इतिहास का एक उपेक्षित महानायक हेमचंद्र विक्रमादित्य – अंतिम हिंदू सम्राट

जिस समय अकबर कलानौर के दुर्ग में भारत में अपने पिता द्वारा विजित क्षेत्रों का राजा बनाया गया, उस समय आगरा पर सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य (1501-1556 ई.) उपनाम हेमू का शासन था। मां भारती के जिन अमर हुतात्मा वीरों को इतिहास में उनके वीरतापूर्ण कृत्यों से खींझकर मध्यकालीन इतिहासकारों ने इतिहास के कूड़ेदान में फेंककर उनके प्रति अपने उपेक्षापूर्ण घृणा भाव का प्रदर्शन किया है, उनमें हेमू का नाम प्रमुख है। इस महान हिंदू योद्घा को अकबर के सामने अति तुच्छ सिद्घ करने का प्रयास किया गया है। वास्तव में सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य अपने काल का सर्वोत्तम योद्घा था, वह स्वतंत्रता का परम उपासक था और मां भारती का सच्चा सपूत था।

अपने समय का सर्वोत्तम योद्घा था हेमचंद्र

हेमचंद्र विक्रमादित्य फाउंडेशन ‘रेवाड़ी’ के शोध के अनुसार इस महान हिंदू सम्राट ने स्वयं को दिल्ली का सम्राट घोषित कर दिया था। सम्राट हेमचंद्र का उद्देश्य था संपूर्ण भारत को विदेशी आक्रांता शासकों से मुक्त कर पुन: हिंदू साम्राज्य की स्थापना करना। भारत के राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक क्षेत्रों में व्याप्त घृणा और कलह के वातावरण को समाप्त कर देश में वास्तविक शांति की स्थापना के दृष्टिगत सम्राट हेमचंद्र का सपना उचित ही था। सम्राट को यह पता था कि इस लक्ष्य की सिद्घि के लिए उसे कितनी बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ सकता है? उसने ताज तो पहन लिया था, और वह सम्राट भी बन गया था, पर यह ताज उसके लिए कांटों भरा था, जो उसके मार्ग को बहुत ही जटिल और कंटकाकीर्ण बना रहा था। उसको अपने शत्रुओं की लंबी सूची की भी भली प्रकार जानकारी थी, इसलिए सम्राट ने बड़ी सावधानी और सूझबूझ के साथ आगे बढऩा आरंभ किया।

अफगानों से किये थे बीस युद्घ

इस महान योद्घा का साम्राज्य उस समय बंगाल से लेकर पंजाब तक था। अपने लक्ष्य की सिद्घि के लिए हेमू ने अफगानों के साथ 20 ( कहीं-कहीं इनकी संख्या 22 भी लिखी गई है) युद्घ किये थे, जबकि अकबर के साथ उसके दो युद्घ हुए थे। जिनमें उसे सफलता प्राप्त हुई थी। इसके उपरांत भी प्रचलित इतिहास उसके प्रति ‘आपराधिक मौन’ साधे खड़ा है।

हेमू के विषय में……

हेमचन्द्र, राय जयपाल के पौत्र और राय पूरणदास (लाला पूरणमल) के पुत्र थे। इनका जन्म आश्विन शुक्ल विजयदशमी, मंगलवार, कलियुगाब्द 4603, वि.सं. 1556, तदनुसार 02 अक्टूबर, 1501 ई. को अलवर (राजस्थान) जिले के मछेरी नामक गांव में हुआ था। इनके पिता पहले पौरोहित्य कार्य करते थे, किन्तु बाद में मुगलों के द्वारा पुरोहितों को परेशान करने के कारण कुतुबपुर, रेवाड़ी में आकर नमक का व्यवसाय करने लगे।
   हेमू बचपन से ही एक प्रतिभावान बच्चे की भांति अपना मार्ग स्वयं बनाता हुआ आगे बढ़ा। उसके पिता राजस्थान के अलवर जनपद के मद्देरी गांव के रहने वाले थे, जो कि कालांतर में रेवाड़ी में आकर बस गये थे। अपने पिता के साथ रहते-रहते बालक हेमू को अपने व्यापार को तो बढ़ाने का अवसर मिला ही साथ ही दिल्ली की राजनीतिक परिस्थितियों को समझने और जानने का अवसर भी मिला। जिससे उसकी राजनीतिक प्रतिभा मुखरित हुई और यह बच्चा नई उड़ान भरने के लिए नये सपने संजोने लगा।

