1857 में गांव गांव घूमती चपाती और हर छावनी में घूमता रक्तकमल

परिस्थिति कुछ ऐसी थी कि 1612 में व्यापार के आवरण में भारत लूटने के मकसद से आयी ईस्ट इंडिया कंपनी ने पहले बंगाल, फिर मैसूर और मराठाओं को पराजित कर भारत में बड़ी मजबूत पकड़ बना ली थी। तत्पश्चात कंपनी ने भारतीय राज्यों के साथ संधियां कर और उटपटांग कानून बना कर खूब सीमा विस्तार किया। फिर सिखों, नेपालियों, बेरार और अवध को हरा कर लगभग पूरा भारत कंपनी के अधिकार में चला गया था। ऐसे में पूरे भारत में अंग्रेज़ों के खिलाफ बारूद भरा था। इसमें पहली चिंगारी 1806 में वेल्लोर में लगी। परन्तु इसे कुचल दिया गया। ऐसे में 1857 में नाना साहब और तात्या टोपे ने जिस चतुराई के साथ युद्ध की पूरी रणनीति बनाई वह पढ़ने और सुनने लायक है।

1857 के विषय में पढ़ते हुए आप सब ने कुछ रहस्यमयी घटनाओं के विषय में पढ़ा होगा। गांव-गांव घूमती चपाती और हर छावनी में घूमता रक्तकमल। अंग्रेज़ों ने इस विषय में लिखा है। उनकी लेखनी से आप समझ सकते हैं कि यह कितना रहस्यमयी था उनके लिए। उनके भारतीय नौकर तक इन घटनाओं का उत्तर नहीं दे पा रहे थे।

चपातियों की घटना कुछ ऐसे होती थी….यह ज्ञात था कि गांव के बाहर से कोई संदेशवाहक आता था और गांव के मुखिया को रोटियां पकड़ाकर उन्हें अगले गांव तक इन्हें पंहुचाने का निर्देश दे जाता था। इस तरह भारत के कई भागों में ये घूमती चपातियां पाई जाने लगीं। …

अंग्रेज़ों ने इसकी व्याख्या करते हुए इसे भारतीय अंधविश्वास बताया। परन्तु भारतीयों में ऐसा कोई विश्वास नहीं ये तो हम सब जानते हैं।

ये चपातियां उत्तर-पश्चिम से लेकर अवध और बंगाल तक पायीं जाने लगीं। अंग्रेज़ों ने विवरणी में लिखा है –

… फिर हमने कुछ चपातियों के कुछ रहस्यमयी किस्से सुने। ऐसा समझ में आता है कि कानपुर के चौकीदार ने फतेहगढ़ के चौकीदार को 2 चपातियां दीं और ऐसी 10 चपातियां बनाकर उसके पड़ोस के सभी चौकीदारों को 2-2 चपातियां बांटने का निर्देश भी दिया। …

गंगा के खेतों से लेकर मध्य भारत में सागर और दूसरे शहरों तक ये पायीं जाने लगीं। अवध के पराजय के ठीक बाद से रोटियों का ये क्रम शुरू होकर फ़रवरी 1857 तक चला।

इसी तरह चपातियों से पहले 1856 के उत्तरार्ध से एक और घूर्णन शुरू हुआ – बंगाल सेना की सभी छावनियों में रक्तकमल देखा जाने लगा। इसकी सभी कहानियों में कुछ बातें सम्मान थीं –

… सूबेदार, जो एक पलटन की कमान संभालता था, अपने सभी सिपाहियों को पंक्ति में खड़ा करता और पहले सैनिक को रक्तकमल पकड़ाता। हर सैनिक अपने बाद वाले सैनिक को ये कमल देता और इस तरह जब कमल अंतिम सैनिक के हाथ पहुँचता, तो वह कमल लेकर छावनी से बाहर चला जाता।

यहां गौर करने की बात ये है कि जहां चपातियां केवल गांवों में भेजे गए, कमल भी केवल छावनियों में नज़र आये।

इन चपातियों और कमलों को 1857 के इस युद्ध का प्रतीक माना जाता है। परन्तु क्या ये सिर्फ प्रतीक मात्र थे ?

इस दौरान एक और घटना हुई। नाना साहब ने एक पूजा करवाई जिसमें मखानों का उपयोग किया गया। मखाने कमलगोटे यानी कमल के बीजों से ही बनते हैं। इन मखानों को रोटियों में भरा गया। और ये रोटियां प्रसाद स्वरुप महल से बाहर भिजवाईं गयीं।

क्या ये आपस में रहस्य के टुकड़ों की भांति जुड़ रहे हैं?

