पंडित नेहरू ने बताया था अकबर को भारत में राष्ट्रवाद का पिता

यह एक बड़ी विचित्र बात है कि जो इतिहासकार अकबर से पहले के मुस्लिम शासन को हिन्दुओं के लिए दुःस्वप्न मानने से साफ इंकार करते हैं, वही अकबर को उन्हीं हिन्दुओं के लिए सुंदर सुबह का अग्रदूत बताते हैं । वे बताते हैं कि कैसे अकबर ने तीर्थों पर टैक्स और जजिया टैक्स खत्म कर दिया, कैसे उसने हिन्दुओं को उच्च पदों पर नियुक्त किया, और कैसे उसने यह या वह सुविधा दी जो उन्हें पहले नहीं थी। इन महानुभावों से कोई पूछ सकता है कि यदि ये सब पक्षपातपूर्ण टैक्स और प्रतिबंध पहले के मुस्लिम शासकों के समय में थे ही नहीं तो अकबर ने कैसे हिन्दुओं को उन से आजाद किया? ऐसे हिन्दू इतिहासकारों की कमी नहीं है जो अकबर की प्रशंसा के पुल बाँधते है। पं. जवाहरलाल नेहरू तो और बहुत आगे जाते हैं और घोषणा करते हैं कि अकबर भारतीय राष्ट्रवाद का पिता था! जो यह सब सुन कर कष्ट महसूस करे वैसा हिन्दू आजकल दुर्लभ है। दूसरी ओर, अधिकांश मुस्लिम इतिहासकार और मजहब-विशेषज्ञ अकबर को भारत में इस्लाम के इतिहास में खलनायक मान कर भौंहें चढ़ाते हैं। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने लिखा है कि यदि अहमद सरहिन्दी ने बचाया न होता तो अकबर ने भारत से इस्लाम को लगभग खत्म कर दिया होता। केवल स्वतंत्रता के बाद भारत में कुछ मुस्लिम इतिहासकार आगे आए जिन्होंने अकबर को यहाँ ‘सेक्यूलरिज्म का अग्रदूत’ बनाकर पेश किया। लेकिन हम जानते हैं कि मुस्लिम के शब्दों में ‘सेक्यूलरिज्म’ का क्या मतलब होता है, खास कर जब वह मुसलमान मार्क्सवादी भी हो। उनके लिए अकबर हिन्दुओं को भरमाने के लिए मुस्लिम हीरो के सिवा कुछ नहीं है। इसलिए, अकबर के बारे में सच्चाई जानने के लिए मूल स्रोतों तक जाना होगा। ये स्त्रोत जो कहानी कहते हैं, उसे संक्षेप में यों रखा जा सकता है:

(1) अकबर में कुछ भी भारतीय नहीं था, सिवा इस के कि उसने अपना जीवन भारत में जिया, अपनी लड़ाइयाँ भारत में लड़ीं, अपना साम्राज्य भारत में बनाया, और अनेक भारतीय स्त्रियों को अपने हरम में डाला। वह भारत की आध्यात्मिक परंपरा के बारे में कुछ नहीं जानता था, न भारत के इतिहास, न संस्कृति के बारे में। सिवा उन बातों के जो कुछ देसी चापलूसों ने उसे बताया थी, जो उस के पास दूसरे मामूली कारणों से जाते थे। किसी पानीदार हिन्दू सन्त या विद्वान ने उस से मिलने या भारतीय चीजों के बारे में शिक्षित करने की परवाह नहीं की। केवल कुछ जैन मुनि उस के निकट आए, लेकिन जैन मुनि ईसाई मिशनरियों की तरह सदैव राजकीय संरक्षण, सहयोग पाने की कोशिश करते रहे और अकबर ने इन मुनियों का उपयोग कुछ राजपूत राजाओं को प्रभावित करने में किया जो अन्यथा विरोधी से ही बने रहते।