हेमू ने अपना ध्यान धीरे-धीरे शेरशाह की सेना को सैनिक साजो सामान की पूर्ति करने की ओर दिया। शेरशाह के शासन काल में हेमू को अपने कार्य में पर्याप्त सफलता मिल गयी। जिससे उसके भीतर और भी अधिक उत्साह और आत्मविश्वास का भाव जागृत हुआ।

पीतल की तोप बनानी आरंभ कीं

जब 1545 ई. में एक हिंदू योद्घा के पराक्रम से शेरशाह बारूद से जलकर समाप्त हो गया, तो उसके पश्चात उसका पुत्र इस्लामशाह दिल्ली का शासक बना। इस्लामशाह के शासन काल में हेमू ने रेवाड़ी में पीतल की तोप बनाने का उद्योग स्थापित किया। भारत के तत्कालीन राजनैतिक परिवेश में एक हिंदू के द्वारा दिल्ली की जड़ी में रहकर इस प्रकार का उद्योग स्थापित करना, सचमुच एक बड़ी बात थी। इस उद्योग में हेमचंद को और भी अधिक सफलता मिली।

सूर शासक ने पहचानी प्रतिभा

हेमू की प्रतिभा को और योग्यता को सूर शासक इस्लामशाह ने समझ लिया, इसलिए उसने हेमू को अपने राज्य की आंतरिक सुरक्षा का दायित्व सौंपते हुए बाजार अधीक्षक भी नियुक्त कर दिया। इतने महत्वपूर्ण उत्तरादायित्व ने हेमू और भी उत्तम कर दिखाने की प्रेरणा दी।

आदिलशाह ने बनाया प्रधानमंत्री और सेनापति

जब हेमू अपनी जीवन साधना की परीक्षा में सफल होते-होते इस्लामशाह के आंतरिक सुरक्षा के प्रमुख विभाग को संभाल रहा था तो उसी समय दिल्ली में सत्ता परिवर्तन हो गया। इस्लामशाह के स्थान पर आदिलशाह दिल्ली का शासक बन गया। यह हेमू की अपनी प्रतिभा का ही प्रताप था कि वह आदिलशाह के लिए इस्लामशाह से भी अधिक सम्माननीय बनकर उभरा। इस्लामशाह के शासन काल में सूरवंश की दुर्बलता स्पष्ट झलकने लगी थी। इसलिए आदिलशाह के लिए यह आवश्यक था कि वह अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिए तथा उसकी सुद्रढ़ता के लिए हिंदू शक्ति के रूप में उभर रहे हेमू का सहयोग और समर्थन प्राप्त करे। इसके लिए आदिलशाह ने हेमू को अपना प्रधानमंत्री तो नियुक्त किया ही साथ ही अपना सेना प्रमुख भी नियुक्त कर दिया।

दिखाई अपनी पूर्ण प्रतिभा

अब नई भूमिका में उतरे हेमू के लिए नई चुनौतियां सामने आने लगीं। परंतु शूरवीर भूमिकाओं के निर्वाह से पूर्व वैसे ही उसकी चुनौतियों पर विचार कर लिया करते हैं, जैसे एक विवेकशील व्यक्ति कुछ भी बोलने से पूर्व उसके परिणामों पर विचार कर लिया करता है। अत: हेमू नई भूमिका में आकर और भी अधिक गंभीरता से अपने दायित्व निर्वाह के प्रति समर्पित हो गया। आदिलशाह ने हेमू को अपना प्रधानमंत्री और सेना प्रमुख इसलिए बनाया था कि उसके रहने से उत्तर भारत में निरंतर जारी विद्रोहों का शमन सरलता से किया जा सकेगा। 1553 से 1556 ई. के लगभग चार वर्ष अर्थात 48 माह में हेमू ने 22 युद्घ लड़े। इसका अभिप्राय है कि उसने प्रति दो माह में एक युद्घ लड़ा और सफलता प्राप्त की। इन 22 युद्घों में से 20 युद्घ उसे अफगान विद्रोहियों से निपटने हेतु तथा 2 युद्घ अकबर से लडऩे पड़े थे।

