कसौटी पर पंथनिरपेक्षता

कुलदीप नैयर

यह भी कि देश के विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपनी पहचान को जाति और पंथ के दायरे तक सीमित कर लिया है। जनता को उदारवादी संगठनों एवं राजनेताओं के जरिए दृढ़ता के साथ कहना होगा कि देश में जाति या पंथ के नाम पर नफरत न फैलाई जाए। अगर देश ऐसा करने में नाकाम रहता है, तो कश्मीर और देश के कई अन्य हिस्से धार्मिक कीचड़ में छटपटाना शुरू कर देंगे। लिहाजा यह पंथनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए एक परीक्षा रहने वाली हैज्कश्मीर में चुपचाप तरीके से बड़ा बदलाव हुआ है। मेरी वहां की जो अंतिम यात्रा थी उसके बाद पांच वर्षों से भी कम समय में कश्मीर में साफ तौर पर भारत विरोधी माहौल को बढ़ावा मिला है। इसका यह मतलब नहीं है कि वहां पाकिस्तान समर्थक स्थिति बन गई है, फिर भी श्रीनगर के अंदरूनी इलाकों में हरे झंडे फहराए जाने की घटनाएं बढ़ी हैं। इसका यही मतलब है कि कश्मीर में जो अलगाव की भावना थी वह पहले भी कभी-कभी दिखाई देती रही है, अब वह धीरे-धीरे आक्रोश का रूप धारण करती जा रही है। हालांकि डल झील और इसके किनारों की स्थिति सामान्य ही दिखाई पड़ रही है। पर्यटक हवाई अड्डे से सीधे ही इन स्थलों तक पहुंचते हैं, लेकिन यह भी एक स्पष्ट तथ्य है कि आंतरिक क्षेत्रों में आतंकियों का खौफ है। मैं भी उस समय श्रीनगर में ही था जब वहां हिंसा भडक़ी थी और उस दौरान कस्बे के भीतरी भाग में ग्रेनेड फेंके गए थे। कश्मीरी पत्रकारों की एक संस्था ने मुझे एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए निमंत्रित किया था। निमंत्रित पत्रकारों में कुछ पत्रकार दिल्ली से भी इस आयोजन में शामिल हुए। आश्चर्यजनक यह कि वहां जम्मू से कोई भी पत्रकार उपस्थित नहीं था। निस्संदेह उन्हें इस आयोजन में निमंत्रित भी नहीं किया गया था।  कश्मीर में होने वाले विरोध प्रदर्शन कमोबेश शांतिपूर्ण होते हैं, लेकिन उनकी बनावट और प्रवृत्ति इस्लामिक होती है। लेकिन इनसे प्रतीत होता है कि इस तरह का प्रदर्शन अभिव्यक्ति है, न कि अंतर्वस्तु। मूल भाव तो यही है कि कश्मीरी अपना अलग देश चाहते हैं। भारत में अधिकतर लोगों को यही संदेह है कि स्वतंत्र कश्मीर की मांग महज एक छलावा है। उनकी वास्तविक मंशा तो पाकिस्तान में शामिल होने की है। मैं इस अनुमान से सहमत नहीं हूं। आजादी का विचार एक स्वप्न मात्र है। यह सपना कभी हकीकत बनने वाला नहीं है, लेकिन यदि ऐसा हो भी जाता है, तो पाकिस्तान के साथ जुडऩे की इच्छा रखने वाले लोग भी अपना एजेंडा छोडक़र आजादी समर्थकों के साथ सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करेंगे। इस कद्र घटनाओं का क्रम मुझे कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना के विचार करने के तरीके की याद दिलाता है। उन्होंने मुस्लिमों के हक के लिए उस देश में अलग मुस्लिम राष्ट्र, पाकिस्तान की मांग की थी जिसमें हिंदू बहुसंख्या में थे। शुरुआत में इनमें हिचकिचाहट थी, लेकिन जब इसके लिए उन्होंने मुस्लिमों में जबरदस्त उत्साह देखा, तो वह मुस्लिमों के लिए मातृभूमि, पाकिस्तान की मांग के साथ आगे आए। इसलिए कश्मीरियों की वास्तविक मांग को लेकर किसी तरह का संदेह नहीं होना चाहिए।  मैंने गुस्से से लाल कई चेहरे देखे हैं जब मैं अपने भाषणों में कहता हूं कि अगर आजाद कश्मीर की मांग को स्वीकार कर लिया जाता है, तो यह भारत के लिए कष्टदायक समय होगा। हिंदू यह तर्क पेश कर सकते हैं कि आजादी के करीब सत्तर वर्षों तक भारत का हिस्सा रहने के बावजूद आजादी चाहते हैं, तो भारत में रहने वाले करीब 16 करोड़ हिंदुओं की निष्ठा की क्या गारंटी है? उस कान्फ्रेंस में इस तर्क पर गंभीरता के साथ विचार भी नहीं किया गया कि कश्मीर, जिसमें 98 फीसदी आबादी मुस्लिम है, को एक अलग राष्ट्र बना देने से भारत की पंथनिरपेक्षता पर क्या असर पड़ेगा।  