अब कुछ और तथ्य जानिये। जब छावनियों में रक्तकमल का वितरण शुरू हुआ तब कमल लेकर आने वाला सैनिक सर झुका कर कहता, “सब लाल हो जाएगा।” और 1857 की फरवरी में ये नारा बदल कर हो गया “सब लाल हो गया।”

अंग्रेज़ों के लिए ये सब भारतीय अंधविश्वास था। उन्होंने सोचा कि ये नारा अंग्रेज़ों (उन्हें रेडकोट कहते थे) द्वारा भारत जीतने को बताता है। इसी सोच के साथ हमारे इतिहासकारों ने भी इन घटनाओं की अनदेखी की।

परन्तु, ये इतिहासकार भूल गए कि किसी भी सेना की पहली जरुरत है राशन और एक बार ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध हथियार उठा लेने पर ये सैनिक ईस्ट इंडिया कंपनी की संरचना का उपयोग नहीं कर पाते। उन्हें अपनी अलग संरचना तैयार करनी पड़ती।

हर रक्तकमल जब नाना साहब की पूजा में पंहुचा तो वह एक पलटन का प्रतीक था। जब उससे बने मखानों को रोटियों में भरकर गांव गांव भेजा गया तो उन पलटनों के राशन का प्रबंध किया जा रहा था। एक सैनिक को कम से कम दाल-रोटी ही खिलाइये, तो भी उस पर एक दिन में लगभग एक किलो अनाज खर्च होगा ही। अतः ऐसे युद्ध से पहले इतनी योजना आवश्यक भी थी। लगभग 50000 भारतीय सैनिकों ने अंग्रेज़ों के खिलाफ हथियार उठाये थे। अगर आप गणना करें तो सिर्फ एक महीने में उन्हें 1500 टन अन्न की आवश्यकता होती। ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में हर सैनिक के साथ तीन गुरगा होता था। क्या नाना साहब की सेना में उन्हें भी गिनना चाहिए? फिर हाथी-घोड़ों को भी गिनने से ये आंकड़ा 1500 टन से कितना अधिक बढ़ जाएगा?

अगर आप गौर करें तो पाएंगे कि अंधविश्वास और परंपरा के नाम पर सैनिकों की गिनती भी की गयी और उनके खाने का इंतज़ाम भी। अंग्रेज़ों को अपनी सारी शक्ति लगानी पड़ी इस युद्ध में विजय पाने के लिए।

इस युद्ध का ही परिणाम था कि बाकी अंग्रेज उपनिवेश जहां आज भी अंगरेजी संस्कृति के गुलाम हैं, वहीं भारत की संस्कृति जीवित रही।

अब इससे चतुर और कौन सी रणनीति होगी?
✍🏻मलंग काशी वाले

“राम भरोसे हिन्दू होटल”

सन 1857 के विद्रोह को जब फिरंगी हुक्मरानों ने कुचल दिया था तो भारत में राष्ट्रवाद का उदय ही न हो इसके लिए उन्होंने कई इन्तेज़ामत किये | भारत की शिक्षा व्यवस्था का विदेशीकरण कर डाला गया था | रोजगार से जुड़ी चीज़ें सिखाई ही नहीं जाती थी | मैकले मॉडल का मुख्य उद्देश्य ही यही था कि शिक्षा व्यवस्था से ऐसे भारतीय पैदा किये जाएँ जो दिखने में, रहन सहन के तरीकों में तो भले ही भारतीय हों मगर मानसिक तौर पर वो फिरंगी गुलाम ही रहें | मैकले ने खुद अपनी चिट्ठियों में ऐसी ही शिक्षा व्यवस्था के विकास की बातें की हैं |

हथियारों पर लाइसेंस की प्रक्रिया भी उसी दौर में आई थी | अखाड़ों पर पाबंदियां लगाई गई थी, हथियार रखने और चलाना सीखने की मनाही थी | इस से जातिवाद और छुआ-छूत को बढ़ावा देने में भी मदद मिलती थी | इस समय जब ऐसा प्रचार शुरू किया गया कि भाई युद्ध कला तो सिर्फ राजपूतों को सिखाई जाती थी, तो दो सौ सालों में लोगों को इस झूठ पर भरोसा भी होने लगा | वैसे जो लोग बनारस के मणिकर्णिका घाट तक गए हैं, उन्होंने शायद डोम राजा का अखाड़ा भी देखा होगा | मैकले के मानस पुत्रों को ये भी बताना चाहिए कि अगर युद्ध कला सिर्फ राजपूत / क्षत्रिय जाति के लोग सीखते थे तो ये ज्यादातर अखाड़े उन जाति के लोगों के क्यों हैं जिन्हें अछूत माना जाता है ? फिर सवाल ये भी है कि अगर इन लोगों को छूने पर पाबन्दी थी, तो भला इन जगहों पर बिना छुए कुश्ती सीखते कैसे होंगे “सवर्ण” ?