……और हेमू बन गया भारत का सम्राट

जनवरी 1556 ई. में जब हुमायंू की मृत्यु हुई थी तो उस समय हेमू बंगाल में था, जहां उसने वहां के शासक मोहम्मदशाह को पराजित किया था। यहां से हेमू के जीवन में नया मोड़ आया। इस हिंदूवीर ने अब निर्णय लिया कि अब तक जो कुछ किया और पाया है, उसका सदुपयोग मां भारती की सेवा के लिए किया जाए, और विदेशी आक्रांता शासकों को भारत की पवित्र भूमि से खदेडक़र अपनी मां के ऋण से उऋण हुआ जाए। अत: अब उसका मन अपने वर्तमान से विद्रोही बन बैठा और वह भविष्य के स्वर्णिम सपनों को धरती पर उतारने के लिए प्रयासरत हो उठा।

हुमायूं की मृत्यु के उपरांत हेमू दिल्ली का सम्राट बनने के लिए चला। अपने इस मनोरथ से हेमू ने अपने सैनिकों और सेनानायकों को भी अवगत करा दिया। जिस पर उन सबका समर्थन भी हेमू को मिल गया। अब हेमू एक सेनानायक के रूप में नही अपितु एक सम्राट के रूप में बंगाल से दिल्ली के लिए चला। मनोवैज्ञानिक रूप से उसने अपने आपको भारत का सम्राट मान लिया। अत: अब जो कुछ भी करना था, वह अपने लिए करना था, अपनी भारतमाता के लिए करना था। किसी और के लिए करने का समय हेमू के जीवन से विदा ले चुका था। फलस्वरूप उसने मार्ग में बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के कुछ महत्वपूर्ण दुर्गों को विजय किया और एक सम्राट के रूप में (दिल्ली अधिपति सम्राट के रूप में) आगे बढ़ा। आगे बढ़ते हेमू का दिशाएं मार्गदर्शन कर रही थीं, और पुष्पमालाओं से उसका स्वागत करते मानो उसी प्रकार नृत्य कर रहीं थीं, जिस प्रकार इंद्र के दरबार में अप्सरायें नृत्य कर रही हों।

अकबर के लोगों का संशय और भय

पाठकों को स्मरण होगा कि हुमायूं की मृत्यु 21 जनवरी 1556 को हो गयी थी, परंतु उसका पुत्र अकबर उसकी मृत्यु के 24 दिन पश्चात कलानौर में ईंटों के चबूतरे को राज्यसिंहासन मानकर शासक बनाया गया था। इस घटना का यहां स्मरण करने का हमारा विशेष प्रयोजन है कि एक शासक की मृत्यु के पश्चात उसके लोगों को संशय था कि हेमचंद्र विक्रमादित्य के रहते अकबर को बादशाह घोषित किया जाए या नही?

अत: उन्हें अकबर को हुमायूं का उत्तराधिकारी घोषित करने में 24 दिन तक प्रतीक्षा करनी पड़ी और तब जाकर यह निर्णय लिया गया कि अकबर को ‘किस्मत की आजमाइश’ के लिए हुमायूं का उत्तराधिकारी घोषित किया जाए। तब दिल्ली से दूर एकांत में और बिना किसी घोषणा या दिखावे के चुपचाप उसे कुछ लोगों ने अपना शासक घोषित कर दिया।

इस सारे घटनाक्रम के पीछे हेमू का भय था। हेमू बंगाल में स्वयं को दिल्ली का सम्राट बनने की घोषणा कर चुका था, और अब दिल्ली की ओर एक सम्राट के रूप में बढ़ रहा था। हुमायूं के किसी भी व्यक्ति का साहस नही था कि वह हेमू का सामना कर सके। इसलिए उन्होंने हेमू को दिल्ली की ओर बढऩे दिया और अकबर को अपना शासक मानने की मौन औपचारिकता पूर्ण कर ली। इतिहास ने इस तथ्य को उपेक्षित किया है और हुमायूं के पश्चात अकबर को भारत का सम्राट मानने के लिए हमें बाध्यता पूर्वक प्रेरित किया है।