इस तर्क का जवाब था ‘आपके मुस्लिम आपकी समस्या हैं’। इस पर मुझे एक और मिलती-जुलती प्रतिक्रिया याद आती है जब पाकिस्तान के अलग राष्ट्र घोषित कर दिए जाने पर मैंने उसके विदेश मंत्री अब्दुल सत्तार से कहा था कि भारत में रहने वाले मुस्लिम, जो कि आबादी में पाकिस्तान की कुल आबादी से ज्यादा थे, पाकिस्तान निर्माण की कीमत चुका रहे हैं। उनका जवाब था कि एक अलग मुस्लिम राष्ट्र की कल्पना को मूर्त रूप देने के लिए यह त्याग उन्हें करना ही ही पडऩा था। कश्मीर में तटस्थ लोगों के विलुप्त होने का भी मुझे काफी दुख है, जो कि कुछ वर्ष पूर्व तक स्पष्ट तौर पर देखने को मिल जाते थे। यहां मुस्लिमों और हिंदुओं के बीच सामाजिक संपर्क भी बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।  इसके लिए एक व्यक्तिगत उदाहरण रखने के लिए क्षमा चाहूंगा। काफी समय पहले यासीन मलिक ने मुझे अपने घर पर रात्रि भोज के लिए निमंत्रित किया। हां, यह सच है कि वह अब एक अलगाववादी बन चुका है, लेकिन मैं व्यर्थ में ही उनसे एक शब्द सुनने के लिए इंतजार करता रहा। मुझे नहीं लगता कि वह कश्मीर में मेरी उपस्थिति के  बारे में नहीं जानता था। जम्मू एंड कश्मीर लिबरेशन फ्रंट, जिसका कि वह स्वयं मुखिया हैं, ने अपने कुछ आदमी एयरपोर्ट पर अपने कुछ आदमी नियुक्त कर रखे हैं, जो उसे बताते हैं कि भारत से कौन-कौन और कब आ रहा है? यासीन मलिक उन्हीं अलगाववादियों से जानकारी लेता रहता है। मैंने खुद यासीन से आमरण अनशन इस शर्त पर तुड़वाया कि भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन में वह व्यक्तिगत तौर पर जांच करवाएंगे। वह इंटरनेशनल अमनेस्टी की जांच के बजाय मेरे द्वारा की जाने वाली जांच के लिए राजी हो गए। हमने एक रिपोर्ट तैयार की, जिसमें पाया गया कि यासीन द्वारा लगाए गए आरोप लगभग सही थे। इस रिपोर्ट का उपयोग पाकिस्तान में भारत की लानत-मलानत के लिए खूब किया जाता था। यह सच है कि यासीन मलिक ने कहा है कि वह भारतीय नहीं है, लेकिन हमारे संबंध राष्ट्रीयता के आधार पर नहीं थे। इन परिस्थितियों ने एक सवाल हमारे समक्ष खड़ा कर दिया है कि क्या इस तरह की कड़वाहट व्यक्तिगत संबंधों को भी खत्म कर देती है।इस बात में दो राय नहीं हो सकती कि कश्मीर पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है, विशेष तौर पर उन्हें जो कि पंथनिरपेक्ष और लोकतंत्र में विश्वास करते हैं। किसी भी तरह के विरोध के आगे इस तरह के वचनबद्ध लोगों को झुकना नहीं चाहिए। किसी कारणवश वह अपने इस स्टैंड से बदल जाते हैं, तो उनके बार में यही माना जाएगा कि उनका अब तक का व्यवहार महज दिखावा था। इन लोगों का अपने निश्चय पर दृढ़ रहना ही भारत के लिए अच्छा होगा। हम भारत को आजादी दिलवाने वाले महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू द्वारा प्रतिपादित विचारों की चुनौतियों के बीच में फंस चुके हैं। मुझे इस बात से बहुत दर्द होता है कि आजकल कुछ लोग नाथू राम गोडसे के विचारों की सराहना करने लग पड़े हैं, जिन्होंने महात्मा गांधी की हत्या की थी। यहां भारत को मूल्य संबंधित प्रश्न पूछना होगा कि क्या वह मुस्लिम बहुल कश्मीर में असुरक्षित महसूस करेगा? एक कश्मीरी मुस्लिम इंजीनियर ने मुझे बताया कि किस तरह से उन्हें बंगलूर जैसे उदारवादी स्थानों पर भी संदेह भरी नजर से देखा जाता है और पुलिस द्वारा प्रताडि़त किया जाता है।

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