(2) अकबर हर तरह से बाहर से आया एक इस्लामी दस्यु था, जिसने मुख्यतः मध्य एशिया और फारस के मुस्लिम तलवारधारियों के बल पर भारत के बड़े हिस्से पर कब्जा जमाया। उसे अपने तैमूर और बाबर के वंशज होने पर बहुत गर्व था और अपने पूर्वजों का घर ट्रांसऑक्सियाना फिर जीतने की बड़ी चाह थी। उसने अपने नाम के साथ इस्लामी सम्मान-सूचक ‘गाजी’ की पदवी लगाना जारी रखा, जो उसने अपने शासन के आरंभ में ही अधमरे हेमराज का सिर काट कर पाई थी। उसका प्रतिरोध करने वाले एकमात्र राज्यों –मेवाड़ और गोंडवाना— के विरुद्ध उसकी लडाइयों में ‘क्लासिक जिहाद’ के तमाम तत्व थे। जब भी वह किसी खुशी के मौके पर या किसी आगामी योजना के लिए दुआ चाहता तब वह हिन्दुओं और हिन्दू धर्म के विरुद्ध अंतहीन इस्लामी युद्ध के सब से बड़े प्रतीक मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जाता था। वह मक्का-मदीना समेत अनेक मुस्लिम स्थानों को मूल्यवान उपहार भेजा करता था। उसने पुर्तगालियों के साथ सौदे की बातें चलाई ताकि मुस्लिम हाजियों का यात्रा मार्ग बन सके। मक्का के शरीफों और बुखारा के उजबेक शासक को लिखे पत्रों में उसने स्पष्ट किया कि वह न केवल अच्छा मुसलमान है बल्कि इस्लाम का बड़ा झंडाबरदार भी। और जो कट्टर उलेमा उस पर शक करते हैं वे उसका खेल नहीं समझ रहे जो भारत में स्थाई और मजबूत इस्लामी शासन के लिए है।

(3) हिन्दुओं को जो छूट अकबर ने दी, वे हिन्दुओं या हिन्दू धर्म के प्रति किसी सदभाव से प्रेरित न थी। वह तो हरेक मुस्लिम साम्राज्य निर्माता के दो जिद्दी विरोधियों – स्थानीय मुस्लिम सरदार और कट्टर उलेमा – के विरुद्ध हिन्दुओं का समर्थन चाहता था। पहले अलाउद्दीन खिलजी और मुहम्मद बिन तुगलक ने इन्हीं विरोधियों का सामना किया था। पर उन्हें जीतने में वे विफल रहे, क्योंकि वे भारत में विदेशी मुस्लिम समुदाय के आपसी संबंध चक्र को तोड़ नहीं पाए। अकबर उन दोनों विरोधियों को ठीक करने में सफल रहा क्योंकि उसने एक नया तरीका निकाला और पाया कि यह कारगर है। उसने मुस्लिम सरदारों को हिन्दू राजाओं और उनके लोगों की सहायता से ठीक किया। उलेमा में कुछ को उसने इबादत खाना में एक दूसरे के खिलाफ भिड़ा कर और कुछ जोगियों, जैन-मुनियों और ईसाई मिशनरियों के साथ मीठी-मीठी बातें करके डरा कर ठीक किया। उलेमा के पास शाही संरक्षण के सिवा अपने मोटे होने को कोई साधन था। ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि दूसरे धर्मों के कुछ प्रवक्ताओं के साथ अकबर का संसर्ग किसी वास्तविक अभीप्सा से प्रेरित था या उस संसर्ग ने उसकी समझ को बेहतर बनाया हो। वह अपने जीवन के अंत तक इस्लामी चिंतन श्रेणियों का बंदी बना रहा।

