदि कोई पुरुष उसे उसकी लज्जा को नीलाम करने के लिए कहीं बाध्य करता है तो यह और भी बड़ा पाप है। कहने का अभिप्राय है कि नारी को लज्जाशील होना चाहिए। निर्लज्ज नहीं। समाज के पुरुष वर्ग को उसकी लज्जा का सम्मान करना चाहिए, ना कि लज्जा के नाम पर उसे बंदिशों की जेल में ठूंसना चाहिए। इसी को मर्यादा कहते हैं। मर्यादा के पालन के लिए हिजाब की आवश्यकता नहीं है। हिजाब को लेकर हमारे संविधान की भी यही धारणा है।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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