क्या हम 21वीं सदी के नए शीत युद्ध के दौर में जी रहे हैं ?

राम माधव

संयुक्त राज्य अमेरिका की अफगानिस्तान से वापसी और तालिबान का तेजी से उदय एक स्थानीय घटना मात्र नहीं है। वैश्विक सुरक्षा परिदृश्य में इसके दूरगामी परिणाम होंगे। रूस और चीन अमेरिका की खाली की हुई जमीन को भर रहे हैं। यह वैश्विक मंच पर नए उभरते भू-राजनीतिक समीकरणों का संकेत है। ऐसे वातावरण में 21वीं सदी का शीत युद्ध आकार ले रहा है। इन परिस्थितियों के मध्य भारत को सचेत होकर कदम बढ़ाने की आवश्यकता है

आज भारत एक ऐसे दोराहे पर खड़ा है जिसके अगल-बगल के क्षेत्रों हिंद’-प्रशांत और यूरेशिया-में पहली बार शीत युद्ध के बादल मंडराते दिख रहे हैं। उसके भू-रणनीतिक हित दोनों क्षेत्रों से जुड़े हुए हैं। उसे अपने सुरक्षा हितों को ध्यान में रख कर अपनी रणनीतिक स्वायत्तता के लिए प्रतिबद्ध रहते हुए इन क्षेत्रों में सिर उठा रहे नए भू-राजनीतिक टकराव के बीच सचेत होकर कदम बढ़ाने की जरूरत है। पाकिस्तानी सेना के आधी रात को हेलिकॉप्टर और ड्रोन के जरिए किए गए आॅपरेशन के जरिए पंजशीर की पराजय के बाद अफगानी विरोध आंदोलन बेहद कमजोर पड़ गया है। विश्व के शक्तिशाली देशों से किसी भी तरह की मदद न मिलने के कारण तालिबान से लोहा लेने वाली पंजशीरी रेजिस्टेंस फोर्स अपनी राजधानी को नहीं बचा सकी।
माहौल फिर खराब होने के आसार
तालिबान के उभरते प्रभाव से भारत के पड़ोस में एक बार फिर माहौल खराब होने वाला है। भारत 1996-2001 की कड़वाहट को भूला नहीं है। इसलिए आज अपनी सुरक्षा के संबंध में तालिबान की किसी भी चुनौती का मुकाबला करने के लिए उसके पास बेहतर और अत्याधुनिक साजो-सामान तैयार है।
संयुक्त राज्य अमेरिका की अफगानिस्तान से वापसी और तालिबान के तेजी से उदय को एक स्थानीय घटना मानना बड़ी भूल होगा। वैश्विक सुरक्षा परिदृश्य में इसके दूरगामी परिणाम होंगे। यह वैश्विक मंच पर नए उभरते भू-राजनीतिक समीकरणों का संकेत है।
सोवियत संघ का पतन और अमेरिकी प्रभुत्व
1990 के दशक में सोवियत संघ के पतन के बाद अफगानिस्तान ने अमेरिका को अपनी जमीन पर पैर धरने का पहला अवसर प्रदान किया। इस दौरान अमेरिका ने काबुल और कंधार में तालिबान शासन को समाप्त किया, ओसामा बिन लादेन और उसके अल-कायदा को जान बचाने के लिए भागने के लिए मजबूर किया और मध्य और दक्षिण एशिया में अपनी मजबूत छवि स्थापित की। ताशकंद से बिश्केक और इस्लामाबाद तक की क्षेत्रीय शक्तियां राष्ट्रपति बुश की आतंक के खिलाफ लड़ाई को समर्थन देने लगीं। सऊदी और कतर में कुवैत युद्ध के पुराने ठिकानों के अलावा अमेरिकी सेना ने उज्बेकिस्तान, किर्गिस्तान और पाकिस्तान में भी केंद्रीय प्रतिष्ठान स्थापित किए और वहां से अपनी मुहिम बाकायदा जारी रखी।
यहां तक कि रूसी और चीनी नेतृत्व को भी इस क्षेत्र में अमेरिकी प्रभुत्व को स्वीकार करना पड़ा। व्लादिमिर पुतिन अपने कार्यकाल के दो साल के अंदर ही नवंबर 2001 में राष्ट्रपति बुश से मुलाकात करने और अफगानिस्तान अभियान में अमेरिका को अपना समर्थन देने टेक्सास पहुंचे। एक लोकतांत्रिक नेता के अपने अल्पकालिक अवतार में पुतिन को इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ रहा था कि उनके कदम से अमेरिका को उनके अंदरूनी मामलों में भू-रणनीतिक प्रभाव बनाने का अवसर मिल जाएगा, बल्कि उनका सारा ध्यान इस बात पर केन्द्रित था कि रूस एक महत्वपूर्ण वैश्विक खिलाड़ी और वार्ताकार के रूप में विश्व मंच पर जगह बना ले।
चीनियों ने भी इसे अपने फायदे के लिए चुना। उन्होंने स्टेट डिपार्टमेंट द्वारा ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट जैसे उइगर गुटों को ब्लैक लिस्ट करने के बदले अमेरिका को समर्थन दिया। जैसे-जैसे वैश्विक शक्ति का केन्द्र प्रशांत-अटलांटिक से परे खिसकते हुए हिंद-प्रशांत की ओर बढ़ने लगा, अमेरिकी प्रभाव भी उसी दिशा में आगे बढ़ता रहा। इस तरह, बीस वर्ष में शक्ति की धुरी दृढ़ता से हिंद-प्रशांत में स्थानांतरित हो गई और इसके साथ अमेरिकी प्रभाव भी। अमेरिका हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक प्रमुख ताकत के रूप में उभरा है और वहां अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए वह पूर्वी एशिया, पश्चिमी यूरोप और प्रशांत क्षेत्र से अपने दोस्तों को इकट्ठा कर रहा है। लेकिन अफगानिस्तान में अपने अभियान के चलते पश्चिम, मध्य और दक्षिण एशिया में उसने जो प्रभाव जमाया था, वह जल्दबाजी और अदूरदर्शी तरीके से सेना को वापस लौटाने से धूमिल पड़ गया।
कमजोर पड़ी आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई
अमेरिका की ‘आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई’, जिसने रूस और चीन जैसे देशों को भी पीछे धकेल दिया था, को पहली बार 2003 में बड़ा झटका लगा जब राष्ट्रपति बुश ने सद्दाम हुसैन के शासन को खत्म करने के लिए अपनी सेना इराक भेज दी थी। यह एक विनाशकारी युद्ध था जिसमें हजारों अमेरिकी सैनिकों की जान गई। 2003 के अंत तक अल-कायदा का अस्तित्व लगभग खत्म हो चुका था। लादेन लगभग दो साल तक अपने सहयोगियों से संपर्क नहीं कर पाया। यही हाल तालिबानी शीर्ष नेताओं का भी था जो अफगानिस्तान के ऊबड़-खाबड़ दक्षिणी इलाकों, या पाकिस्तान के दुर्गम उत्तर-पश्चिम सीमावर्ती इलाकों में छिपे थे। लेकिन इराक में अमेरिकी सेना के मिशन और फिर वापसी से दोनों ही देशों की किस्मत ने नया मोड़ ले लिया है। आतंक के खिलाफ लड़ाई का चेहरा अब पहले जैसा नहीं रहा।
बराक ओबामा 2009 में सत्ता में आए। उन्होंने अपने देशवासियों से युद्ध समाप्त करने का वादा किया। लेकिन जब सेना के वरिष्ठ अधिकारी जनरल स्टेनली ए. मैकक्रिस्टल को स्थिति का आकलन करने के लिए अफगानिस्तान भेजा गया, तो उनकी रिपोर्ट में स्थिति बिल्कुल विपरीत नजर आई। जनरल मैकक्रिस्टल ने तालिबान और अल कायदा के खतरे को खत्म करने के लिए अफगानिस्तान में 80,000 से 1,00,000 अमेरिकी सैनिक भेजने की सिफारिश की थी। संयोग से व्हाइट हाउस के डेमोक्रेट्स में युद्ध जारी रखने की कोई चाह बाकी नहीं थी। लिहाजा, सेना की वापसी की पहली समय सीमा 2011 निर्धारित की गई। पर,इसमें दस साल और दो और राष्ट्रपतियों के कार्यकाल भी जुड़ गए। अंतत: अगस्त 2021 में अमेरिका की सेना इरान की जमीन को छोड़कर वापस लौट आई।
 