सन 57 का विद्रोह कुचल दिया गया था और भारत 50 साल में युद्ध के लायक भी नहीं रह गया | लेकिन फिर भी करीब 50 साल में राष्ट्रीयता की भावना फिर से जागने लगी | 1915-1920 के दौर में जब गाँधी जी भारत आ गए थे और कांग्रेस के झंडे तले होम रूल का आन्दोलन जोर पकड़ने लगा था, तो लोग फिर से सड़कों पर उतरने लगे थे | उस समय के कई तथाकथित बुद्धिजीवी मानते थे कि “हिन्दुओं की कौम” तो मिट चुकी है, इनका लड़ने भिड़ने का दम नहीं रह गया | ऐसे ही दौर में एक प्रमुख क्रन्तिकारी पार्टी के सरगना अपने फिरंगी आकाओं को चिट्ठी लिख कर, रिपोर्ट भेजकर ये बताते थे कि कैसे वो इस आन्दोलन को कुचलने में मदद करके अपने फिरंगी हुक्मरानों की मदद कर रहे हैं !

ये वो दौर था जब हिन्दुओं से कुछ नहीं हो पायेगा ये बताने के लिए एक विशेष राजनैतिक विचारधारा के बुद्धिपिशाचों ने “राम भरोसे हिन्दू होटल” का जुमला उछालना शुरु किया | अगर आप सोचते हैं कि ये अजीब सा जुमला आया कहाँ से ? तो जनाब ये तस्वीर 6 अप्रैल 1919 की है जिसमें फिरंगी शासन के विरोध में लोग बिना किसी स्थापित नेतृत्व के ही सड़कों पर उतरना शुरू हो चुके थे | इनसे कुछ नहीं हो पायेगा ये कहने के लिए इस तस्वीर में पीछे दिख रहे होटल का नाम जुमले की तरह उछाला गया था |

क्या होगा ये पता नहीं, या कुछ भी नहीं हो पायेगा, सब फर्जी शोर है ये साबित करने के लिए एक आयातित विदेशी विचारधारा के बुद्धि-पिशाचों ने इस तरह “राम भरोसे हिन्दू होटल” का जुमला शुरू किया

खुसरो खान- ये किसी मुस्लिम का नाम नहीं हे ये एक हिन्दू राजा का नाम है जिसने खिलजी सल्तनत का अंत किया था शायद ये नाम आप पहली बार सुन रहे हों, पर इतिहास का ज़िक्र हो ही रहा हे तो ये जानना भी जरूरी है की खुसरो खान कौन सी शख्सियत का नाम है| हमें हमेशा से ये ही पढ़ाया गया है की जो दलित हिन्दू थे उन्होंने स्वेच्छा से अपना धर्म परिवर्तन किया था, जो की गलत है| इस बात के प्रमाण के लिए हम आप को १२०० ई. के अंत में जाना होगा जब 1297 ई. में में नीच अल्लौद्दीन खिलजी ने पवित्र सोमनाथ के मंदिर को पूर्व मुस्लिम शासकों की तरह लूटने के उलूग खान और नुसरत खान को भेजा था| पवित्र सोमनाथ मंदिर की रक्षा करते हुए लाठी राज्य के हमीरजी गोहिल और उनके दोस्त वेगदो भील दोनों पवित्र सोमनाथ मंदिर के निकट एक लड़ाई में मारे गए थे व उन्ही वेगदो भील का मित्र था खुसरो खान| अब जानना जरूरी ये हे की खुसरो खान का असली नाम किसी को भी नहीं मालूम, क्यूंकि ये सब कुछ बहुत ही कम वक़्त में हुआ था इसीलिए वर्तमान इतिहास में खुसरो खान का बहुत ही कम जिक्र है, पर जो बात पता है वो ये थी की,
१-वेगदो भील ने मरने से पहले खुसरो खान को सोमनाथ के मंदिर के अपमान और शहीदों की मृत्यु का बदला लेने को कहा
२-खुसरो खान एक दलित (परवारी-महार) हिन्दू थे व उन्हें युद्ध में पकड़ लिया गया था| refrence – इब्नबतूता की किताबों में इसका पूरा जिक्र है|
३-खुसरो खान ने खिलजी सल्तनत का अंत किया था न की गयासुद्दीन तुग़लक़ ने जैसा की गलत हमें पढाया गया है|
४- खुसरो खान को अत्यधिक प्रताड़ित किया गया व उन्हें इस्लाम कबूलवाया गया|
५- अंत में खुसरो खान ने अल्लौद्दीन खिलजी के मरने के बाद उसके बेटे मुबारक शाह को मार कर सोमनाथ के बदला ले लिया और खिलजी सल्तनत का अंत कर दिया |
६- बाद में खुसरो खान ने दुबारा हिन्दू धर्म स्वीकार लिया था व इस बात के स्पष्ट प्रमाण मौजूद हैं |
Reference -Advanced Study In The History Of Medieval India – Vol I, Volume 1 By Jaswant Lal Mehta, pg. 185
७-और उसके बाद खुसरो खान दिल्ली का राजा बना, हालांकि वो केवेल ६ माह ही राज कर पाया उसके बाद उसे गयासुद्दीन तुग़लक़ ने हरा दिया | परन्तु ख़ुशी की बात ये हे की एक दलित हिन्दू ने मजबूरी में इस्लाम स्वीकारने के बाद फिर से हिन्दू धर्म स्वीकार करके एक हिन्दू राजा बना दिल्ली सल्तनत का|
अब हमारा एजुकेशन सिस्टम हमें क्या पढ़ाता है ये बात तो सबको पता चल ही गयी होगी!!
खुसरो खान को तो मिटा ही दिया गया है|

