पाकिस्तान, तालिबान और हिंदुस्तान

अफगानिस्तान में पिछले दिनों जो कुछ भी हुआ है उस पर अब अधिक कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं है। वहां पर फिर तालिबानी आतंकवादियों के हाथों में सत्ता चली गई है और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अंतर्गत मिलने वाले मानवीय मौलिक अधिकारों को वहां पर फिर ग्रहण लग गया है। जिससे अंतरराष्ट्रीय जनमत अफगानिस्तान की नई सरकार के विरुद्ध खड़ा हो गया है। यही कारण है कि नई तालिबानी सरकार के समक्ष इस समय सबसे बड़ी चुनौती यह है कि उसे अंतरराष्ट्रीय मान्यता कैसे प्राप्त हो?  इस चिंता का एक कारण यह भी है कि तालिबानी सोच के कारण विश्व के अधिकांश देश तालिबान सरकार को अपनी ओर से मान्यता देने में गहरा संकोच व्यक्त कर रहे हैं। यहां तक कि मुस्लिम देश भी इस बात के प्रति बहुत अधिक उतावलापन दिखाने से अपने आप को बचाते हुए दिखाई दे रहे हैं। अब संसार में ऐसे संवेदनशील मुसलमानों की संख्या तेजी से बढ़ रही है जो आतंकवाद के ठप्पे के इस्लाम के साथ लगे होने के कारण अपने आपको अपमानित अनुभव करते हैं। क्योंकि  संसार में जहां कहीं भी मुसलमान जाते हैं वहीं उन्हें उपेक्षा और संदेह की दृष्टि से देखा जाता है।
   इस सबके बीच इस समय अंतरराष्ट्रीय आतंकी गिरोहों और संगठनों को समर्थन देने के लिए कुख्यात हो चुका पाकिस्तान इस बात के लिए अवश्य परिश्रम करता हुआ दिखाई दे रहा है कि तालिबानी सरकार को विश्व के देश अपनी मान्यता प्रदान करें। यह बहुत ही आश्चर्य और दु:ख का विषय है कि जब संसार के कई संवेदनशील मुसलमान इस्लाम के साथ लगने वाले आतंकवाद के ठप्पे को अपने लिए अफसोस का विषय मान रहे हैं, तब पाकिस्तान नाम का एक ऐसा देश भी इस संसार में है जहां की सरकार भी अफगानिस्तान की आतंकवादी तालिबानी सरकार के साथ खड़ी है । इसका एक कारण यह भी है कि पाकिस्तान तालिबान सरकार को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर वैश्विक सरकारों के द्वारा मान्यता दिलाने के एहसान में इसका दुरुपयोग भारत के विरुद्ध करना चाहेगा। इसके अतिरिक्त पाकिस्तान को तालिबान से अपने लिए भी खतरा दिखाई दे रहा है । यदि उसने ऐसे प्रयास नहीं किए तो पाकिस्तान की क्षेत्रीय एकता और अखंडता भी खतरे में पड़ सकती है। इसलिए भी पाकिस्तानी नेतृत्व तालिबान के प्रति सहानुभूति व्यक्त करता हुआ दिखाई दे रहा है। यद्यपि पाकिस्तान के भीतर रहने वाले ऐसे लोग भी पर्याप्त संख्या में हैं जो अपने देश की सरकार की नीतियों का विरोध कर रहे हैं और वह भारत को एक शांतिप्रिय जबकि अपने ही देश को एक आतंकवादी देश मान रहे हैं।
    तालिबान के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त करते हुए पाकिस्तान यह भी भूल गया है कि उसे किन देशों को तालिबान सरकार को मान्यता देने के लिए मनाना चाहिए और किन को नहीं ? अपनी इसी प्रवृत्ति के चलते पाकिस्तान ने अमेरिका को अपनी भावनाओं पर संयम रखने का परामर्श भी दे डाला है। जिससे उसकी जगहंसाई हुई है।
     पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने अमेरिका को इस प्रकार की सलाह अभी हाल ही में अपने द्वारा दिए गए एक साक्षात्कार में दी थी। अपने उस साक्षात्कार में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने कहा था कि अमेरिकी अभी सदमे में हैं। अगर ऐसा नहीं हुआ तो अफ़ग़ानिस्तान का पतन हो जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि यदि  ऐसा न हुआ तो अफ़ग़ानिस्तान चरमपंथियों का गढ़ बन जाएगा।
  अब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को यह कौन समझाए कि तालिबानियों की सत्ता में वापसी से अफगानिस्तान चरमपंथियों का गढ़ तो बन चुका है। अब तो केवल यह देखना है कि उनका यह चरमपंथी दृष्टिकोण देश के लोगों को कितना कुचलता है ? और उनके इस प्रकार के कारनामों का विश्व राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ता है ? इसके अतिरिक्त यह भी देखना होगा कि अफगानिस्तानी कट्टरपंथी या चरमपंथियों से क्षेत्रीय शांति और शक्ति संतुलन भी किस प्रकार प्रभावित होगा ?
