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कहां बसती है पाक की जान

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

मध्य एशिया में अपने प्रयोग की असफलता को भांप कर ही पाकिस्तान ने चीन के साथ अपने रिश्ते बढ़ाने शुरू किए। इतना ही नहीं, पाकिस्तान ने भारतीय गिलगित का एक हिस्सा भी चीन के हवाले कर दिया, ताकि चीन पुराने रेशम मार्ग को जिंदा कर सके और बदली परिस्थितियों में भारत की घेराबंदी कर सके। चीन के प्रति भी पाकिस्तान का यह प्रेम भारत विरोध की आधारभूमि पर ही पुख्ता हो रहा है। चीन के साथ होकर शायद पाकिस्तान के शासक अपने ही लोगों को यह समझाने की कोशिश कर रहे हों कि भारत से डरने की जरूरत नहीं है, हमारी पीठ पर भी चीन जैसा देश खड़ा हैज्पाकिस्तान के  भीतर का तनाव गहराता जा रहा है। वहां के अल्पसंख्यक समुदायों में सीधे निशाने पर वहां का शिया समाज है, जिस पर मुसलमानों के हमले दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं। केवल पाकिस्तान के भीतर ही नहीं, बल्कि 1946-48 में जम्मू-कश्मीर प्रांत के जिस हिस्से पर उसने बलपूर्वक कब्जा कर लिया था, वहां के शिया बहुल इलाके गिलगित-बाल्टीस्तान में तो मानों शिया समुदाय के सफाए का ही अभियान छेड़ा हुआ है।  पंजाब को छोड़, वहां के तीनों प्रांत मसलन सिंध, बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा लंबे अरसे से विद्रोह के कगार पर हैं। पाकिस्तान सरकार इन सभी को भारत विरोध के नाम पर इक_े रखने का प्रयास कर रही है। दरअसल यदि ध्यान से देखा जाए तो पाकिस्तान को किसी भी तरह से जोड़े रखने में मुख्य नीति भारत विरोध पर ही आधारित है। अजीब स्थिति है कि 1947 में जिन्होंने पाकिस्तान बनाया था, उन्होंने भी वहां के लोगों में भारत विरोध रोपने की नीति का ही इस्तेमाल किया था और आज लगभग सात दशक बाद भी अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए वहां के शासक उस भारत विरोध को ही जिलाए रखने का प्रयास कर रहे हैं। बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर को आशा थी कि पाकिस्तान बनने के दस पंद्रह साल बाद स्वाभाविक ही वहां के लोगों में बनावटी तौर पर रोपा गया यह भारत विरोध शांत हो जाएगा और पाकिस्तान फिर भारत का ही अंग बन जाएगा। अपनी यह आशा उन्होंने अपनी किताब ‘थॉट्स आन पाकिस्तान’ में व्यक्त भी की थी, लेकिन दुर्भाग्य से उनकी यह आशा फलीभूत नहीं हुई, बल्कि कहना तो यह चाहिए कि हुआ उनकी आशा के बिलकुल विपरीत। ज्यों-ज्यों पाकिस्तान के सभी प्रांतों को एक साथ बनाए रखने के कृत्रिम सूत्र अपनी शक्ति खोते गए, त्यों-त्यों वहां के सत्ताधारियों के लिए इन इलाकों को एक राजनीतिक इकाई में बनाए रखने के लिए भारत विरोध की ओर भी ज्यादा जरूरत महसूस होने लगी है। सोवियत संघ के पतन और अफगानिस्तान में अमरीकी प्रयोग के असफल हो जाने के बाद पाक शासकों को आशा थी कि मजहबी समानता के कारण पाकिस्तान अफगानिस्तान से होता हुआ मध्य एशिया की जनजातियों का स्वाभाविक नेता बन जाएगा। लेकिन न ऐसा होना था और न ही हो सकता है। इसका एक मुख्य कारण, भारत के इन देशों के साथ सांस्कृतिक रिश्ते हैं। चाहे इन देशों ने कालांतर में अनेक कारणों से मजहब के रूप में इस्लाम की मुख्य-मुख्य बातों को भी स्वीकार कर लिया, लेकिन वे आज भी किसी न किसी रूप में अपने पुरखों की विरासत से जुड़े हुए हैं। इसी कारण उनके मन में भारत के प्रति द्वेष भाव नहीं है, बल्कि सद्गभावना ही है। लेकिन पाकिस्तान को तो अपनी अलग राजनीतिक पहचान बनाए रखने के लिए अपने पुरखों की विरासत को नकारना भी जरूरी है, जिसके वह निरंतर प्रयास करता रहता है। उसके यही प्रयास उसे अफगानिस्तान और मध्य एशिया