(4) न ही अकबर को हिन्दू समर्थन के लिए कोई बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। उसके सौभाग्य से उस ने तब काम शुरू किया जब इस्लामी साम्राज्यवाद के विरुद्ध मेवाड़ और गोंडवाना जैसे कुछ छोटे राज्यों को छोड़कर हिन्दू प्रतिरोध ढलान पर था। अभी तक हिन्दू प्रतिरोध प्रायः राजपूत राजाओं द्वारा ही चलता रहा था। लेकिन सदियों से मुस्लिम लुटेरों से लड़ते लड़ते उनके लोग और संसाधन बहुत घट गए थे। अकबर ने जल्द समझ लिया कि वह राजपूतों का समर्थन कुछ भंगिमाओं के बदले में ही खरीद सकता है। ये भंगिमाएं उस समय कट्टर इस्लाम के लिए भले बेहद अशुभ लगी हों, पर दूरगामी नजरिए से ये मामूली ही साबित हुईं। वस्तुतः यदि कोई ठीक से सोचे तो अकबर की उन भंगिमाओं के लिए हिन्दुओं ने बड़ी मँहगी कीमत दी। उसने अपने हरम के लिए हिन्दू राजकुमारियाँ माँगी, जिस का मतलब था हिन्दू सम्मान का आत्मसमर्पण। उसने हिन्दू योद्धाओं को न केवल मुस्लिम विद्रोहियों खिलाफ, बल्कि हिन्दू स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ भी इस्तेमाल किया। इसका अर्थ हुआ हिन्दू वीरता का बिक जाना। सभी व्यवहारिक अर्थों में अकबर ने हिन्दुओं को इस्लाम की तलवार पकड़ने के लिए न केवल अपने जीवनकाल में विवश किया, बल्कि आज हमारे समय तक वही चल रहा है। जजिया और तीर्थ-कर जैसी वित्तीय हानियों की कई गुना भरपाई मुस्लिम साम्राज्य को मजबूत करके हो गई। यह भरपाई सुचारू राजस्व व्यवस्था बना कर जिस से हिन्दू जनता, खासकर किसानों से वसूली की गई, अनेक युद्धों द्वारा साम्राज्य का विस्तार करके, मुगल शान-शौकत और तमाशों का खर्च उठाकर, और ताज जैसी इमारतें बनाकर कई गुना हुई। मुगल साम्राज्य का अंत होने तक हिन्दू जनता केवल जिन्दा रह पाने की आर्थिक स्थिति में बच गई थी।

(5) यह अकबर के ही समय हुआ कि अनेक देशों से मुस्लिम जोखिमबाज अभूतपूर्व पैमाने पर भारत की ओर आने लगे और मुस्लिम तंत्र को पहले किसी भी समय की तुलना में और मजबूत बनाया। उन्होंने मुगल साम्राज्य में सेना और तमाम प्रशासनिक पदों पर सर्वोच्च जगहें ली। आँकड़े दिखाए जा सकते हैं कि सरकार के पदों में औरंगजेब के समय तक हिन्दू हिस्सा बढ़ता गया, लेकिन इसे कोई नहीं झुठला सकता कि मुगल साम्राज्य की नीतियों में हिन्दुओं का दखल अकबर के उत्तराधिकारी के समय से ही लगातार घटता गया। यहाँ तक कि अकबर के समय भी निचले स्तर के मुस्लिम अधिकारियों ने हिन्दू जनता पर विविध रूपों में वह अपमानजनक जोर-जबर बंद न किया जो इस्लाम के लिए सामान्य है। इस के कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। अकबर के दरबार के बड़े-बड़े लोग कट्टर उलेमा और शेख अहमद सरहिन्दी की सदारत में सूफियों के गहरे संपर्क में थे। वे सार्वजनिक रूप से कहते रहते थे कि हिन्दुओं को या तो मुसलमान बनाना है या उन से कुत्तों की तरह व्यवहार करना है। अकबर के मरते ही वे खुलकर सामने आ गए और उनकी संतानें अधिकाधिक शक्तिसंपन्न होती गईं। औरंगजेब के समय तक वे पुनः सर्वोच्च स्थान पर पहुँच गए।

यह सच है कि मुख्य दोष हिन्दुओं का था कि वे अकबर का छल न समझ सके और उसे ऐसा साम्राज्य जमाने में मदद की जो इस्लाम ने अकबर से पहले भारत के मुस्लिम शासनों में कभी न देखा था, लेकिन यह तथ्य फिर भी रहता है कि अकबर द्वारा बनाई गई मजबूत बुनियाद अगर न होती तो जहाँगीर जैसा परपीड़क बदमाश न हो पाता, न शाहजहाँ जैसा घृणित अपराधी, और न ही औरंगजेब जैसा इस्लामी राक्षस जिन्होंने हिन्दुओं का अंतहीन उत्पीड़न और अपमान किया। इस में कोई संदेह न रहे कि अकबर का शासन हिन्दुओं के लिए कोई सुंदर सुबह होने की बजाए एक और घनी अंधेरी रात का आरंभ था जो आज भी ‘नेहरूवादी सेक्यूलरिज्म’ के रूप में चल रही है।

  • इतिहासकार स्व. सीताराम गोयल

(स्रोत: ‘भारत में इस्लामी साम्राज्यवाद की कहानी’, पृ. 145-150)

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