“माहौल खराब मत करो”- कहने वाले इस सच्चाई को जरूर समझ ले

डॉ. राजीव मिश्रा

अगर आप कभी भी हिन्दू समाज के संकट की चर्चा करेंगे तो आपको अक्सर ऐसे हिन्दू मिलेंगे जो आकर कहते हैं कि “कोई संकट नहीं है” या “माहौल खराब मत करो”। मुझे शायद ही कभी कोई मुस्लिम मिला होगा जो मेरी बात का विरोध करे। हमेशा हिन्दू ही मिलते हैं जो आपकी आवाज दबाते हैं। मुस्लिम को तो जो कुछ करना है वह करेगा, वह आपसे बहस करने में टाइम खराब नहीं करता।
यह माहौल खराब होने का डर क्या है? कहाँ से निकल कर आता है?
इसकी जड़ें हैं इस्लामिक इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना “उमर का सुलहनामा” में। इस्लाम के दूसरे खलीफा उमर के समय में सीरिया के ईसाइयों और खलीफा उमर के बीच यह सुलहनामा हुआ. यह सुलहनामा सीरिया के ईसाइयों ने लिखा और उन्होंने खुद इस्लाम से प्रोटेक्शन माँगते हुए ये शर्तें मंजूर कीं जो हमेशा से इस्लाम के काफिरों के साथ रिश्तों का आधार बना रहा।
इस “सुलहनामे” की कुछ शर्तें ये थीं…
– हम अपने नए पूजास्थल नहीं बनायेंगे और पुराने टूटे पूजास्थलों की मरम्मत नहीं करेंगे।
– हम अपने धार्मिक चिन्हों (क्रॉस इत्यादि) को सार्वजनिक स्थानों पर प्रदर्शित नहीं करेंगे।
– हम अपने पूजास्थलों (चर्च/सिनागॉग) में ऊँची आवाज में प्रार्थनाएं नहीं करेंगे, और मुस्लिमों के मोहल्ले से गुजरते हुए संगीत वगैरह नहीं बजायेंगे।
– हम किसी भी काफिर को इस्लाम में कन्वर्ट होने से नहीं रोकेंगे और किसी भी मुस्लिम को अपने रिलिजन में कन्वर्ट करने की कोशिश नहीं करेंगे।
– हम अपने पूजास्थलों को दिन-रात मुस्लिम मुसाफिरों के लिए खुला रखेंगे और गुजरने वाले किसी भी मुस्लिम को तीन दिनों तक खाना-पानी और रहने की जगह देंगे।
– हम घोड़े पर जीन कसकर नहीं बैठेंगे, और हथियार लेकर नहीं चलेंगे।
– कोई भी काफिर किसी मुस्लिम के घर के बाजू में उससे ऊँचा मकान नहीं बनाएगा।
– हर काफ़िर हर मुस्लिम को पूरी इज्जत देगा और उसके लिए बैठने की जगह छोड़ देगा।
– काफ़िर अपने बच्चों को कुरान नहीं पढ़ाएंगे।
इन सारी शर्तों को सीरिया के बाशिन्दों ने खलीफा उमर के सामने रखा…और बेहद रहमदिल खलीफा उमर ने इन शर्तों में सिर्फ एक शर्त जोड़ी – कोई काफ़िर किसी मुस्लिम पर हाथ नहीं उठाएगा। यानि किसी भी हालत में काफ़िर मुस्लिम पर हाथ नहीं उठाएगा… बचाव में भी नहीं, जवाब में भी नहीं।
और सुलहनामा पेश करने वाले लोगों ने कहा कि वे यह सुलहनामा अपने लिए और अपनी कौम के लिए कबूल करते हैं। बदले में उन्हें जीने का अधिकार मिलता है। अगर किसी ने भी इन शर्तों में से कोई भी तोड़ी तो वह प्रोटेक्शन जो आपको प्रॉमिस किया गया है, वह हटा लिया जाएगा. यानि गब्बर के ताप से तुम्हें सिर्फ गब्बर ही बचा सकता है…
ध्यान दें, ये शर्तें खलीफा उमर ने नहीं लिखी थीं. ये खुद काफिरों ने अपने हाथ से लिखी थीं … किस खौफ़ में लिखी थीं यह अलग से बताने की जरूरत नहीं है. और काफिरों ने सिर्फ अपनी नहीं, सबकी गारण्टी ली थी, कि सभी इन शर्तों को मानेंगे। उन्होंने सबका जिम्मा लिया, इसलिए ये शर्तें “जिम्मा की शर्तें” कहलायीं जहाँ से जिम्मेदारी शब्द आता है। इस जिम्मा की शर्तों पर जीने वालों को “जिम्मी” कहा गया। जब यह अरबी शब्द “जिम्मा” अंग्रेज़ी में लिखा जाता हैं तो इसकी स्पेलिंग Dhimma लिखी जाती है और उन शर्तों को मानने वाले Dhimmi कहलाते हैं।
आज भी काफिर इस्लाम के साथ इन्हीं शर्तों पर जीता है, चाहे सत्ता में वह खुद ही क्यों ना हो. और आज भी काफ़िर ये शर्तें खुद अपने हाथ से लिखता है…और अपने साथ के दूसरे काफिरों पर उसे लागू करवाता है…
और इसीलिए लोग मुझे बताने आते हैं …”आहिस्ता बोलो”, “माहौल खराब मत करो” …. और “कोई खास बात नहीं है।”

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