बदल गया भू-राजनीतिक चेहरा
बाइडेन के उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति पद के बीच के दशक ने इस क्षेत्र को विश्व मंच पर एक नया भू-राजनीतिक चेहरा दिया है। जैसे-जैसे लड़ाई जारी रखने का अमेरिकी संकल्प कमजोर होता गया, मध्य एशिया के देशों के बीच टकराव बढ़ने लगे। अमेरिकियों को अपने सैन्य ठिकाने खाली करने के लिए मजबूर होना पड़ा। जहां शंघाई कोआॅपरेशन आर्गेनाइजेशन नाम के सुरक्षा समूह के साथ चीनियों ने मध्य एशियाई लोगों को अपने पाले में ले लिया, वहीं अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए पुतिन ने कलेक्टिव सेक्युरिटी ट्रिटी आर्गेनाइजेशन नाम से सुरक्षा गठजोड़ तैयार किया।
ओबामा ने पूर्वी एशिया और हिंद-प्रशांत पर ध्यान केंद्रित करते हुए 2012 में एशियाई रीबैलेंस या पिवट टू एशिया पॉलिसी की घोषणा करके दक्षिण, पश्चिम और मध्य एशिया में अपने नुकसान की भरपाई करने का प्रयास किया। पुतिन ने इस अवसर को अपनी मुट्ठी में भरने के लिए 2011 में अपने यूरेशियन सपनों की घोषणा की जिसके तुरंत बाद 2013 में शी जिनपिंग ने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव का ऐलान किया।
पुतिन ने 3 अक्टूबर, 2011 को रूसी समाचार पत्र ‘इजवेस्टिया’ में लिखे अपने लेख में यूरेशिया के भव्य भविष्य का सपना व्यक्त किया। उनकी यूरेशिया को एक अखंड स्वरूप देने की योजना ‘दुनिया के लिए एक नई विचारधारा और भू-राजनीति की शुरुआत’ का संकेत देती है। उनके अनुसार इस कार्यक्रम का आधार ‘सभ्यता’ होगा, न कि लोकतंत्र, उदारवाद और कानून जैसी समकालीन राजनीतिक विचारधारा। इस कार्यक्रम में रूस और चीन भागीदार होंगे, जिसे अफ्रीका-यूरेशिया के रूप में अफ्रीका तक बढ़ाया जा सकता है। वर्चस्व की लड़ाई अंतत: प्रभुता और उदारता के बीच ही तो चलेगी।

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