       निश्चित रूप से हमारे इन सभी प्रश्नों का उत्तर नकारात्मक ही दिखाई दे रहा है अर्थात विश्व राजनीति पर इसका कुप्रभाव पड़ना निश्चित है और क्षेत्रीय शांति संतुलन भी बिगड़ना निश्चित है। क्योंकि जब शासकों की सोच विकृत और दूषित हो जाती है तो उससे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय शांति भी प्रभावित होती है। हमने अतीत में हिटलर और उसके बाद के कर्नल गद्दाफी व सद्दाम हुसैन जैसे ऐसे कई तानाशाहों को देखा है जिनके कारण राजनीति ‘उग्रवादी’ हुई और राजनीति के उग्रवादी होने के चलते विश्व में अप्रत्याशित तनातनी बढ़ी। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि राजनीति मर्यादित, संतुलित और न्याय पूर्ण बनी रहे – इसके लिए ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शासन प्रणाली को सर्वोत्तम माना जाता है। तानाशाहों के शासन में जहां घृणा का व्यापार होता है, वहीं लोकतांत्रिक प्रक्रिया से अपेक्षा की जाती है कि वह प्रेम का व्यवहार करेगी। अपनी बहुत सारी कमियों के उपरांत भी लोकतांत्रिक शासन प्रणाली प्रेम का व्यवहार परोसने के अपने अपेक्षित व्यवहार में बहुत अधिक सफल हुई है।
         जब बात किसी चरमपंथी सरकार की हो तो उसके बारे में तो यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उसके रहते सब कुछ विनष्ट होगा। इसका एक कारण यह भी है कि किसी भी चरमपंथी सरकार का दृष्टिकोण सदा एकांगी ही रहता है।  वह देश के समग्र विकास की बात कभी सोच भी नहीं सकती और ‘सबका साथ सबका विकास’-  का तो विचार तक उनके मस्तिष्क में नहीं आता। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि मानवीय उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ेंगी और अफगानिस्तान में मानव अधिकारों का उल्लंघन नित्य प्रति तेज होता जाएगा।
       इमरान ख़ान ने कहा है कि जब तक अमेरिका नेतृत्व नहीं करता, तब तक हमें अफ़ग़ानिस्तान में अराजकता फैलने की चिंता रहेगी और इससे सबसे अधिक हम प्रभावित होंगे। तालिबान के भीतर के कट्टरपंथी तत्वों को रोकने के लिए भी उसका समर्थन करना आवश्यक है।
   वास्तव में यह एक सर्वमान्य सत्य और सिद्धांत है कि जब कोई व्यक्ति दूसरों के लिए कुआं खोदता है तो उसमें अपने आप ही पहले गिरता है। यह सभी जानते हैं कि सारे संसार को आतंकवाद की भट्टी में झोंकने का काम काम स्वयं पाकिस्तान ने आरंभ किया था। जब वह इस्लामिक देशों का नेता बनने का सपना संजोकर आगे बढ़ा था। उस समय उसके राजनीतिक  और सैनिक नेतृत्व की सोच यही रही थी कि ऐसा करने से वे भारत को तोड़ने या अस्थिर करने में सफल होंगे। यद्यपि भारत के लोगों ने अपनी राष्ट्रीय एकता और अखंडता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करते हुए पाकिस्तान के सपनों पर पानी फेर दिया। यहां तक कि पंजाब के लोगों ने भी उसे समय आने पर मुंह तोड़ जवाब दे दिया। 1984 के सिख दंगों को लेकर उसने हमारे पंजाब के लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने का प्रयास किया था । परंतु यह एक अच्छी बात रही कि पंजाब के लोगों ने पाकिस्तान को बता दिया कि वह अपनी समस्याओं और गिले शिकवों को मिल बैठकर दूर करने में विश्वास रखते हैं। देश की एकता और अखंडता से खिलवाड़ करना उन्हें किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं है।