में सम्मान का पात्र नहीं, बल्कि हास्य का पात्र बनाते हैं। यह अलग बात है कि सोवियत संघ के पतन के बाद भी भारत ने मध्य एशिया के देशों, कजाखिस्तान, तजाकिस्तान, उजबेकिस्तान, तुर्किमेनिस्तान और किर्गिस्तान के साथ सांस्कृतिक संबंध सुधारने की कोशिश नहीं की और वहां चीन को पैर पसारने का मौका दे दिया। यह पहली बार है कि हिंदोस्तान का कोई प्रधानमंत्री मध्य एशिया के इन स्थानों में गया है। वहां उनका जो स्वागत हुआ, वह अपने आप में एक मिसाल है। मध्य एशिया में अपने प्रयोग की असफलता को भांप कर ही पाकिस्तान ने चीन के साथ अपने रिश्ते बढ़ाने शुरू किए। इतना ही नहीं, पाकिस्तान ने भारतीय गिलगित का एक हिस्सा भी चीन के हवाले कर दिया, ताकि चीन पुराने रेशम मार्ग को जिंदा कर सके और बदली परिस्थितियों में भारत की घेराबंदी कर सके। चीन के प्रति भी पाकिस्तान का यह प्रेम भारत विरोध की आधारभूमि पर ही पुख्ता हो रहा है। चीन के साथ हमविस्तार होकर शायद पाकिस्तान के शासक अपने ही लोगों को यह समझाने की कोशिश कर रहे हों कि भारत से डरने की जरूरत नहीं है, हमारी पीठ पर भी चीन जैसा देश खड़ा है। यह एक साथ ही समझाने या डराने का तरीका भी हो सकता है। यदि सिंध, बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा में विरोध शांत नहीं होते, तो फिर वहां के लोगों को चीन से डराया भी जा सकता है। यानी ‘बहुत उछल कूद मत करो, नहीं तो चीन की सहायता से अंकल ठिकाने ला देंगे।’ वैसे भी चीन के दस हजार से भी ज्यादा सैनिक गिलगित-बाल्टीस्तान में पहुंच ही चुके हैं, जिसका वहां के लोग निरंतर विरोध कर रहे हैं। ऐसे समय और ऐसी पृष्ठभूमि में पाकिस्तान के प्रति भारत की नीति क्या होनी चाहिए, इसको लेकर चर्चा होती रहती है। मोदी सरकार के आने के बाद से निश्चित ही भारत सरकार का स्वर और रुख दोनों ही बदले हैं। अब जब पाकिस्तान अपनी घरेलू राजनीति को सुलझाने के लिए सीमा पर सीज फायर का उल्लंघन करता है, तो भारतीय पक्ष भी उसका उसी तरीके से जवाब देता है। इसी प्रकार जब तिब्बत की सीमा पर भी भारत ने अपनी सुरक्षात्मक व्यवस्था को मजबूत करना शुरू कर दिया है। इसके कारण साउथ ब्लॉक को दिशा देता रहा। ऐसा समूह सकते में है जो अभी तक यही समझाता आ रहा है कि चीन और पाकिस्तान के साथ नरमी से पेश आना चाहिए, ताकि वे ज्यादा न भडक़ें। पाकिस्तान के बारे में तो यहां तक कहा जाता है कि यदि भारत ने पाकिस्तान की सेना को उसी की भाषा में जवाब दिया, तो वहां की सिविल ताकतों को धक्का लगेगा। यह तर्क देने वालों का कहना है कि वहां की सिविल सरकार तो भारत से अच्छे रिश्ते बनाना चाहती है, लेकिन सेना ऐसा करने नहीं देती। सीमा पर छेड़छाड़ करके सेना सिविल सरकार के शांति प्रयासों को धक्का पहुंचाती है। इसलिए यदि भारतीय सेना ने भी पाकिस्तानी सेना को उसी की भाषा में जवाब दिया तो सिविल सरकार विकल्पहीन हो जाएगी। अब तो इन तथाकथित चीन-पाक विशेषज्ञों ने यह भी कहना शुरू कर दिया है कि मोदी सरकार की पाक-चीन के प्रति परिवर्तित नीति ने ही पाक-चीन धुरी को मजबूत होने में सहायता की है। वे यह भूल जाते हैं कि पाक-चीन की यह धुरी 1962 के बाद ही बननी शुरू हो गई थी। भारत सरकार उसका मुकाबला तुष्टीकरण से कर रही थी, जिसके चलते यह धुरी मजबूत ही नहीं हुई, बल्कि चीन ने काशगर को इस्लामाबाद से जोडऩे वाली सडक़ बना ली और गोर्मो को ल्हासा से जोडऩे वाली रेलवे लाइन बिछा दी। भारत की कमजोर नीति के कारण पाकिस्तान में उन शक्तियों को शह मिलती है, जो चौबीस घंटे भारत विरोधी प्रचार में लगी रहती हैं। नरेंद्र मोदी सरकार की पाक नीति को इसी पृष्ठभूमि में देखना होगा।

 

 

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