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इतिहास के पन्नों से

भाई_मतिदास_भाई_सतिदास तथा #भाई_दयाला_का_बलिदान.

#बलिदान_पर्व – 9 नवंबर और 10 नवम्बर सन 1675 ई.
चांदनी चौक, दिल्ली.

औरंगज़ेब के शासन काल में उसकी इतनी हठधर्मिता थी, कि उसे इस्लाम के अतिरिक्त किसी दूसरे धर्म की प्रशंसा तक सहन नहीं थी. मुग़ल आक्रांता औरंगजेब ने मंदिर, गुरुद्वारों को तोड़ने और मूर्ती पूजा बंद करवाने के फरमान जारी कर दिए थे, उसके आदेश के अनुसार कितने ही मंदिर और गुरूद्वारे तोड़े गए, मंदिरों की मूर्तियों को तोड़ कर टुकड़े कर दिए गए और मंदिरों में गायें काटीं गयीं, औरंगज़ेब ने सबको इस्लाम अपनाने का आदेश दिया, संबंधित अधिकारी को यह कार्य सख्ती और तत्परता से करने हेतु सौंप दिया.
औरंगजेब ने हुक्म दिया कि किसी हिन्दू को राज्य के कार्य में किसी उच्च स्थान पर नियुक्त न किया जाये तथा हिन्दुओं पर जजिया कर लगा दिया जाये. उस समय अनेकों कर केवल हिन्दुओं पर लगाये गये. इस भय से असंख्य हिन्दू मुसलमान हो गये. हिन्दुओं के पूजा आरती आदि सभी धार्मिक कार्य बंद होने लगे. मंदिर गिराये गये, मसजिदें बनवायी गयीं और अनेकों धर्मात्मा व्यक्ति मरवा दिये गये. उसी समय की उक्ति है –

“सवा मन यज्ञोपवीत रोजाना उतरवा कर औरंगजेब रोटी खाता था.”

औरंगज़ेब ने कहा – “सबसे कह दो या तो इस्लाम धर्म कबूल करें या मौत को गले लगा लें.”

इस प्रकार की ज़बर्दस्ती शुरू हो जाने से अन्य धर्म के लोगों का जीवन कठिन हो गया. हिंदू और सिखों को इस्लाम अपनाने के लिए सभी उपायों, लोभ लालच, भय दंड से मजबूर किया गया.
जब गुरु तेगबहादुर ने इस्लाम धर्म स्वीकार करने से मना कर दिया तो उनको औरंगजेब के हुक्म से गिरफ्तार कर लिया गया था. गुरुजी के साथ तीन सिख वीर दयाला, भाई मतीदास और सतीदास भी दिल्ली में कैद थे.
क्रूर औरंगजेब चाहता था कि गुरुजी मुसलमान बन जायें, उन्हें डराने के लिए इन तीनों वीरो को तड़पा तड़पा कर मारा गया, पर गुरुजी विचलित नहीं हुए.
मतान्ध औरंगजेब ने सबसे पहले 9 नवम्बर सन 1675 ई. को भाई मतिदास को आरे से दो भागों में चीरने को कहा, लकड़ी के दो बड़े तख्तों में जकड़कर उनके सिर पर आरा चलाया जाने लगा, जब आरा दो तीन इंच तक सिर में धंस गया, तो काजी ने उनसे कहा –

“मतिदास अब भी इस्लाम स्वीकार कर ले, शाही जर्राह तेरे घाव ठीक कर देगा, तुझे दरबार में ऊँचा पद दिया जाएगा और तेरी पाँच शादियाँ कर दी जायेंगी.
भाई मतिदास ने व्यंग्यपूर्वक पूछा – “काजी, यदि मैं इस्लाम मान लूँ, तो क्या मेरी कभी मृत्यु नहीं होगी.” काजी ने कहा कि – “यह कैसे सम्भव है, जो धरती पर आया है उसे मरना तो है ही.”
भाई मतिदास ने हँसकर कहा – “यदि तुम्हारा इस्लाम मजहब मुझे मौत से नहीं बचा सकता, तो फिर मैं अपने पवित्र हिन्दू धर्म में रहकर ही मृत्यु का वरण क्यों न करूँ.”
उन्होंने जल्लाद से कहा कि – “अपना आरा तेज चलाओ, जिससे मैं शीघ्र अपने प्रभु के धाम पहुँच सकूँ.”
यह कहकर वे ठहाका मार कर हँसने लगे, काजी ने कहा कि – “वह मृत्यु के भय पागल हो गया है.”
भाई मतिदास ने कहा – ” मैं डरा नहीं हूँ, मुझे प्रसन्नता है कि मैं धर्म पर स्थिर हूँ. जो धर्म पर अडिग रहता है, उसके मुख पर लाली रहती है, पर जो धर्म से विमुख हो जाता है, उसका मुँह काला हो जाता है.”

कुछ ही देर में उनके शरीर के दो टुकड़े हो गये. अगले दिन 10 नवम्बर को उनके छोटे भाई सतिदास को रुई में लपेटकर जला दिया गया. भाई दयाला को पानी में उबालकर मारा गया.

ग्राम करयाला, जिला झेलम वर्तमान पाकिस्तान तत्कालीन अविभाजित भारत निवासी भाई मतिदास एवं सतिदास के पूर्वजों का सिख इतिहास में विशेष स्थान है. उनके परदादा भाई परागा छठे गुरु हरगोविन्द के सेनापति थे. उन्होंने मुगलों के विरुद्ध युद्ध में ही अपने प्राण त्यागे थे. उनके समर्पण को देखकर गुरुओं ने उनके परिवार को ‘भाई’ की उपाधि दी थी.
भाई मतिदास के एकमात्र पुत्र मुकुन्द राय का भी चमकौर के युद्ध में बलिदान हुआ था. भाई मतिदास के भतीजे साहबचन्द और धर्मचन्द गुरु गोविन्दसिंह के दीवान थे. साहबचन्द ने व्यास नदी पर हुए युद्ध में तथा उनके पुत्र गुरुबख्श सिंह ने अहमदशाह अब्दाली के अमृतसर में हरमन्दिर साहिब पर हुए हमले के समय उसकी रक्षार्थ प्राण दिये थे.
इसी वंश के क्रान्तिकारी भाई बालमुकुन्द ने 8 मई सन 1915 ई. को केवल 26 वर्ष की आयु में फाँसी पायी थी. उनकी पत्नी रामरखी ने पति की फाँसी के समय घर पर ही देह त्याग दी.
लाहौर में भगतसिंह आदि सैकड़ों क्रान्तिकारियों को प्रेरणा देने वाले भाई परमानन्द भी इसी वंश के तेजस्वी नक्षत्र थे.

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