   विश्व के मुस्लिम देशों की भी समझ में यह बात मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद आ गई है कि पाकिस्तान ही आतंकवाद का जनक है और भारत को अस्थिर करने में उसकी गहरी रुचि है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी के जी तोड़ प्रयासों के परिणाम स्वरुप अधिकांश मुस्लिम देश इस समय पाकिस्तान से दूरी बनाने में ही अपना और अपने देश का भला समझते हैं।
इस बात के लिए मोदी सरकार की प्रशंसा ही की जानी चाहिए कि वह पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अलग-थलग करने में सफल रही है। अब अपनी खीज मिटाने के लिए पाकिस्तान तालिबान के साथ गठबंधन करता हुआ दिखाई दे रहा है।
    पाकिस्तान अलग-अलग मंचों से इस बात को उठाता रहा है कि तालिबान सरकार को विश्व के देश मान्यता प्रदान करें । संयुक्त राष्ट्र महासभा के दौरान भी पाकिस्तान ने तालिबान को मान्यता देने पर ज़ोर दिया था। इमरान ख़ान तालिबान में अस्थिर सरकार से पूरी दुनिया के प्रभावित होने की बात कहते रहे हैं।
  यह बात समझ से बाहर है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ऐसा कहकर विश्व के देशों को भयभीत कर रहे हैं या कोई धमकी दे रहे हैं या अपने मन की खीज मिटा रहे हैं ? अंतरराष्ट्रीय मंचों पर वह किसी भी अवसर को खाली हाथ नहीं जाने देना चाहते। यही कारण है कि वह हर अंतर्राष्ट्रीय मंच का प्रयोग करते समय तालिबान के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त करने से नहीं चूकते। यद्यपि वह बड़े सधे हुए शब्दों में कुछ इस प्रकार दिखाने का प्रयास करते हैं कि यदि अफगानिस्तान की तालिबानी सरकार को विश्व के देशों ने मान्यता नहीं दी तो अस्थिर अफगानिस्तान संसार के लिए खतरा हो सकता है।
   ऐसा कहते समय इमरान खान यह भूल जाते हैं कि लोकतंत्र का गला घोंटकर और लोगों के अधिकारों का हनन करके यदि आने वाली सरकारों को केवल इसलिए मान्यता दिलाया जाना अनिवार्य घोषित किया जाएगा कि यदि उन्हें मान्यता नहीं दी तो वह और भी अधिक आतंक मचाएंगे तो ऐसी स्थिति परिस्थिति में संसार के अन्य देशों में भी आतंकवादी संगठन सत्ता हथियाने का खेल खेलेंगे। तब उनके लिए भी कोई इमरान खान आकर ऐसी ही पैरोकारी करेगा जैसी आज पाकिस्तान के प्रधानमंत्री तालिबानी सरकार के लिए करते दिखाई दे रहे हैं। वास्तव में इस प्रकार की पैरोकारी और प्रवृत्ति दोनों ही गलत हैं ।
      इस समय सारे संसार के देशों को सामूहिक संगठित प्रयास करके तालिबानी सरकार और तालिबानी सोच पर प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता है । यदि इसके विरोध में तालिबानी सरकार कुछ भी करती है तो उसका भी सामूहिक रूप से सब मिलकर जवाब दें। इससे यह होगा कि किसी अन्य देश में ऐसा कोई अन्य तालिबानी संगठन ना तो पनपेगा और ना ही सत्ता हथियाने का कार्य कर सकेगा। एक जगह की ढील दूसरी जगह समस्या पैदा कर सकती है और दूसरी जगह समस्या पैदा होने के बाद तेजी से उसका वायरस संसार में फैलेगा।  जिसका सामना नहीं किया जा सकेगा।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बड़े सधे हुए शब्दों और नीतियों के द्वारा अफगानिस्तान के वर्तमान संकट का सामना कर रहे हैं। उनके धैर्य और संयम की प्रशंसा करनी होगी । उन्होंने अफगानिस्तान में फंसे भारतीयों को वहां से निकालने में भी धैर्य और संयम का परिचय दिया। अब उन्हें अपने देश की एकता और अखंडता के दृष्टिगत तालिबान पर शिकंजा कसने के लिए वैश्विक नेताओं को अपने साथ लाने की आवश्यकता है। भारत सरकार को चाहिए कि देश के हितों की रक्षा के दृष्टिगत तालिबान को समय रहते कुचलने की प्रत्येक कार्यवाही में वह किसी प्रकार का संकोच ना करे। इसके साथ ही देश के भीतर बैठे ‘तालिबानियों’ पर भी बड़ी सावधानी के साथ नजर रखने की आवश्यकता है।
