इस्लामिक जिहाद से मुक्ति का मार्ग बताती है धर्म संसद

  विनोद कुमार सर्वोदय

जब शतकों से इस्लामिक जिहाद के भीषण अत्याचारों से मानवता त्राहि – त्राहि करती आ रही हो फिर भी कोई राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगठन इससे सभ्य समाज को सुरक्षित रखने में असफल हो रहा हो तो वैश्विक समाज क्या करे? ऐसे में इन जेहादियों की घृणित और हिंसक सोच से जनमानस को अवगत करा कर आत्मरक्षार्थ सजग करने के लिए “धर्म संसद” जैसे कार्यक्रमों के आयोजन सम्भवत: महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं ? नि:संदेह धरती को रक्त रंजित करने वाली भयावह जिहादी मनोवृत्ति से मुक्त कराने के लिए गीतोपदेश आधारित “धर्म ससंद” सर्वाधिक उत्तम मार्ग होगा l

हमारे संविधान और कानून में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिसके अंतर्गत हमें हमारी ही पुण्य भारत भूमि पर हमारे ही विरुद्ध मुगल काल में हुए अनगिनत भयानक अत्याचारों, देश विभाजन के समय हुए असंख्य अपराधों और पाकिस्तान, बांग्लादेश एवं कश्मीर आदि से हिन्दुओं को ही मिटाने के व्यापक षड्यंत्रों और हज़ारो मुस्लिम दंगों के विरुद्ध आज तक बहुसंख्यक हिन्दुओं को कोई न्याय मिला हो? इसी के दुष्प्रभाव से आज भी देश के विभिन्न भागों में उदार हिन्दू समाज आक्रामक मुस्लिम समाज के आगे पीड़ित होने को विवश है l गांधीवाद के दुष्प्रभाव से ग्रस्त होने के कारण हिन्दू समाज कब तक मुस्लिम दंगाइयों से सुरक्षित रह पाएगा? एक ओर जहाँ मुस्लिम समाज अपने नेताओं के आह्वान पर शस्त्रों से सुसज्जित होकर आक्रामक बना हुआ है वहीं दूसरी ओर हिन्दुओं के नेता मुस्लिम आक्रमकता के विरूद्ध हिन्दुओं को शांति और अहिंसा का उपदेश देकर भाईचारा बनाने को दिग्भ्रमित कर देते हैं l ऐसे में हिन्दू समाज को कर्तव्यनिष्ठ और धर्मनिष्ठ बनाने के लिए धर्म संसद जैसे प्रेरणादायी कार्यक्रम करने वाले आयोजकों का स्वागत होना चाहिए l

इतना ही नहीं हमारे तथाकथित कुछ स्वार्थी नेताओं की स्वयं संघर्ष से बचने व भौतिक जीवन का सुख भोगने की प्रबल इच्छाओं ने हिन्दुओं को भ्रमित करने के लिये यह समझाया कि “हम कभी मिटने वाले नहीं हैं, सनातन कभी नहीं मरता” आदि-आदि । जबकि धरती के एक बड़े भू भाग पर शतकों से चल रहे सनातन धर्मावलंबियों के आस्था स्थलों का विध्वंस और उनके भक्तों के नरसंहारों को नियंत्रित नहीं किया जा सका l ऐसे अक्षम नेतृत्व के कारण हिन्दू अपने शौर्य व पराक्रम से हीन होकर भीरू व कायर हो गया, उसकी अहिंसा व सहिष्णुता बडा दुर्गंण बनती रही । वह स्वाभिमान रहित आत्मग्लानि में जीने को विवश हो गया और सत्ता के भूखे नेताओं की स्तुति करने में अपने को धन्य मानता रहा। इन विचित्र स्थितियों में भी शासन-प्रशासन केवल लोकतांत्रिक व्यवस्था की बेड़ियों में बंध कर सत्ता के जोड़ – तोड़ में लगा रहे और मीडिया चांदी के टुकड़े बटोरने में तो भारत की बर्बादी के लिए सक्रिय षडयंत्रकारियों को कौन रोक पायेगा? इन विपरीत परिस्थितियों को स्पष्ट करके उनसे सतर्क होने के लिए सभ्य समाज में धर्म रक्षा और राष्ट्र रक्षा के प्रति सकारात्मक भाव जगाने के लिए राष्ट्रभक्त समाज विभिन्न अवसरों पर सभाएँ व सम्मेलन आदि करके आवश्यक दायित्व निभाते हैं तो भी तथाकथित मानवतावादी और धर्मनिरपेक्षवादी तत्वों का विरोध जगजाहिर होता रहता हैं l

संयम, धैर्य, त्याग व अहिंसा इत्यादि मानवीय गुणों की हम कब तक परीक्षा देते रहेंगे ? हम अतिउदार से अतिराष्ट्रवाद के लिए कब आक्रामक होंगे? बाहें पसारे खडे हिन्दू समाज को कौन ऊर्जावान करके विजय पथ पर अग्रसर करेगा? संविधान और विधानों का नित्य उल्लंघन करने वाले धर्मांधों के अत्याचारों को नियंत्रण करने में शासन-प्रशासन के भरोसे निश्चिंत रह कर क्या हम अपना आत्मगौरव सुरक्षित रख पाएंगे? आज भी यह कितना पीड़ा दायक है कि पराधीनता काल में हमारे बौद्धिक विकास के अवरुद्ध होने के कारण हमारा आक्रोशित भाव मिटा और पुरुषार्थ भी नष्ट हुआ तो भी हम आज तक उसी दास मनोवृत्ति में ही जीने का स्वभाव बनाये हुए हैं,क्यों? इन्हीं विषयों पर सामुहिक चिंतन और मनन करने के लिए धर्म संसद जैसे कार्यक्रमों का आयोजन विशेष महत्त्व रखता है l