अकबर के बादशाह बनाने में हुए विलम्ब का कारण

हेमू के भय से जो लोग दिल्ली से दूर कलानौर में दिल्ली के ‘भाग्यविधाता का मनोनयन कर’ रहे थे, उनकी और उनके राज्य की दुर्बलता की पोल इसी तथ्य से खुल जाती है कि वे सारे मिलकर भी अकबर के राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होने के कार्यक्रम को सार्वजनिक रूप से आयोजित नही कर पाये थे। इससे हमें यह भी पता चलता है कि हुमायूं के कथित साम्राज्य की स्थिति अत्यंत डांवाडोल थी, अस्थिर थी और वह उसके उत्तराधिकारी के लिए हवा में लटकती एक तलवार की भांति थी। जिसे हेमू की महत्वाकांक्षा ने और भी अधिक पैनापन दे दिया था। हेमू के रहते यह तलवार हुमायूं के उत्तराधिकारी के लिए मृत्युदायिनी हो सकती थी। जिससे बचना अकबर के लिए और भी अनिवार्य हो गया था। इन सारे तथ्यों और परिस्थितिजन्य साक्ष्य से अकबर के राज्याभिषेक का इतिहास समझ में आ सकता है। जिसे स्पष्ट किया जाना आवश्यक था, पर किया नही गया है। अकबर आगरा का शासक बना कलानौर में और हेमू दिल्ली का सम्राट बना बंगाल में। अब वास्तविक रूप से भारत का सम्राट कौन रहेगा, यह निश्चय होना शेष था।

अकबर से युद्घ अनिवार्य था

जब हेमू बंगाल में विजय अभियान पर था, तब उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर हुमायूं ने आगरा पर अपना अधिकार कर लिया था। इसलिए हुमायूं या उसका कोई भी उत्तराधिकारी हेमू के लिए शत्रु सम ही था। अत: हुमायूं के पश्चात सिंहासनारूढ़ हुए अकबर और हेमू के मध्य युद्घ होना अवश्यम्भावी था। फलस्वरूप दोनों पक्षों ने युद्घ की तैयारियां करनी आरंभ कर दीं।

हेमू का अस्तित्व तभी बच सकता था जबकि अकबर को समाप्त कर दिया जाए और अकबर तब बादशाह होना तब संभव था, जब हेमू ना रहे। इसलिए दोनों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न था। हेमू ने अपने स्वाभिमान के साथ भारत-माता का सम्मान भी जोड़ लिया था, इसलिए उसके पक्ष में देशभक्ति भी खड़ी थी। उस समय अकबर चूंकि अल्पवयस्क था, इसलिए उसकी सेना का नेतृत्व सिकंदर खां उजबैक ने किया था। वह एक विशाल सेना लेकर सम्राट हेमचंद विक्रमादित्य (हेमू) की सेना से भिडऩे के लिए चल दिया। उज्बैक के लिए संभवत: अपने जीवन का यह पहला अवसर होगा जब उसका सामना हेमू जैसे एक हिंदू वीर से होने जा रहा था। उसे ज्ञात नही था कि आज देशभक्ति और देश के शत्रुओं के मध्य युद्घ होगा और हर बार की भांति हिंदू वीर अपनी अदभुत वीरता एवं शौर्य का परिचय देते हुए बलिदानों की झड़ी लगा देंगे और अंतिम क्षणों तक युद्घ केवल विजयी होने के लिए करेंगे।

हेमू हुआ युद्घ में विजयी

युद्घ प्रारंभ हो गया। हिंदू वीर हेमू की सेना ने शुत्र की सेना को प्रारंभ से ही घेर लिया। उसकी सेना शत्रु पर हावी हो गयी थी, शत्रु को हेमू की सेना से बचने के लिए कुछ सूझ नही रहा था। उसे अपनी आंखों के सामने ही ‘दोजख की आग’ जलती दीख रही थी। हेमू की तलवार उसे आकाश में चमकने वाली विद्युत सी लगती थी और दूसरे हथियार भी कम घातक नही दीख रहे थे।

अंत में सिकंदर खान उजबैक की सेना के पैर उखड़ गये वह भाग लिया और ऐसा भागा कि फिर उसने पीछे मुडक़र नही देखा। उजबैक के भागते ही आगरा कालपी और बयाना पर हेमू का झण्डा फहरा उठा। हेमू के शिविर में उत्सव का रंग बिखर गया। उसकी सेना का उत्साह देखते ही बनता था। मां भारती ने आगे बढक़र अपने चरणों में झुके अपने सपूत की आरती उतारी, और उसे विजयी होने का आशीर्वाद दिया।