       अंतरराष्ट्रीय विषयों के विशेषज्ञ मानते हैं कि तालिबान की सरकार बनने के बाद पाकिस्तान की आशा और अपेक्षाओं के अनुसार स्थितियाँ नहीं बन पाई हैं, जिससे उसके अपने लिए कई चुनौतियाँ पैदा हो गई हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि एक तरफ़ तालिबान अंतरराष्ट्रीय समुदाय की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर रहा है, तो दूसरी तरफ़ पाकिस्तान की अपील भी ख़ाली जा रही हैं। “अमेरिकी फ़ौजों के जाने के बाद से अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान सरकार चलाने में जैसी कठिनाइयां आ रही हैं, मानवीय और आर्थिक संकट पैद हो गया है उससे लगता है कि पाकिस्तान इन परिणामों को लेकर बहुत स्पष्ट नहीं था। सम्भवत: उसे ये आशा थी कि चीन और रूस मान्यता दे देंगे लेकिन अब वो भी मौन हैं।”
    इस समय पाकिस्तान की अपनी भीतरी कठिनाइयां भी बढ़ती जा रही हैं। लोगों में असंतोष है और इमरान खान दिन प्रतिदिन कमजोर होते जा रहे हैं । यद्यपि सेना का वर्चस्व पहले की भाँति बना हुआ है । जितना इमरान खान कमजोर हो रहे हैं उतनी ही सेना मजबूत होती जा रही है। अपने देश की ऐसी स्थिति इमरान खान के लिए चिंता का विषय है। बीबीसी की एक समीक्षा के अनुसार अफ़ग़ानिस्तान को आईएमएफ़ और वर्ल्ड बैंक से मिलने वाली मदद भी रुकी हुई है। जब तक अमेरिका मान्यता नहीं देता, तब तक ना मदद का रास्ता खुल सकता है और ना पश्चिमी देशों के समर्थन का। अफ़ग़ानिस्तान में आर्थिक हालात ख़राब होने से पाकिस्तान में शरणार्थियों की समस्या बढ़ सकती है, जिसे लेकर वो पहले भी चिंता प्रकट कर चुका है। पाकिस्तान की चिंता ये भी है कि अफ़ग़ानिस्तान में अस्थिरता और कट्टरता बढ़ने से पाकिस्तान तहरीके तालिबान के हाथ मज़बूत हो सकते हैं।
    पाकिस्तान और तालिबान दोनों ही हिंदुस्तान के लिए एक जैसे शत्रु हैं। दोनों ही भारत के भीतर बैठे ‘तालिबानियों’ को अपने साथ मिलाने का प्रयास कर रहे हैं। भारत के भीतर बैठे कई तालिबानियों ने उन्हें ऐसे संकेत स्पष्ट रूप से दे भी दिए हैं। जिससे पाकिस्तान और तालिबान उत्साहित दिखाई देते हैं। ऐसे में नरेंद्र मोदी सरकार के लिए यह आवश्यक है कि वह न केवल भारत के बाहर के तालिबानियों के प्रति सचेत और जागरूक रहे बल्कि भारत के भीतर बैठे ‘तालिबानियों’ के प्रति भी सजग और सावधान रहे। केवल अंतरराष्ट्रीय नेता बनने के लिए नेहरू वाली प्रवृत्ति को अपनाना देश के हितों के साथ खिलवाड़ करना होगा ? हम अंतरराष्ट्रीय नेतृत्व के साथ संपर्क बनाकर अपना वर्चस्व अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बनाए रखकर अपने राष्ट्रीय हितों की पूरी तरह ‘चौकसी और चौकीदारी’ करते रहें, इसी में ‘चौकीदार’ और देश का भला है।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
   

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