इस्लामिक जिहाद के अत्याचारों से जब निर्दोषों का रक्त बहता है तो देशी-विदेशी मीडिया मौन हो जाता है l वैश्विक समाज का इस्लामीकरण करने के लिए धरती को रक्त रंजित करने वाले कटिबद्ध हजारों इस्लामिक आतंकवादी संगठनों का विरोध क्यों नहीं होता ? मोहम्मदवाद के कारण उपजा मुस्लिम सांप्रदायिक कट्टरता का घिनौना और जिहादी जनून कि “हमारा (इस्लामिक) मार्ग ही श्रेष्ठ है तथा तुम्हें भी इसी मार्ग पर ले जाना हमारा (मुसलमानों) का दायित्व है” को सभ्य समाज कैसे और क्यों स्वीकार करेगा?

चिंता का विषय है कि जब कुरान और हदीस आदि के कारण भड़के हुए मुसलमान हिन्दू आदि काफ़िरों (गैर मुसलमानों) के विरुद्ध हिँसा फैला कर मानवता को त्राहि त्राहि करने को विवश कर देते है तो उसके विरूद्ध तथाकथित बुद्धिजीवियों और नेताओं के स्वर क्यों नहीं गूँजते? यह भी दुःखद है कि सामान्यतः इस्लामिक जगत में मुसलमानों को मानवीय सिद्धान्तों के स्थान पर अमानवीय जिहादी विचार अधिक आकर्षित करते हैं l इसीलिये मानवता की रक्षार्थ सक्रिय सभ्यताओं और संस्कृतियों के अनुयायियों का यह परम दायित्व है कि वे सब एकजुट होकर वैश्विक शांति के लिए इस्लामिक जिहाद के विरूद्ध संघर्ष करें l विश्व की महाशक्तियों और अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं को भी आगे आकर जेहादियों के विरूद्ध सामाजिक जागरूकता के लिए अभियान चलाने होंगे l ध्यान रहे कि “मुस्लिम अतिवाद” मानवता का शत्रु है जबकि “हिन्दू अतिवाद” मानवता का पुजारी है l

प्राय: समस्त हिन्दू धार्मिक आयोजनों में “धर्म की जय हो और अधर्म का नाश हो, विश्व का कल्याण हो” इत्यादि उत्साहवर्धक उद्घोषणा विशुद्ध रूप से बहुत ही भक्ति पूर्ण वातावरण में की जाती आ रही है l लेकिन यह नहीं बताया जाता कि धर्म क्या है और अधर्म क्या धर्म के शत्रु कौन है और अधर्मी कौनधर्म और राष्ट्र की रक्षा क्यों आवश्यक है __आदि-आदि ?

इसी सन्दर्भ में जब हमारे धर्माचार्यों द्वारा धर्म संसद, राष्ट्र रक्षा एवं धर्म रक्षा सम्मेलनों और अधिवेशन आदि के माध्यम से स्पष्ट रूप से धर्म और अधर्म में भेद बता कर विधर्मियों से विश्व कल्याण के लिए सक्रिय होने के प्रवचन दिए जाते हैं तो भारत विरोधी शक्तियों के दम और दाम पर पलने वाले टुकडे-टुकड़े गैंग की टोलियों का सिंहासन डोलने लगता है l ये विधर्मी अपने-अपने आकाओं को प्रसन्न करने के लिए अपनी ही मातृभूमि “भारत” के साथ विश्वासघात करने से भी नहीं चूकते l ऐसे दुष्टों का भी कल्याण चाहने वाले सनातन संस्कृति के अनुयायियों को शत्रु और मित्र में भेद करना कब समझ में आयेगा ? गीता के उपदेशों को केवल भक्तिरस तक ही सीमित न करके उसके भक्तों में धर्म रक्षार्थ वीर रस का भी भाव जागृत हो, ऐसे सम्मेलनों का एक मात्र मुख्य ध्येय होता है।

अनेक सन्तों का सन्देश बार बार सोचने को विवश कर देता है कि क्या श्रीराम, श्री कृष्ण व आचार्य चाणक्य आदि की शिक्षाओं का गुणगान करने वाला हिन्दू समाज अपने आपको योहीं नष्ट होने के लिए समर्पित करता रहे? क्या अपने धर्म को शनै-शनै नष्ट होते देखते हुए किसी को भी आत्मग्लानि नहीं होती? क्या भारत भक्त अपनी ही पुण्य भूमि पर मुगलकलीन अत्याचारों के साये में जीने को विवश होते रहें और अपने अस्तित्व को मिट जाने दें?क्यों नहीं कोई इन जगे हुए रीढ़ हीन हो रहे बंधुओं को हिला-डुला कर संघर्ष के लिए तैयार करता? सम्भवत: सभ्य समाज और मानवता की रक्षार्थ सक्रिय ऐसे सकारात्मक सम्मेलनों का आयोजन भटके हुए समाज को अंधकार से निकाल कर उनके भविष्य को एक दिन अवश्य प्रकाशवान करेगा l

अंततोगत्वा धर्म संसद जैसे आयोजनों के माध्यम से जन-जन को यह संदेश अवश्य झकझोरेगा कि आत्मरक्षार्थ इस्लामिक जेहादियों के अहिंसक और हिंसक अत्याचारों को नष्ट करने के लिए शास्त्र और शस्त्र दोनों का सदुपयोग करना सभ्य समाज का मौलिक, संवैधानिक एवं धार्मिक अधिकार है l

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