संथाल जनजाति बिहार, झारखंड के अलावा बंगाल में भी होती है | बीरभूम जिले के सुलंगा गाँव में इनके करीब सौ घर होंगे | छोटा सा गाँव है, संथालों की आबादी भी वही 500-700 जैसी होगी | इतने मामूली से गाँव का जिक्र क्यों ? क्योंकि बरसों पहले यहाँ अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका गया था | जैसा कि बाकी भारत में हुआ था यहाँ भी विद्रोह की मुख्य वजह धार्मिक और आर्थिक ही थी |

ये वो दौर था जब बिहार और बंगाल अलग अलग सूबे नहीं थे | एक ही बंगाल हुआ करता था और लोग भाषाई आधार पर सीमायें मानते थे | 1907 के उस दौर में बिहार के एक करपा साहेब को बुला कर यहाँ का जमींदार बना दिया गया और वो लगे किसानों से लगान वसूलने | इस लगान की दो शर्ते थी, या तो सीधे तरीके से लगान दो, या इसाई हो जाओ तो लगान माफ़ किया जायेगा |

विरोध करने वालों को या तो मार दिया गया था या पकड़ कर असम में कुली बना कर भेजा गया था | इस नाजायज और जबरन वसूली ऊपर से धर्म परिवर्तन के खिलाफ मुर्मू लोग विद्रोह पर उतर आये | जैसा कि बाकी के भारत में होता है और तिलक ने भी किया था वैसे ही यहाँ भी लोगों ने एकजुट होने के लिए त्योहारों का ही सहारा लिया | दुर्गा पूजा की नवमी को बलि प्रदान के दिन जब सब इकठ्ठा होते वहीँ से विद्रोह की शुरुआत हुई थी | विद्रोह के नेता थे बोर्जो मुर्मू और उनके भाई |

दल हित चिन्तक आज महिषासुर को जब संथाल लोगों का वंशज और झारखण्ड इलाके का वासी बताने की कोशिश कर रहे हैं तो उन्होंने संथाल इतिहास तो जरूर ही देखा होगा ? अब ये सवाल इसलिए है क्योंकि बोर्जो मुर्मू के भाई का नाम दुर्गा मुर्मू था | जब इतिहास में संथाल विद्रोह दर्ज किया जाता है तो दुर्गा मुर्मू और बोर्जो मुर्मू का नाम साथ ही लिया जाता है | बोर्जो मुर्मू के वंशज अभी भी इसी गाँव में होते हैं | दुर्गा पूजा अभी भी यहाँ होती है, हां संस्कृत वाले मन्त्र नहीं पढ़े जाते, स्थानीय भाषा में बदले हुए मन्त्र होते हैं | तारीख़ वही बाकी भारत की दुर्गा पूजा वाली होती है मूर्तियाँ स्थानीय रंग-ढंग की |

जांच करने के लिए जो जाना चाहेंगे वो गाँव के पुजारी रोबीन टुडू से अष्टमी को गोरा साहिब को दर्शाने के लिए सफ़ेद छागर की बलि की प्रथा जांच सकते हैं | इलाके के वाम मोर्चे के पुराने मुखिया अरुण चौधरी से भी बात कर सकते हैं, दुर्गा पूजा में कम्युनिस्ट भी शामिल होते है | क्या कहा ? रोबिन टुडू नाम क्यों है पुजारी का ? भाई वो क्रिस्चियन वाला Robin नहीं है, “रविन्द्र” का बांग्ला अपभ्रंश है रोबीन ! नहीं भाई, हर बार पुजारी ब्राह्मण हो ये भी जरूरी नहीं होता |

बाकी ऊँचे अपार्टमेंट की तेरहवीं मंजिल (जिसका नाम आपने अज्ञात कारणों से 14th Floor रखा है) पर बंद ए.सी. कमरों से भारत पूरा दिखता भी नहीं जनाब ! नीचे जमीन पे आइये तो बेहतर दिखेगा |

आनंद कुमार

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