हेमू बढ़ा दिल्ली की ओर

सिकंदर खां उजबैक को परास्त करके हेमू ने दिल्ली की ओर प्रस्थान करने की योजना बनायी। अत: 7 अक्टूबर 1556 को वह दिल्ली के लिए चल पड़ा। उस समय दिल्ली पर अकबर की ओर से उसके सेनापति तारदीबेग का अधिकार था। उसे यह ज्ञात हो गया था कि हेमू सिकंदर खां उजबैक को किस प्रकार परास्त करके दिल्ली की ओर आ रहा है। उसने हिंदू वीर हेमू की वीरता की गाथायें सुन रखी थीं। इसलिए उसके नाम से ही उसका साहस भंग होने लगा था। परंतु लडऩा भी आवश्यक था।

तारदीबेग भागा मैदान छोडक़र

दोनों पक्षों की सेनाएं युद्घ के लिए सन्नद्घ हो गयीं। अंत में युद्घ प्रारंभ हो गया। हिंदू वीर हेमू की वीरता का एक और कीर्तिमान स्थापित हो गया-तारदीबेग का साहस पहले दिन ही टूट गया और वह दिल्ली छोडक़र भाग गया।

इसके पश्चात पांडु पुत्र सम्राट युधिष्ठिर की राजधानी इंद्रप्रस्थ और और हिंदू सम्राट पृथ्वीराज की दिल्ली में बड़े गौरवपूर्ण ढंग से हेमू का पदार्पण हुआ। आज दिल्ली सदियों के पश्चात पहली बार किसी हिंदू सम्राट के पदचाप सुनकर प्रसन्नता वश और आंसुओं में भीगी जाती थी। उसकी प्रसन्नता का कोई ठिकाना नही था, चारों ओर दीपावली की फुलझडिय़ां चल रही थीं, जो इस बात का प्रतीक थीं कि दिल्ली आज अपने पुराने वैभव को पाकर कितनी प्रसन्न है?

दिल्ली में हुआ हेमू का अभूतपूर्व स्वागत

हेमू के जहां भी पग पड़ते वहीं के रजकण धन्य हो उठते, हेमू स्वयं भी आज कृत-कृत्य था। बड़े गर्व और गौरव से वह दिल्ली के भीतर चल रहा था। जिधर भी उसकी दृष्टि जाती थी उधर से दिशाएं उस पर पुष्प वर्षा करती जान पड़ती थीं। वह स्वयं भी यह निश्चय नही कर पा रहा था कि आज वह युधिष्ठिर से लेकर सम्राट पृथ्वीराज चौहान तक के अनेकों हिंदू सम्राटों में से किसका अवतार बनकर दिल्ली में प्रविष्ट हो रहा है? और न दिल्ली भी आज अपने किसी पूर्व स्वामी के इस अवतार के विषय में यह समझ पा रही थी कि देशभक्त सम्राट को वह किसका अवतार मानकर सम्मानित करे?

हेमू का जुलूस धीरे-धीरे परंतु बड़े ही मर्यादित ढंग से आगे बढ़ता जा रहा था। दिल्ली ने आज सदियों में पहली बार किसी विजयी राजा को मर्यादित ढंग से जुलूस निकालते देखा था। यह उसके लिए सुखद अनुभूति के क्षण थे, क्योंकि कई शताब्दियों से ऐसा हो रहा था कि विजयी राजा या आक्रांता अपनी विजपयोपरांत यहां नरसंहार का ऐसा तांडव नृत्य करता था कि पूरी राजधानी उल्लुओं और चमगादड़ों की नगरी बनकर रह जाती थी। पर आज वैसा नही था, आज जनता एक विजयी योद्घा को बड़े प्यार से निहार रही थी, क्योंकि यह योद्घा पुराने किले की ओर बढ़ रहा था, और मानो फिर से ‘इंद्रप्रस्थ’ बसाने के लिए ‘इंद्रप्रस्थ’ के स्वामी रहे युधिष्ठिर से आशीर्वाद प्राप्त करना चाहता था?

पुराने किले में हुआ था राज्याभिषेक समारोह

पुराने किले में पहुंचकर हेमू ने वैदिक विधि विधान से अपना राज्याभिषेक कराया। उस समय वहां अनेकों अफगान और राजपूत सेनानायक खड़े थे जो अपने ‘महानायक’ को राष्ट्रनिर्माण और मानव निर्माण में सहायता देने के लिए कृतसंकल्प थे। सभी लोगों ने अनुभव किया कि हमारे सम्राट विक्रमादित्य का नाम (जिनके नाम पर विक्रमी सम्वत भी है) विदेशों तक में बड़े सम्मान से लिया जाता रहा है, इसलिए हेमू को सम्राट ‘विक्रमादित्य का अवतारी पुरूष’ घोषित किया जाए। फलस्वरूप सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य के नाम से राज्यसिंहासन पर आरूढ़ हुआ। सभी उपस्थित लोगों ने राजा को इसी नाम से पुकारकर उसके नाम के नारे लगाये। दिल्ली की दिशाओं ने और दिल्ली के आकाश ने अपने नये शासक सम्राट हेमचंद्र का अभिनंदन पुष्प वर्षा के साथ किया।

हेमचंद्र ने दिया ओजस्वी भाषण

हेमचंद्र ने बड़े ओजस्वी शब्दों में अपने उपस्थित सेनानायकों, सामंतों एवं सरदारों को संबोधित किया। उसके शब्दों में ओज था, और होता भी क्यों नही, क्योंकि वह बहुत छोटे घर से उठा था, और वहां से वह सम्राट के पद तक जा पहुंचा था। जिस काल में किसी साधारण हिंदू के लिए अपना जीवन यापन तक करना कठिन था, उस काल में इतने निम्न स्तर से उठकर इतने ऊपर तक जाना बहुत बड़ा चमत्कार था। हेमू का बौद्घिक कौशल और उसकी कार्य योजना की सफल रणनीति का ही परिणाम था कि वह भारत में ‘दिन में तारे दिखाने’ के असंभव कार्य को पूर्ण करने में सफल हो गया था।

हेमू के प्रशासनिक कार्य

सम्राट बनने के पश्चात हेमू ने अपने नाम के सिक्के ढलवाये और सेना के सुधार पर विशेष ध्यान दिया। क्योंकि उस काल में सेना के बिना किसी भी राजा या शासक का कल्याण हो पाना असंभव था। उसने अपनी सेना में अपने विश्वसनीय हिंदू लोगों को उच्च पदों पर आसीन किया। परंतु पहले से ही कार्यरत किसी भी मुस्लिम या अफगान अधिकारी को उसके पद से हटाया नही।

दिल्ली ने जैसा स्वागत हेमू का किया था, वैसे सम्मान की बात अकबर सोच भी नही सकता था। क्योंकि दिल्ली की हिंदू जनता के लिए अकबर एक विदेशी आतंकी का पुत्र या पौत्र था। उसमें स्वदेशी का दूर दूर तक लेशमात्र भी नही था। जबकि हेमू स्वदेशी, स्व संस्कृति और स्वधर्म के बोध से सना पड़ा था।…और उस समय का हिंदू बहुसंख्यक इसी ‘स्व’ का ही तो चारण था। यह हिंदू का सौभाग्य था कि सदियों के पश्चात उसे एक ‘स्व’ का साधक और आराधक हेमू के रूप में मिल गया था। पर हेमू का सामना अभी अकबर से होना शेष था।

हेमू की प्रतिमा लगे पुराने किले में

आज आप पुराने किले में जायें तो वहां मुस्लिम आक्रांताओं के कुछ चिह्न आपको दिखाई देंगे। इसी प्रकार कुछ आवारा लडक़े- लड़कियां वहां अश्लील हरकतें करते दिखाई देंगे, पर कहीं पर भी इस राष्ट्रभक्त, हिंदूनिष्ठ और स्वतंत्रता के परमआराधक सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य का कोई प्रतीक आपको दिखाई नही देगा। क्या ही अच्छा हो कि इस हिंदू सम्राट की विशालकाय प्रतिमा इस किले के मध्य में स्थापित की जाए। यदि हम ऐसा करने में सफल हो गये तो हेमू के कार्य का इससे बड़ा अभिनंदन कुछ नही होगा और इससे बड़ी कोई श्रद्घांजलि भी उस योद्घा के लिए और कोई नही हो सकेगी।

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